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भारतीय चिन्तन में ‘लोक’ शब्द का अपना विशेष महत्व है। भारतीय
संदर्भों में लोक को अन्यान्य रूपों में भी प्रयुक्त किया जाता रहता है। लोक के पावन
और दिव्य स्वरूप हमारे आसपास सहज रूप में स्वीकार्य दिखते हैं। पृथ्वीलोक, पाताललोक, आकाशलोक-जिन्हें हम त्रिलोक के रूप में परिभाषित करते हैं-
को दिव्यता, पावनता के कारण
स्वीकार्यता प्राप्त है। इसके अतिरिक्त लोकनाथ,
लोकेश्वर आदि शब्दों के द्वारा हमें ईश्वरीय सत्ता का आभास होता है और इनसे
किसी जाति विशेष का अथवा किसी क्षेत्र विशेष का भान भी नहीं होता है। संस्कृत में
लोक शब्द को स्थानवाची तथा जीववाची स्वीकारा गया है। ऋग्वेद में कहा भी गया है-
नाभ्या
आसीदंतरिवं शीर्ष्णा द्यौ समवर्तत
पद्भ्यां
भूमिद्दिशः श्रोत्रात्तथा लोकां अकल्पयन्। (ऋ0
10/90/14)
इससे ज्ञात होता है कि लोक का जैसा अर्थ वर्तमान में
लगाया जाता है (देहाती, गँवारू
आदि जैसा) वैसा अंग्रेजी के फोक के हिन्दी रूपान्तरण के कारण प्रचलन में आया है।
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भारतीय
मनीषियों के अनुसार लोक शब्द का महत्व किसी भी रूप में कम करके नहीं आँका जा सकता
है। डॉ0 वासुदेवशरण
अग्रवाल का कहना है कि लोक हमारे जीवन का महासमुद्र है। उसमें भूत, वर्तमान और भविष्य सभी कुछ संचित रहता
है। लोक राष्ट्र का स्वरूप है। कुछ इसी तरह के विचार हिन्दी साहित्य के प्रकाण्ड
विद्वान डॉ0 विद्यानिवास
मिश्र भी व्यक्त करते हुए कहते हैं कि लोक देश का अनुभाविक रूप है। इस प्रकार
लोक अपने आपमें विशाल अर्थ समेटता है।
जबकि डॉ0 हजारीप्रसाद
द्विवेदी का कहना है कि लोक शब्द का अर्थ जनपद अथवा ग्राम नहीं है, बल्कि नगरों और गाँवों में फैली हुई
समूची जनता है, जिसके
व्यावहारिक ज्ञान का आधार पोथियाँ नहीं हैं। वास्तव में लोक विशद,
व्यापक, विराट, सर्वव्यापक, सार्वकालिक तथा परम्परानुमोदित है जो
किसी शास्त्रीय अथवा अभिजात्य वर्ग, संस्कार
में बद्ध नहीं है। वह तो गाँव की झोपड़ी से शहरों क गगनचुम्बी इमारतों में रहने
वाले संवेदनशील मानस में विद्यमान है। इन विद्वानों के मतानुसार यह तो स्पष्ट है
कि लोक को संकीर्णता में बाँध नहीं जा सकता है।
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भारतीय
संस्कृति विविध क्षेत्रों, प्रान्तों
आदि में अपने विविध मनोहारी रूपों में व्याप्त है। बुन्देली लोकजीवन भी इससे अछूता
नहीं रहा है। यहाँ लोककला के मनोहारी उदाहरण सर्वत्र बिखरे दिखाई देते हैं। लोककला
के अतिरिक्त बुन्देली जीवन में लोकदेवताओं,
लोकोक्तियों, लोकाचार, लोकगीतों, लोकनृत्यों, लोकक्रीड़ाओं, लोककथाओं आदि का महत्व सदैव से रहा है।
इस कारण से इनमें भी प्रयुक्त होने वाले प्रतीकों को किसी न किसी रूप में
मांगलिकता प्रदान की गई है। बुन्देली लोकजीवन में दैनिक कार्यों के अतिरिक्त पर्व
