Saturday, December 2, 2017

अजेय और गौरवशाली योद्धा कालिंजर दुर्ग

बुन्देलखण्ड के विंध्याचल पर्वत पर अपराजेय योद्धा के रूप में खड़ा कालिंजर दुर्ग सदियों बाद भी अपनी वैभवगाथा, अपनी गौरवगाथा का वर्णन स्वयं करता है। देश के विशाल और अपराजेय माने जाने वाले दुर्ग को सतयुग में कीर्तिनगर, त्रेता में मध्यगढ़, द्वापर में सिंहलगढ़ और कलियुग में कालिंजर के नाम से जाना जाता रहा। यह दुर्ग उत्तर प्रदेश के बुन्देलखण्ड भूभाग में बाँदा जिले की नरैनी तहसील में स्थित है। लगभग 800 फीट ऊपर स्थित दुर्ग के सर्पाकार मार्ग पर चढ़ते हुए दाँयी ओर विंध्याचल पर्वत दुर्ग की विशालता का आभास करवाता है तो बाँये हाथ पर गहरी खाई और दूर-दूर तक फैले खेत मन मोहते हैं। विंध्याचल पर्वत शृंखला पर लगभग 3.2 वर्ग किमी क्षेत्रफल में स्थित दुर्ग का पौराणिक महत्त्व भी है। कालिंजर को कालंजर का अपभ्रंश कहा जाता है। भगवान शिव को कालंजर के नाम से जाना जाता है, जिसका अर्थ है मृत्यु को नष्ट करने वाला। एक पौराणिक कथा के अनुसार भगवान शंकर ने समुद्र मंथन पश्चात निकले विश को पीने के बाद उसे अपने कंठ से नीचे नहीं उतरने दिया था। उन्होंने अपनी व्याकुलता को शांत करने के लिए इसी पर्वत पर आकर विष जीर्ण किया था। इसी कारण से इस स्थान को कालिंजर के नाम से पुकारा जाने लगा। इसके अतिरिक्त महाकाव्यों, पुराणों और अन्य प्राचीन संस्कृत ग्रन्थों में कालिंजर को शैव साधना का एक महत्तवपूर्ण केन्द्र स्वीकारा गया है। भागवत पुराण में भी ब्रह्मा ने सृष्टि की रचना हेतु कालिंजर में ही तपस्या के द्वारा भगवान विष्णु को संतुष्ट किया था।


कालिंजर की इस पौराणिकता की भाँति इसकी ऐतिहासिकता भी विशेष है। जिस पर्वत पर दुर्ग स्थित है उसके दक्षिण-पष्चिम में बाघेन नदी प्रवाहित होती है जो आगे जाकर यमुना नदी में मिल जाती है। प्राचीनकाल में इस दुर्ग पर जैजाकभुक्ति (जयशक्ति चन्देल) का साम्राज्य था। जैजाकभुक्ति बुन्देलखण्ड का ही एक प्राचीन नाम है। इस दुर्ग पर 9वीं शताब्दी से लेकर 15वीं शताब्दी तक चन्देल शासकों का राज्य रहा है। कालिंजर दुर्ग पर चन्देल षासकों के अलावा चेदि, नन्द, मौर्य, शुंग, कुषाण, गुप्त आदि राजवंशों का शासन करना भी माना जाता है। वैसे कालिंजर में पुरापाषाणकालीन मानवीय सक्रियता के साक्ष्य मिलते हैं। दुर्ग से अथवा उसके आसपास के क्षेत्र से, पर्वत शृंखला से पुरापाषाणकालीन अनेक उपकरण प्राप्त हुए हैं। उपलब्ध ऐतिहासिक साहित्य एवं दस्तावेज के अनुसार कालिंजर दुर्ग पर सर्वप्रथम चेदि शासकों के अधिकार करने का उल्लेख ऋग्वेद की एक दान स्तुति में चैद्य वसु द्वारा ब्रह्यतिथि नामक ऋषि को ऊँटों और गायों के दान किये जाने से मिलता है। इसके साथ-साथ कालिंजर दुर्ग से गुप्तकालीन अभिलेखों के मिलने से यहाँ गुप्त शासकों के सक्रिय रहने का भी प्रमाण मिलता है। इसी तरह कलचुरि वंश के प्रथम शासक कृष्णराज की मुद्राओं से यहाँ कलचुरि शासकों के होने के प्रमाण भी मिले हैं। इसी वंश के दूसरे शासक विज्जल द्वारा कालिंजर पुरवराधीष्वर उपाधि धारण करने ने इस तथ्य को और भी प्रामाणिकता प्रदान की। कलचुरियों के शासन के पश्चात यहाँ पर गुर्जरों-प्रतिहारों का शासन आया। इनके बाद कुछ समय के लिए राष्ट्रकूटों का आधिपत्य रहा और इसके पश्चात चन्देलों का शासन स्थापित हुआ। कालिंजर दुर्ग पर भले ही विभिन्न राजवंशों का शासन रहा हो किन्तु उसको व्यापक प्रसिद्धि चन्देल शासकों के आने के पश्चात प्राप्त हुई। इसका एक प्रमुख कारण उनका लम्बे समय तक यहाँ राज्य करना रहा है। चन्देल शासकों ने यहाँ 9वीं शताब्दी से लेकर 15वीं शताब्दी तक शासन किया। गुर्जर-प्रतिहारों के शासन करने का प्रमाण भोज प्रथम (836-8500) के वाराह ताम्रपत्र से तथा राष्ट्रकूटों के शासन करने का उल्लेख कृष्ण तृतीय के जूरा अभिलेख से मिलता है।

