Saturday, September 11, 2021

सम्पादकीय लेख लिखने पर बेनीमाधव तिवारी को राष्ट्रद्रोह की सजा

देवेन्द्र सिंह जी 
बेनीमाधव तिवारी जी जालौन जिले के पहले व्यक्ति थे जिनको राष्ट्रद्रोह के जुर्म मे सजा दी गई थी। नई पीढ़ी के लोगों को जानकारी ही नहीं होगी और पुराने लोग तो भूल ही चुके होंगे कि स्वतन्त्रता आंदोलन में जिले के बेनीमाधव तिवारी जी को राष्ट्रद्रोह की सजा दी गई थी। यदि किसी को जानकारी भी होगी तो उनको शायद इसकी जानकारी न हो कि उनको यह सजा क्यों दी गई थी। 

असल में तिवारी जी को अपने अखबार देहाती में एक संपादकीय लेख लिखने के कारण यह सजा दी गई थी। तिवारी जी एक समाचार पत्र देहाती का सम्पादन-प्रकाशन करते थे। उनके समाचार पत्र के शीर्षक या मोटो से ही पता चलता है कि यह एक राष्ट्रवादी विचारधारा का पत्र था। समाचार पत्र का मोटो ये था-


मेरी गाय रहे, मेरे बैल रहें, घर-घर में भरा नित राज रहे।

मेरी टूटी मड़ैया में राज रहे, कोई गैर न दस्तांदाज रहे।।


गोपीनाथ शाहा बंगाल के क्रांतिकारी थे और युगांतर दल के सदस्य भी थे। सर चार्ल्स टेगर्ट पुलिस उपायुक्त था। वह हद दर्जे का ज़ालिम था। अत: क्रांतिकारियों ने उसको मारने का निश्चय किया और यह काम गोपीनाथ शाहा को दिया गया। गोपीनाथ की गोली से टेगर्ट तो बच गया पर अर्नेस्ट डे नाम का अधिकारी मारा गया। गोपीनाथ पकड़े गए और उनको 12 जनवरी 1924 को फाँसी पर लटका दिया गया। फाँसी के समय शाहा की उम्र केवल 24 वर्ष थी। साहा को फाँसी देने की खबर तो अखबारों में छपी पर इसके विरोध में लिखने की हिम्मत किसी अखबार ने नहीं की। इस फाँसी की गूँज उरई में बेनीमाधव तिवारी को सुनाई दी जो देहाती अखबार निकालते थे और उसके संपादक भी थे। उन्होंने एक संपादकीय अपने समाचार पत्र में लिखा। उन्होंने जो लिखा, वह मित्रों से साझा करता हूँ। इसका शीर्षक था - 

भारतीयों के खून की बूंदें भारत की आज़ादी का घोषणा पत्र लिख लिख रही हैं


जहाँ में उनका आना ही मुबारक है मुबारक है।

रहें सफ़ में शहीदों के ज़ो अपने खूं में तर होकर।।


धन्य हैं वे आदमी ज़ो आत्मसम्मान और आज़ादी के नाम पर अपने प्राणों की आहुति दे अनन्त काल के लिए अमर हो जाते हैं।


हँसते-हँसते फाँसी के फंदे में अपनी गर्दन फँसा कर फट से अपने जीवन के फूल को फेंक देना, और गनगनाती हुई गोलियों को गले लगा कर देश और कौम के लिए मर मिटना, ओह! कितनी बड़ी बात है। उनके कार्यप्रणाली से किसी-किसी का मतभेद हो सकता है, उनके विचारों से कोई भी विभिन्नता प्रकट कर सकता है, पर उनकी आजादी की लगन और उनके नि:स्वार्थ बलिदान की कौन सराहना न करेगा?


खुदीराम बोस, सत्येंद्र, कनहाई, लाल दत्त और मि. टिगर्ट के धोखे में मि. डे की हत्या करने वाला गोपीनाथ शाहा आदि एक श्रेणी के आदमी हैं, जिन्होंने देश और कौम का नाम लेकर सरकार की शूली का स्वागत किया और मारना तथा मरना ही अपना सिद्धांत रखा।


दूसरी ओर जालियाँवाला बाग के शहीद राय बरेली के किसान और जैतू के अकाली जत्थे आदि हैं जो नौकरशाही और नाभाशाही के गोलियों के शिकार हुए और जिनका देश और कौम के नाम पर शत्रु का नहीं किन्तु अपना बलिदान करना ही अटल सिद्धांत कहा जा सकता है।


इसमे संदेह नहीं कि यदि भारत आज स्वतंत्र होता तो उसमे ऐसी हत्याएँ और बलिदान कदाचित और कदापि न होते। अस्तु हमें दृढ़तापूर्वक यह कहना ही पड़ता है कि इन दोनों प्रकार की हत्याओं अथवा खून के वे ही जिम्मेदार हैं जिनके कारण सबसे प्राचीन और संसार की सभ्यता के जन्मदाता हमारे भारत पर परतंत्रता की मुहर लगी हुई है।