विशेष पर, त्यौहार पर
अथवा किसी मांगलिक कार्यक्रम पर इन प्रतीक चिन्हों को भूमि पर, दीवार पर अंकित कर इनको महत्व प्रदान
किया जाता है। विविध अवसरों पर बनाये जाने वाले ये मांगलिक प्रतीक घर की महिलाओं, बेटियों के द्वारा बनाये जाते हैं और
इनका आलेखन भारतीय संस्कृति के अनुरूप करके इनका भव्य-दिव्य स्वरूप निर्मित किया
जाता है। इन आलेखनों में महिलाओं द्वारा घरेलू सामग्री का ही उपयोग करके मांगलिक
प्रतीकों को विशेष रूप से निर्मित किया जाता है। इस तरह के आलेखनों में, मांगलिक प्रतीकों में कलश, वृक्ष, सूरज, चन्द्रमा, सितारे, फूल, मानव
आदि का निर्माण किया जाता है और इन्हें गोबर,
गेरू, जौ, हल्दी, चावल, कोयला
आदि से बनाया जाता है। इन मांगलिक प्रतीकों को मात्र आलेखन के लिए ही नहीं बनाया
जाता है अपितु इनका अपना एक विशेष अर्थ होता है।
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बुन्देली
लोकजीवन में लोककलाओं का जितना महत्व है उतना ही महत्व इन मांगलिक प्रतीकों का भी
है। आमतौर पर घर की महिलायें प्रतिदिन प्रातः घर की देहरी पर सुन्दर आलेखन करती
हैं और इसके पीछे परिवार के प्रति मंगलकामना की चाह रहती है। बुन्देलखण्ड क्षेत्र
में समृद्ध सांस्कृतिक विरासत रही है और इसी कारण से आमजन अपने प्रत्येक कदम को
हर्षोल्लास से, पूर्ण उत्साह
से मनाता है। वह अपने कार्यों में मंगलकारी भावना का समावेश करना चाहता है और इसी
कारण से वह किसी भी आयोजन में चाहे वह जन्मोत्सव हो अथवा विवाहोत्सव, घर को कार्य हों अथवा कृषि कार्य, बच्चों के खेल हों अथवा किसी जाति विशेष
का आयोजन, सभी में किसी न
किसी रूप में मांगलिक प्रतीकों को सहजता से स्थान मिलता है। बुन्देलखण्ड क्षेत्र
में मांगलिकता के प्रति आमजन की सशक्त भावना को इस रूप में देखा-समझा जा सकता है
कि उसने छोटे से छोटे कार्य में भी मंगल प्रतीकों की उपस्थिति को दर्शाया है।
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बुन्देली
क्षेत्र में मांगलिक प्रतीकों में एक तो वे प्रतीक हैं जो प्रकृति के अंग के रूप
में हमारे चारों ओर विद्यमान हैं। इन प्रतीकों में बरगद, पीपल, आम, केला, तुलसी आदि को स्वीकारा गया है तथा इसी
के साथ ही नदी, तालाब, मछली, गाय, नाग, कौआ आदि को भी मांगलिक प्रतीक के रूप
में स्वीकार्यता प्राप्त है। इसके अतिरिक्त देवतुल्य प्रतीकों में गणेश, स्वास्तिक, अग्नि, जल, सूरज, चन्द्रमा, तारों आदि सहित नवग्रहों को भी मांगलिक प्रतीक स्वीकारा गया
है। इनको सामान्य कार्यों में मंगलविधान के साथ पूजा जाता है। इसके अलावा कुछ
मांगलिक प्रतीक इस प्रकार के हैं जिन्हें विशेष पर्वों, त्योहारों पर ही निर्मित किया जाता है।
यद्यपि इन आलेखनों में भी वृक्षों का, नक्षत्रों
का, नदी-तालाबों
आदि का चित्रण किया जाता है किन्तु समग्र रूप से इनका अंकन होने पर ये मंगल प्रतीक