चन्देल शासन में दुर्ग पर महमूद गजनवी, कुतुबुद्दीन ऐबक, शेरशाह सूरी और हुमायूँ ने आक्रमण किए लेकिन जीतने में असफल रहे। उपलब्ध दस्तावेजों और अभिलेखों के अनुसार इस दुर्ग पर सन् 10230 में चन्देल राजा विद्याधर के शासन में महमूद गजनबी ने आक्रमण किया था। दुर्ग की अपनी अभेद्य सुरक्षा व्यवस्था और पर्याप्त घेरेबन्दी के कारण यह आक्रमण असफल रहा। कालान्तर में सन् 12020 में परमर्दिदेव के शासनकाल में कुतुबुद्दीन ऐबक ने दुर्ग पर हमला किया किन्तु वह भी असफल रहा। सन् 15450 में इस दुर्ग पर शेरशाह सूरी ने आक्रमण किया। वह महीनों इस दुर्ग पर अपना कब्जा करने के लिए परेशान रहा। एक दिन वह स्वयं ही तोप से गोला दागने को आगे आया। दुर्ग की सुरक्षा प्राचीर को लेकर ऐसी धारणा है कि इसकी दीवार पर तोप के गोलों का कोई असर नहीं होता था। कहा तो ये भी जाता है कि तोप के गोले दुर्ग की प्राचीर से टकराकर वापस लौट जाते थे। इसका प्रमाण शेरशाह सूरी के हमले के समय देखने को मिलता है जबकि उसके द्वारा चलाया गया एक गोला दुर्ग की दीवार से टकराकर वापस उसके बारूद के ढेर पर आकर गिरा और फट गया। परिणामस्वरूप शेरशाह सूरी गम्भीर रूप से घायल हो गया और उसकी मृत्यु हो गई। ऐसा माना जाता है कि चन्देल शासनकाल के अन्तिम चरण में सन् 15590 में कालिंजर दुर्ग पर अकबर ने विजय प्राप्त की। किंवदंतियों के अनुसार तत्कालीन चन्देल राजा रामचन्द्र इस किले को स्वयं ही छोड़कर चले गये थे और अकबर ने उस खाली पड़े दुर्ग पर बिना किसी सशस्त्र संघर्ष के अथवा बिना किसी तरह का युद्ध किये कब्जा कर लिया था। दुर्ग को अकबर ने अपने नवरत्नों में से एक बीरबल को उपहारस्वरूप जागीर के रूप में दे दिया। बीरबल के बाद इस दुर्ग पर मुगलों का आधिपत्य बना रहा। इस दुर्ग पर बुन्देलों ने औरंगजेब के काल में हमला करके विजय प्राप्त की और मान्धाता चौबे को कालिंजर का दुर्गपति नियुक्त किया। सन् 18120 में ब्रिटिश कर्नल मार्टिन्डेल ने चौबे परिवार को सदा के लिए दुर्ग से बेदखल करके अपने अधिकार में ले लिया। ऐसा करने के बाद अंग्रेजी शासकों ने कालिंजर को बाँदा जनपद में सम्मिलित किया और दुर्ग को सैनिक छावनी में बदल दिया। इससे पूर्व यह दुर्ग बुंदेल राजा छत्रसाल के अधीन रहा और छत्रसाल के बाद किले पर पन्ना के हरदेवशाह ने अपना अधिकार जमाया था। 

