देवेन्द्र सिंह जी - लेखक |
इतिहासकारों ने जब पानीपत के युद्ध में मराठों की
हार का विश्लेषण किया तो उसमें एक कारण गोविन्द पंत की अक्षमता को भी बतलाया। उनके
अनुसार पेशवा ने एक बड़ी गलती यह की थी कि उसने गोविन्द पंत के विरुद्ध, जिस पर भाऊ की आर्थिक कठिनाइयों को
दूर करने का दायित्व था और जिस पर मराठा धन को गोलमाल करने, अकुशलता
से हिसाब रखने और वर्ष 1750 से मराठा कर वसूल न करने के अभियोग
थे कोई कार्यवाई नहीं की और न ही उनको पद से हटाया। टी०एस०शेजवलकर अपनी पुस्तक पानीपत,
1761 में लिखते हैं – “गोविन्द पंत जैसे
व्यक्ति को पेशवा द्वारा दोआब जैसे क्षेत्र में बनाए रखना अनुचित तथा अबुधिमत्तापूर्ण
था।”
पानीपत के युद्ध में मराठों की पराजय के लिए गोविन्द
पंत को निम्नलिखित आधार पर जिम्मेदार ठहराया गया है।
1-भाऊ द्वारा इच्छित धन की पूर्ति न
करना।
2-शुजा के प्रदेश पर आक्रमण कर शत्रु
का ध्यान न बाटना।
3-दोआब से अब्दाली को को प्राप्त होने
वाली रसद को न रोक पाना।
4-अवध के नवाब शुजाउदौला को मराठों
के पक्ष में करने में असफल रहना।
5-दोआब में मराठो के लिए समुचित मात्र
में यातायात का प्रबंध न कर पाना।
पानीपत में हार के लिए गोविन्द पंत को दोष देना किसी
भी तरह से ठीक नहीं है। अगर मैं एक वाक्य में कहूँ जितने भी कार्यों को पूरा करने की
उनसे अपेक्षा की गई थी वे सब उनकी सैनिक और आर्थिक क्षमता के बाहर थे। हमने देखा है
कि चुर्खी के हरीशाह से निपटने के लिए उनको मराठा सेनापति नारोशकर आदि की सहायता लेनी
पडी थी। गोविन्द पंत मूलतः एक राजस्व अधिकारी थे। तभी उनकी मृत्यु पर इनके समकालीन
बालकृष्ण दीक्षित ने कहा था –
“एक महान पुरुष चला गया।”
पानीपत के युद्ध के समय गोविन्द पंत के छोटे पुत्र
गंगाधरराव कालपी, जालौन के शासक कालपी में रुके रह गए थे। पानीपत में मराठों की हार का पूना
में चाहे जो असर पड़ा हो वह तो पेशवा ही जाने मगर गोविन्द पंत के जाने से उनके जालौन
कालपी राज पर बड़ा गंभीर असर पड़ा। लोगों ने चौथ तथा सालाना कर देना ही बंद कर दिया।
गंगाधरराव की कमजोर स्थिति को देख कर अवध के नवाब शुजौदौल्ला और मुगल बादशाह शाहआलम
ने 11 जनवरी, 1762 को कालपी पर आक्रमण कर
दिया। गंगाधरराव और कालपी के किलेदार त्रिम्बकराव को कालपी से भागना पड़ा। लेकिन अवध
की सेनाओं के जाते ही उन्होंने पुनह कालपी पर अधिकार कर लिया। शुजाउदौल्ला को फिर इधर
आने का मौका ही नही मिला क्योंकि वह अंग्रेजों के विरोध में उलझ गया।
जब तक गोविन्द पंत जिन्दा थे भरतपुर के जाट राजाओं
की इधर देखने की हिम्मत नही पड़ी। लेकिन उनके जाते ही मराठों को चुनौती देने के लिए
उत्तर भारत में कई ताकतें उठ खड़ी हुई, उनमे भरतपुर के जाट राजा जवाहर सिंह प्रमुख थे।
उसने जुलाई 1766 में सिन्धु नदी पार करके जालौन के इलाके में
प्रवेश किया और रामपुरा के राजा कल्याण सिंह को ही नहीं परास्त किया बल्कि गोपालपुरा
पर भी अधिकार कर लिया। दतिया के राजा शत्रुजीत ने जब देखा कि अब उसका नंबर आने ही वाला
है तब उसने जवाहर सिंह से मित्रता कर ली और जाटों के लिए कुदारी, तालेगांव आदि बीस-तीस मराठा गांवों पर अधिकार कर लिया। पी०एम०जोशी द्वारा संपादित
सेलेक्शन फ्राम द पेशवा दफ्तर न्यू सीरिज, वाल्यूम
तीन, न०128 से पता चलता है कि इस आई
बला को टालने के लिए गंगाधर गोविन्द और बालाजी गोविन्द ने अपने दूत कृष्णाजी पन्त को
भेज कर जवाहर सिंह को तीन लाख रुपए देने का प्रस्ताव किया मगर यह प्रस्ताव ठुकरा दिया
गया। जवाहर सिंह ने कहा कि पचास लाख रुपए दिए जायें और दो हजार सैनिकों के साथ दोनों
भाई उसकी सेवा में रहें। यह प्रस्ताव किसी भी हालत में मराठों को स्वीकार नहीं था,
इस कारण नकार दिया गया। प्रस्ताव के नकारते ही जवाहरसिंह ने कोंच पर अधिकार कर लिया।
अब तो गंगाधरराव और बालाजी राव को यह डर हुआ की कहीं उनको कैद ही न कर लिया जाय अत:
गंगाधरराव, बालाजी राव और उनके चाचा गुरसराय के काशीपन्त अपने
सनिकों का साथ जालौन से भाग कर सरावन के किले में पहुंचे। 17
जुलाई को जाटों और मराठो का जो युद्ध हुआ उसमे इन खेर बन्धुओं की हार हो गई। उनको फिर
भागना पड़ा। जवाहर सिंह सेना के साथ उनके पीछे लगा था। रायपुर में फिर एक फिर दोनों
के सैनिकों में घनघोर युद्ध हुआ। जालौन की सेना यहाँ पर भी हारी, उनके लगभग 100 सैनिक इस युद्ध में मारे गए। कृष्णाजी
गंभीर रूप से घायल हुए। गंगाधर और बालाजी परिवार सहित यमुना नदी से नाव द्वारा भाग
कर केवल 150 सैनिकों के साथ पन्ना के राजा हिन्दुपत, खुमान सिंह और गुमान सिंह की शरण में जलालपुर (हमीरपुर) पहुंचे। इन युद्धों
में हार के कारण जवाहरसिंह का कोंच,कालपी जालौन अर्थात इस समय
जो जिले की सीमा है वह सब उसके अधिकार में आ गया। लेकिन मराठों का भाग्य इसी समय फिर
चमकना था। जवाहर सिंह के विरुद्ध उसके घर में ही विद्रोह हो गया इस कारण उसको भरतपुर
लौटना पड़ा। जवाहर सिंह के लौटते ही गंगाधरराव ने अपनी बची सेना तथा बुंदेलों की मदद
से कुछ ही महीनों में कालपी, रायपुर, कोंच,
जालौन और दबोह पर फिर से अधिकार कर लिया।
आज अब बस इतना ही आगे क्या हुआ फिर अगली पोस्ट में।
धन्यवाद
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© देवेन्द्र सिंह (लेखक)
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