विशेष पर्व-त्योहार का अर्थ स्पष्ट करते हैं। इन पर्वों-त्योहारों में हरछठ, नागपंचमी, गोधन, सुआटा
आदि को उदाहरण के रूप में देखा जा सकता है। इसके साथ ही साथ कुछ मांगलिक प्रतीक इस
तरह के होते हैं जिन्हें वैवाहिक कार्यक्रमों के अवसर पर स्वीकार्यता प्राप्त है।
इनमें लाला हरदौल का चबूतरा, मण्डप
आदि को देखा जा सकता है। इन्हें संक्षिप्त रूप से इस प्रकार से समझा ज सकता है।
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चित्रांकन में प्रयुक्त होने वाले
मांगलिक प्रतीक
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ये वे प्रतीक
होते हैं जो सामान्य कार्यों में, हवन
में, व्रतादि में
प्रयुक्त किया जाता है। इन मांगलिक प्रतीकों में विशेष रूप से गणेश, स्वास्तिक, कलश आदि के साथ-साथ नवग्रह का प्रयोग
किया जाता है। हिन्दू सामाजिक, धार्मिक
परम्परा में इन प्रतीकों को सहजता से स्वीकार कर इन्हें महत्वपूर्ण स्वीकारा गया
है। घर में किसी भी तरह का धार्मिक आयोजन हो,
जन्मोत्सव हो, विवाहोत्सव हो
अथवा कोई पूजन आदि हो उसमें इन प्रतीकों को मंगल रूप में अंकित किया जाता है। इन
मांगलिक प्रतीकों को परिचयात्मक रूप से निम्नतः देखा जा सकता है-
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गणेश -
भारतीय हिन्दू
संस्कृति में किसी भी धार्मिक अनुष्ठान के आरम्भ में देवाधिदेव श्री गणेश का
सर्वोपरि स्थान है। प्रत्येक धार्मिक आयोजन में गणेश को आराध्य देव के रूप में, प्रथम देवपुरुष के रूप में प्रतिष्ठित
किया जाता है और सर्वप्रथम इन्हीं का आवाहन करके पूजन को प्रारम्भ किया जाता है।
गणेश जी की मांगलिकता इतने सहज रूप में स्वीकार है कि पूजा-स्थलों, मंदिरों आदि में स्थापना के अतिरिक्त भी
इन्हें घर के मुख्य द्वार के ऊपर, दरवाजों
के ऊपर, पठन-पाठन के
स्थान पर, लाभकारी स्थान
पर, अनिष्ट से बचने
के लिए भी इनका अंकन किया जाता है अथवा इन्हें मूर्ति रूप में प्रतिस्थापित किया
जाता है। गणेश जी का चित्रांकन शुभ और मंगलकारी माना जाता है, इस कारण बहुत से व्यक्ति इन्हें माला, लॉकेट आदि के रूप में भी धारण करते हैं।
गणेश जी का चित्रांकन स्थिति तथा स्थान के अनुसार किया जाता है। धार्मिक आयोजनों
में इनके चित्रण में हल्दी, गेरू
आदि का प्रयोग किया जाता है।
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स्वास्तिक अथवा चक्राकार सतिया -
स्वास्तिक का
चिन्ह हिन्दू धार्मिक आयोजनों में देवतुल्य स्थान रखता है। इसे आस्था के साथ-साथ
गतिशीलता का सूचक भी स्वीकारा गया है। धार्मिक अनुष्ठानों में, पूजन में वैवाहिक कार्यक्रमों में, जन्मोत्सव में स्वास्तिक का अंकन मुख्य
रूप से किया जाता है। गणेश जी के अंकन और स्वास्तिक के अंकन के पश्चात ही किसी धार्मिक
अनुष्ठान का आरम्भ किया जाता है। बुन्देलखण्ड क्षेत्र में इसे सतिया अथवा चक्राकार
सतिया भी कहा जाता है। ऐसी मान्यता है कि स्वास्तिक के अंकन से घर-परिवार में