कालिंजर दुर्ग में प्रवेश सात द्वारों से होता है। इसका प्रथम द्वार सिंह द्वार के नाम से पुकारा जाता है। दूसरा गणेश द्वार तथा तीसरा द्वार चंडी द्वार कहलाता है। बुद्धगढ़ द्वार अर्थात् स्वर्गारोहण द्वार चौथा द्वार है जिसके पास भैरवकुंड नामक सुंदर जलाशय है। दुर्ग का पाचवाँ द्वार अत्यंत कलात्मक है जिसे हनुमान द्वार कहा जाता है। छठवें द्वार के रूप में लाल द्वार और सातवाँ एवं अंतिम द्वार नेमि द्वार है, इसे महादेव द्वार भी कहा जाता है। दुर्ग में पहुँचने के लिए वर्तमान में उत्तर दिशा के रास्ते को मुख्य मार्ग के रूप में प्रयोग में लाया जा रहा है। इसी मार्ग में उक्त सातों द्वार अपना परिचय स्वयं करवाते हैं। लाल बलुआ प्रस्तरखण्डों से निर्मित दुर्ग का सम्पूर्ण वास्तु अपने आपमें अद्वितीय एवं कलात्मक है। सुरक्षा की दृष्टि से सर्वोत्तम माने जाने वाले इस दुर्ग को अकारण ही अजेय दुर्ग का गौरव प्राप्त नहीं है। इसकी सुरक्षा प्राचीर की परिधि लगभग 6 किमी की है। इसकी ऊँचाई 5 मी0 से 12 मी0 तक है और इसी चैड़ाई 4 मी0 से 8 मी0 तक है। 


कालिंजर दुर्ग की सुरक्षा व्यवस्था जितनी अभेद्य है उसकी स्थापत्य कला उतनी ही बेजोड़ है। दुर्ग की महत्वपूर्ण स्थापत्य कलाओं, संरचनाओं में दुर्ग की सुरक्षा प्राचीर, नीलकंठ मंदिर, चौबे महल, रानी महल, राजा अमान सिंह महल, मृगधारा, वेंकट बिहारी मंदिर, पातालगंगा, भैरवकुंड, पांडुकुंड, सिद्ध की गुफ़ा, राम कटोरा, चरण पादुका, सुरसरि गंगा, बलखंडेश्वर, भड़चाचर आदि दर्शनीय स्थलों के साथ-साथ अनेकानेक छोटे-बड़े जलाशय शामिल हैं। कालिंजर के अधिष्ठाता देवता नीलकंठ महादेव हैं। यह दुर्ग का प्राचीन मंदिर है, जो यहाँ का मुख्य आकर्षण है। इसे चंदेल शासक परमादित्य देव ने बनवाया था। यह दुर्ग के पश्चिम कोने में स्थित है। मंदिर में अठारह भुजा वाली विशालकाय प्रतिमा के अलावा नीले रंग का स्वयंभू शिवलिंग स्थापित है। शिवलिंग की विषेशता यह है कि उससे निरन्तर पानी रिसता रहता है। मंदिर के रास्ते पर भगवान शिव, गणेश और हनुमान की प्रतिमाएँ हैं जिन्हें पर्वत काट कर बनाया गया है। नीलकंठ मंदिर का मंडप चंदेल वास्तुशिल्प की अनुपम कृति है। मंदिर के प्रवेशद्वार पर चंदेल शासक परिमाद्रदेव रचित शिवस्तुति है। मंदिर के ऊपर पर्वत को काटकर दो जलकुंड बनाए गए हैं। जिन्हें स्वर्गारोहण कुंड कहते हैं। इसके नीचे पर्वत को काटकर बनाई गई कालभैरव की प्रतिमा है। किले के परिसर में फैली मूर्तियाँ पर्यटकों और दर्शकों के आकर्षण का केन्द्र हैं। कालभैरव की प्रतिमा सर्वाधिक भव्य है। 32 फीट ऊँची और 17 फीट चैड़ी इस प्रतिमा के 18 हाथ हैं। वक्ष में नरमुंड और त्रिनेत्र धारण किए यह प्रतिमा बेहद जीवंत है। 