सुख-समृद्धि सदैव बनी रहती है। इसकी गतिशीलता की स्वीकार्यता के कारण ही इसे
नुकीला बनाया जाता है। चक्राकार सतिया का अंकन बुन्देली क्षेत्र में विशेष रूप से
शिशु के जन्म के पश्चात होने वाले आयोजन में किया जाता है। उस समय इसे गोबर से
बनाया जाता है और उस पर जौ का प्रयोग किया जाता है। इसके अतिरिक्त धार्मिक स्थलों
पर, किसी लाभकारी
स्थान पर, घर के दरवाजे
के दोनों ओर इसका प्रयोग किया जाता है।
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कलश -
भारतीय धार्मिक
परम्परा में कलश को मांगलिक मान्यता प्राप्त है। इसे सम्पन्नता का सूचक माना जाता
है इस कारण से इसका अंकन समस्त पर्वों, धार्मिक
आयोजनों में, त्योहारों में, विवाहोत्सव आदि में किया जाता है। घर के
दरवाजे के दोनों ओर बनाये जाते कलश को परिवार की समृद्धता और सम्पन्नता का सूचक
माना जाता है। कलश का चित्रांकन होने के अतिरिक्त अधिकतर धार्मिक अनुष्ठानों, व्रत, त्योहारों, पर्वों, विवाहोत्सवों आदि में कलश का चित्रांकन
होने के साथ-साथ उसे मूर्त रूप में भी प्रयुक्त किया जाता है। कलश का चित्रांकन
अकेले नहीं किया जाता है, इसके
चित्रांकन में कलश में मुँह पर आम के पत्ते,
नारियल आदि का भी अंकन किया जाता है, साथ ही
इसे विविध तरीके से सजाया जाता है। इसी तरह से अनुष्ठानादि में प्रयुक्त होने वाले
कलश को सजा-सँवार कर इसके मुँह पर भी आम के पत्ते, नारियल आदि को लगाया जाता है।
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सूर्य, चन्द्रमा, तारे -
नक्षत्रों में
मुख्य रूप से सूर्य, चन्द्रमा, तारों आदि को ही चित्रित किया जाता रहा
है। मांगलिक प्रतीकों के रूप में इनका अंकन भी किया जाता है और विविध पर्वों, अनुष्ठानों में साक्षात इनका पूजन करने
की भी परम्परा है। आमजन के मध्य ये नक्षत्र सहज रूप में मांगलिक प्रतीक के रूप में
मान्यता प्राप्त है। शुभ कार्यों में, हवन
में, कथा आदि में
स्वास्तिक, गणेश, कलश आदि के चित्रांकन के चारों ओर इनका
भी अंकन किया जाता है। इन मांगलिक प्रतीकों को सार्वभौम रूप से सत्य मानने के
साथ-साथ इनमें देवत्व का भी आरोपण किया गया है। इस कारण से भी इनकी आधारभूत सत्ता
को स्वीकार कर इनकी महत्ता को स्थापित किया जाता है। इन प्रतीकों को मंगलकारी
मानने के पीछे इनको काल का द्योतक स्वीकारना तथा प्रकाशवान होना भी है। अपनी
प्रभावशाली स्थिति एवं पावनता के चलते भूमि-भित्ति अलंकरण में इन्हें प्रमुखता से
चित्रित किया जाता है। इन मांगलिक प्रतीकों को गोबर, चूने की लिपाई के बाद गेरू, आटा, चावल
के घोल आदि से बनाया जाता है।
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पशु-पक्षी -
लोककला में पशु-पक्षियों
को भी महत्वपूर्ण रूप से स्वीकार कर उन्हें भी मांगलिक प्रतीक के रूप में चित्रित
किया जाता है। इनके चित्रांकन के द्वारा प्रकृति के अंगों-उपांगों को महत्व देने
का प्रयास तो रहता ही है साथ ही इनको विविध अर्थों में भी स्वीकार किया जाता है।
इन पशु-पक्षियों के चित्रांकन में विशेष रूप से हाथी, घोड़ा, मछली, मोर, उड़ते पंछियों को दर्शाया जाता है। यहाँ
हाथी को शक्ति एवं गम्भीरता के रूप में, घोड़े
को गतिशीलता एवं तीव्रता के रूप में, मोर को
समृद्धता एवं खुशी के रूप में, उड़ते
पक्षियों को स्वतन्त्रता एवं उत्साह के रूप में, मछली को शुभकारी एवं सच्चे प्रेम के अर्थ में चित्रित किया
जाता है।
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इन पशु-पक्षियों
के चित्रांकन के अतिरिक्त सीधे रूप में भी कुछ जीवों को मांगलिक प्रतीक के रूप में
मान्यता प्राप्त है। मछली, गाय
आदि इसके सशक्त उदाहरण कहे जा सकते हैं। गाय को भी आमजन में देवतुल्य स्थान
प्राप्त है तथा मछली को सच्चे प्रेम का द्योतक स्वीकारे जाने से इसे भी लोग घरों
में रखना पसंद करते हैं। ऐसी मान्यता है कि किसी भी कार्य पर जाने से पूर्व मछली
के दर्शन होना सफलता का सूचक है।
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कमल -
लोककलाओं में
वृक्षों, पौधों, फूलों आदि का चित्रांकन भी किया जाता
है। विविध वृक्षों को चित्रित किया जाता है साथ ही विविध फूलों को भी दर्शाया जाता
है किन्तु विशेष रूप से कमल के फूल का चित्रांकन महत्वपूर्ण स्थान रखता है।
बुन्देलखण्ड क्षेत्र में लगभग प्रत्येक भूमि-भित्ति आलेखन में कमल के फूल का
चित्रांकन अवश्य ही किया जाता है। कमल को निर्लिप्तता का द्योतक माना जाता है और
इसी कारण से प्रत्येक आलेखन में इसको स्थान दिया जाता है। इसके अलावा आलेखन में
वृक्षों का सांकेतिक चित्रण भी किया जाता है।
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वास्तविक रूप में प्रयुक्त होने वाले
मांगलिक प्रतीक
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बुन्देली
क्षेत्र के स्वीकार मांगलिक प्रतीकों को कार्यक्रमों, आयोजनों में भूमि-भित्ति अलंकरण के रूप
से चित्रित किया जाता है। ये मांगलिक प्रतीक मुख्य रूप से अलंकरण, चित्रांकन में प्रयुक्त होते हैं। देखा
जाये तो इनमें सूरज, चन्द्रमा आदि
ही इस तरह के मांगलिक प्रतीक हैं जिन्हें मनुष्य सांकेतिक रूप से भी अलंकृत करता
है और उसे वास्तविक रूप में भी स्वीकारता है। इनके अलावा कुछ ऐसे मांगलिक प्रतीकों
का समाज में चलन है जिन्हें वास्तविक रूप में ही अधिक महत्व प्राप्त है। ये प्रतीक
मंगलकारी माने और स्वीकारे भी गये हैं तथा इनमें से कुछ को किसी पर्व विशेष पर, किसी अनुष्ठान विशेष पर महत्व प्राप्त
है। इनको संक्षिप्त में निम्न रूप में देखा-समझा जा सकता है।
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बरगद -
लोककलाओं में
वृक्षों के चित्रांकन का अपना विशेष महत्व है। भूमि-भित्ति अलंकरण में पेड़-पौधों, फूलों को स्थान प्राप्त है। इन प्रतीकों