नीलकंठ मंदिर के अतिरिक्त भी दुर्ग में सातवें द्वार से प्रवेश करते ही चौबे महल स्थित है। भग्नावशेष के रूप में स्थित इस महल का प्रवेशद्वार एकदम सादा किन्तु आकर्षक स्थापत्य कला का प्रतीक है। दोमंजिला इस महल को चौबे बेनी हजूरी तथा खेमराज ने बनवाया था। इसके आगे के मार्ग पर वेंकट बिहारी मंदिर और रानी महल स्थित हैं। वेंकट बिहारी मंदिर बुन्देलकालीन है और दुर्ग के लगभग मध्य भाग में स्थित है। इस मंदिर में गर्भगृह, आयताकार मंडप, छत पर आकर्षक शिखर तथा छोटी-छोटी स्तम्भयुक्त छतरियाँ स्थित हैं। रानी महल भी दोमंजिला विशाल भवन है। भग्नावशेष होने के बाद भी इसका विशाल प्रवेशद्वार और भीतरी खुला बरामदा सम्मोहित करता है। महल में सीता सेज नामक एक छोटी गुफा है जहाँ एक पत्थर का पलंग और तकिया रखा हुआ है जो किसी समय एकांतवास के रूप में उपयोग में लाई जाती थी। 


दुर्ग में कई छोटे-बड़े जलाशय बने हुए हैं। उनमें से एक जलकुंड सीताकुंड कहलाता है। इसी क्षेत्र में दो संयुक्त तालाब हैं। इसका पानी चर्म रोगों के लिए लाभकारी माना जाता है। कहा जाता है कि इस तालाब में स्नान करने से कुष्ठरोग दूर हो जाते हैं। क्षेत्र में किंवदंती है कि चंदेल शासक कीर्तिवर्मन का कुष्ट रोग यहाँ स्नान करने से दूर हुआ था। दुर्ग में एक अन्य जलाशय भी है जिसे पातालगंगा नाम से जाना जाता है। इसमें जलप्रवाह निरन्तर बना रहता है। इसके साथ ही औषधीय गुणों से युक्त जल यहाँ के पांडु कुंड में चट्टानों से निरंतर टपकता रहता है। दुर्ग के दक्षिण मध्य की ओर मृगधारा है। यहाँ पर्वत को तराश कर दो कमरों का निर्माण किया गया है। एक में सात मृगों की मूर्तियाँ हैं जिनसे बराबर जल बहता रहता है। इस स्थान को पुराणों में वर्णित सप्त ऋषियों की कथा से सम्बद्ध माना गया है।

वर्तमान में कालिंजर दुर्ग प्ररातत्त्व विभाग की देखरेख में है। विभाग के द्वारा दुर्ग के भीतर यहाँ की बिखरी, क्षतिग्रस्त मूर्तियों को दुर्ग में ही एक संग्रहालय के रूप में सुरक्षित कर रखा है। ये मूर्तियाँ शिल्प कला की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं। यह संग्रहालय बुन्देल शासक अमानसिंह द्वारा दुर्ग के कोटि तीर्थ तालाब के तट पर अपने रहने के लिए बनवाये महल में बना हुआ है। यह महल बुंदेली स्थापत्य का अनुपम उदाहरण है। 



कालिंजर को कालजयी अकस्मात ही नहीं कहा जाता है। इसने कालखंड के प्रत्येक प्रसंग को चाहे वो प्रागैतिहासिक काल से सम्बद्ध हों, पौराणिक घटनाएँ हों, अनेक विदेशी आक्रांताओं के हमले हों या फिर सन् 1857 का विद्रोह सबको बड़ी खूबसूरती से अपने आँचल में समेट रखा है। वैदिक ग्रन्थों के आधार पर जहाँ इसे विश्व का प्राचीनतम किला माना गया है, वहीं इसके विस्तार और विन्यास को देखते हुए आधुनिक एलेक्जेंड्रिया से भी श्रेष्ठ घोषित किया गया है। इसके बाद भी कालिंजर दुर्ग अभी भी पर्यटन नक़्शे पर उस प्राथमिकता में शामिल नहीं है, जैसा कि उसे होना चाहिए। इसका मुख्य कारण कालिंजर और उसके आसपास के क्षेत्र में पर्यटन सम्बन्धी सुविधाओं का अभाव होना है। अब जबकि दुर्ग पुरातत्त्व विभाग की देखरेख में है; राज्य सरकार की ओर से इसको पर्यटन की दृष्टि से विकसित करने सम्बन्धी प्रयासों को आरम्भ करने की बात कही जा चुकी है तब आशा की जा सकती है कि निकट भविष्य में कालिंजर का अजेय और गौरवशाली दुर्ग देश के पर्यटन नक़्शे पर भी अपनी आभा तथा गौरवगाथा बिखेरेगा।

1 comment:

  1. nice writeup. please visit kalinjar fort website for historical facts and photos - http://kalinjarfort.com

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