को किसी अवसर विशेष पर मूर्त रूप में भी मंगलकारी मान कर इनकी पूजा की जाती है और
इनको मांगलिकता के भाव से स्वीकारा जाता है। इन वृक्षों में बरगद, पीपल, केला, तुलसी, आम आदि को शामिल किया जाता है किन्तु
इनमें भी बरगद का अपना विशेष महत्व है। महिलायें बरगद की पूजा अपने पति की लम्बी
आयु की कामना करती हैं। वट सावित्री, बरगदाई
अमावस आदि नाम से होने वाले पर्व में बरगद की पूजा की जाती है।
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केला -
गुरुवार का
व्रत करने वाली महिलायें केले के वृक्ष की पूजा करती हैं। बुन्देली लोकजीवन में
वैसे भी केले के वृक्ष को मांगलिक रूप में स्वीकारा जाता है। सत्यनारायण व्रत कथा
के अवसर पर विशेष रूप से केले के पत्तों का प्रयोग किया जाता है। इसी तरह से
महिलाओं द्वारा किये जाने वाले व्रत अनुष्ठान में केले के वृक्ष की पूजा कर उसको
मांगलिक प्रतीक के रूप में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है।
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तुलसी -
तुलसी के पौधे
को भी आमजन के मध्य मंगलकारी रूप में स्वीकारा जाता है। बुन्देलखण्ड क्षेत्र में
घर-परिवार के व्यक्ति, महिलायें, बच्चे दैनिक पूजा-आराधना में तुलसी के
पौधे की पूजा करते हैं। तुलसी के पौधे के सम्बन्ध में मान्यता है कि इसे घर में
लगाने से घर-परिवार में सुख-समृद्धि बनी रहती है। इसके अतिरिक्त महिलाओं द्वारा
सोमवती अमावस्या के अवसर पर तुलसी के पौधे की पूजा भी की जाती है वहीं बुन्देलखण्ड
में कार्तिक मास में तुलसी के पौधे का विवाह भी धर्मपरायण महिलायें शालिगराम के
साथ सम्पन्न करवाती हैं।
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आँवला -
बुन्देलखण्ड क्षेत्र
में आँवले के पेड़ को भी धार्मिक मान्यता प्राप्त है और इस कारण से इसे भी मांगलिक
प्रतीक के रूप में स्वीकार किया जाता है। कार्तिक मास में इच्छानवमी पर्व विशेष के
आयोजन पर महिलायें व्रत-उपवास रखती हैं तथा उस दिन विशेष को आँवले के पेड़ की
परिक्रमा करके उसके नीचे एकत्र होकर भोजन करती हैं। ऐसी मान्यता है कि इच्छानवमी
को सच्चे मन से आँवले के पेड़ के नीचे जो भी मनोकामना की जाती है वह पूर्ण होती है।
इस कारण से आँवले के पेड़ को भी मांगलिक प्रतीकों में शामिल माना जाता है।
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गाय -
गाय का महत्व
आम आदमी के जीवन में सदैव से रहा है। देवतुल्य और हिन्दू मान्यताओं के अनुसार
पूज्य होने के कारण इसे भी हिन्दू परम्पराओं में मांगलिक प्रतीक के रूप में
स्वीकारा गया है। माना जाता है कि प्रातःकाल गाय के दर्शन होना अथवा गाय की सेवा
करने से मानव मात्र को मोक्ष की प्राप्ति होती है। इसकी मांगलिकता के कारण ही गाय
पर सभी की दया-दृष्टि बनी रहती है और गाय को मारना अथवा उसका वध करना किसी भी रूप
में पाप से कम नहीं माना गया है। घर-परिवार में होने वाले धार्मिक अनुष्ठानों, आयोजनों में, किसी मांगलिक उत्सवों पर पूजन आदि के
बाद गाय को भोजन कराना बहुत ही शुभ समझा गया है। बुन्देलखण्ड क्षेत्र में आज भी
प्रातःकाल भोजन बनाते समय सबसे पहले गाय के लिए रोटी बनाकर अलग निकाल कर रख दी
जाती है, इसे गाय के
मांगलिक महत्व का उदाहरण कहा जा सकता है।
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कौआ -
आम धारणाओं में
कौआ सामाजिक रूप में सहज स्वीकार जीव नहीं है,
इसके बाद भी इसको मांगलिक मान्यता विशेष आयोजन पर प्राप्त है। हिन्दू
मान्यताओं के अनुसार पितर पक्ष के पन्द्रह दिनों में घर-परिवार के बुजुर्ग कौए का
रूप धारण करके धरती पर आते हैं। इसी धार्मिक मान्यता के चलते पितर पक्ष में कौओं
को प्रातःकाल भोजन करवाने की परम्परा है। कौओं में परिवार के बुजुर्गों का आरोपण
करके उसको भी लोकजीवन में मांगलिक प्रतीक के रूप में सहज स्वीकार्यता प्राप्त है।
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नाग (सर्प) -
सर्प अथवा नाग
का नाम सामने आते ही भय का संचार होता है इसके बाद भी हिन्दू रीति-रिवाजों में नाग
को मांगलिकता से पूर्ण माना जाता है। नाग का चित्रांकन तो विभिन्न भूमि-भित्ति
अलंकरणों में तो होता ही है इसको जीवित रूप में भी पूज्य माना गया है। नागपंचमी के
त्यौहार पर व्यक्तियों द्वारा इसको दूध पिलाने की मान्यता है। बुन्देली लोककलाओं
में इसे काल की अनन्तता का द्योतक माना गया है। इसके मंगलकारी प्रतीक स्वीकारने के
पीछे काल के भय से मुक्ति की भावना कार्य करती है और इसको स्वीकारना दर्शाता है कि
काल शाश्वत सत्य है, इसे किसी भी
रूप में विस्मृत नहीं किया जाना चाहिए।
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सूरज, चन्द्रमा -
सूरज, चन्द्रमा को भारतीय धार्मिक परम्पराओं
में देवतुल्य स्थान प्राप्त है। मंगलकारी भावनाओं का इनमें आरोपण करने के साथ ही
इनका अलंकरण भूमि-भित्ति चित्रांकनों में किया जाता रहता है। इसके अतिरिक्त इन्हें
वास्तविक रूप में भी व्यक्तियों द्वारा मांगलिक प्रतीक के रूप में स्वीकार कर इनका
पूजन किया जाता है। धर्मपरायण व्यक्ति सूर्य को नमस्कार कर अपने दिन की शुरुआत
करते हैं वहीं ज्यादातर व्यक्ति प्रतिदिन स्नान करने के बाद सूर्य का अर्ध्य देकर
इसके प्रति अपनी भावनाओं को व्यक्त करते हैं। इसी तरह से चन्द्रमा के प्रति भी
यहाँ लोगों में आदर का भाव है। महिलाओं के अधिसंख्यक व्रत-उपवास में चन्द्रमा की
उपासना की जाती है, करवाचौथ को
इसके लिए विशेष रूप से जाना जाता है। इस दिन महिलायें पूरे दिन उपवास रखती हैं और
रात को चन्द्रमा के उदय होने पर उसकी पूजा विविध तरीकों से करती हुईं अपने पति की
लम्बी उम्र की कामना करती हैं।
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हरदौल चबूतरा -
बुन्देलखण्ड
में हरदौल चबूतरा का अपना विशेष महत्व है। इस क्षेत्र में वैवाहिक कार्यक्रमों का
आरम्भ लाला हरदौल की पूजा-आराधना के बाद ही होता है। लाला हरदौल को यहाँ देवतुल्य
स्थान प्राप्त है, इसके चलते
बुन्देलखण्ड क्षेत्र के लगभग प्रत्येक गाँव में हरदौल चबूतरा बने हुए हैं और इनको
भी लोकजीवन में मांगलिक प्रतीक के रूप में हृदय से स्वीकार किया गया है। ओरछा
राज्य के महाराजा के छोटे भाई लाला हरदौल ने अपनी भाभी के सम्मानार्थ जहर खाकर
अपने प्राणों का त्याग कर दिया था। ऐसी जनस्वीकारोक्ति है कि मरणोपरान्त लाला
हरदौल ने अपनी भाँजी (बहिन की पुत्री) के विवाह में भात पहुँचा कर और बाद में
दामाद को दर्शन देकर अपने भाई होने के फर्ज का निर्वाह किया था। इसी कारण से
वैवाहिक कार्यक्रमों में हरदौल चबूतरा के द्वारा लाला हरदौल को याद कर उनके प्रति
आदर-सम्मान व्यक्त किया जाता है।
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उक्त मांगलिक
प्रतीकों को सांकेतिक रूप में अथवा वास्तविक रूप में लोकजीवन में सहज स्वीकार्यता
प्राप्त है। इन मांगलिक प्रतीकों को सामान्य रूप में प्रयोग तो किया ही जाता है
साथ ही किसी आयोजन विशेष पर, पर्व-त्यौहार
विशेष पर बनाये जाने वाले आलेखन में, भूमि-भित्ति
अलंकरण में इन प्रतीकों को समवेत रूप से चित्रित करके उस पर्व-त्यौहार विशेष का
आलेखन निर्मित किया जाता है। बुन्देलखण्ड क्षेत्र में इस तरह के पर्व-त्यौहारों
में कुनघुसू पूनौ (गुरु पूनौ), हरछठ, गोधन, करवाचौथ, नागपंचमी, सुआटा आदि में भूमि-भित्ति अलंकरण के
द्वारा इन स्वीकार मांगलिक प्रतीकों का चित्रण किया जाता है। इन आयोजनों पर बनाये
जाने वाले अलंकरणों में लोकजीवन में स्वीकार मांगलिक प्रतीकों का चित्रण किया जाता
है। इन्हें घर की महिलायें पर्व त्यौहार पर घर की सामग्री से बनाती हैं और निश्चित
समय पर पूरे विधि-विधान से पूजा करती हैं।
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देखा जाये तो
लोककलायें व्यक्यिों के जीवन में मात्र शुभ-अशुभ को दर्शाने के लिए अथवा सुन्दरता
के लिए ही अलंकृत नहीं की जाती हैं वरन् इनके पीछे सामाजिक स्वीकार्यता भी कार्य
करती है। ये अलंकरण, ये मांगलिक
प्रतीक हमारी संस्कृति के विराट भाव हैं जिनमें जीवन को देखने की समझ, जीवन को चरितार्थ करने की समझ का समावेश
होता है। इन अलंकरणों में, इन
मांगलिक प्रतीकों में हमारी परम्पराओं के, हमारी
मान्यताओं के मूल्य, सरोकार आदि का
चित्र भी छिपा होता है। यह सम्भव है कि समय में परिवर्तन के साथ-साथ लोककलाओं की
चित्रण-शैली में, मांगलिक
प्रतीकों की अलंकरण-शैली में कुछ परिवर्तन आ गया हो किन्तु यह सत्य है कि ये
प्रतीक अपने आपमें मांगलिकता को समाहित किये हुए जीवन ऊर्जा की संजीवनी का प्रवाह
सदैव निरन्तरता से बनाये हुए हैं। लोकपरम्परा में जीवित ये मांगलिक प्रतीक लोकजीवन
में अपनी उपस्थिति को सदा-सदा बनाये रखेंगे और मानव को मानव-मूल्यों के प्रति, जीवन-मूल्ल्यों के प्रति सचेत करते
रहेंगे।