हम चाहते हैं कि ऐसी हत्याएँ और खून भारतवर्ष में सदा के लिए बंद हो जायें और उनके बंद करने का केवल यही जरिया है कि भारतवर्ष में स्वराज स्थापित हो जाये, परंतु ब्रिटेन के राजनीतिज्ञों को कदाचित इसी में मज़ा आता है अथवा वे भारतवर्ष की आज़ादी से ब्रिटेन की हानि समझते हैं। इसलिए वे पग-पग पर भारतवर्ष की स्वाधीनता का विरोध करते हैं और प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रीति से ऐसे अनेक हत्याकांडों का समर्थन किया करते हैं।


भारतवर्ष की आत्मा जाग उठी है, वह अपने शरीर के बंधन तोड़ने के लिए बेचैन है। अब वह तलवार और मशीनगनों के ज़ोर से अधिक दिन तक गुलाम नहीं रखा सकता। जो ज़ोर-जबरदस्ती से इन 30 करोड़ आदमियों को गुलाम रखना चाहते हैं, वे अमरीका और आयरलैंड के इतिहास से आँखें मीच लेते हैं। एक कौम दूसरी कौम की हुकूमत का जुआ सदैव अपने कंधे पर रखे रहे यह बिलकुल अस्वाभाविक है।


अस्तु, निसन्देह ब्रिटेन और ब्रिटिश साम्राज्य का हित इसी में है कि वह स्वेछा से भारत में स्वराज स्थापित कर सदा के लिए भारतीयों को अपना मित्र बना ले और नौकरशाही द्वारा होने वाले इन नित नए अत्याचारों को सदा के लिए रोक दे।


मि. टिगार्ट के प्राण लेने की फिक्र, मि. डे की हत्या, गोपीनाथ शाहा को फाँसी का हुक्म, अकाली जत्थे पर गोलियों की वर्षा और भारत मंत्री लार्ड ओलीवर की हाल की घोषणा ने भारतवर्ष में फिर नई समस्या उपस्थित कर दी है और प्रत्येक दिल में तहलका मचा दिया है।  


हम मि. टिगार्ट के प्राण लेने के पक्षपाती नहीं हैं, पर हम अवश्य उस शासन प्रणाली के प्राण लेने के पक्षपाती हैं जिसमें मि. टिगार्ट को ऐसे कृत्य करने का मौका लगता है कि जिनसे देश के नवयुवक इस हद तक उत्तेजित हो जाते हैं।


मि. डे की हत्या को जितना हम बुरा समझते हैं उतना ही बुरा हम उस हुक्म को समझते हैं जिसके कारण हमारे देश के युवक गोपीनाथ शाहा को फाँसी दी जायगी। यदि गोपीनाथ शाहा फाँसी न देकर ब्रिटेन के उन राजनीतिज्ञों की बुद्धि को फाँसी दे दी जाती तो अधिक अच्छा होता कि जिसके कारण भारतवर्ष मे मौजूदा शासन प्रणाली मौजूद है।


अकाली जत्थे पर गोली चला कर नाभाशाही और नौकरशाही के सम्मिलित कृत्यों ने देश के खून को खौला दिया है। भारत मंत्री की हाल की घोषणा ने भारतवासियों की उस आशा और विश्वास को चौपट कर दिया है कि जिसे वे मजदूर सरकार पर लगाए हुए थे।


हम ब्रिटेन के राजनीतिज्ञों से पूछना चाहते हैं कि भारतवासियों के हकों को इस तरह कुचलना और देश के वक्षस्थल को उन्हीं के खून से रँगना अंत मे क्या रंग लायेगा?


पता नहीं कि हमारे इस सवाल का वे क्या उत्तर देंगे पर हम तो संसार के इतिहास को सामने रख केवल इस नतीजे पर पहुँचे हैं कि ब्रिटेन के राजनीतिज्ञ अपनी बुद्धि का यदि यों ही परिचय देते रहे और आए दिन इसी तरह भारतीयों के रक्त से भारत की जमीन रंजित होती रही तो भारत की आज़ादी की घोषणा ब्रिटेन द्वारा नहीं किन्तु भारतीयों द्वारा होगी, जिसे आज उनके खून की बूँदें इतिहास के पन्नों पर लिखने जा रही हैं।


अब देशद्रोह का मुकदमा तो चलना ही था। सन 1924 में एक भारतीय पत्र का संपादक ऐसा लिखे, यह तो अंग्रेजों की कल्पना में ही नहीं हो सकता था। उनकी नज़र में तो यह देशद्रोह था, इसलिए उन पर दफा 124-ए ताज़ीरात-हिन्द का एक मुकदमा जिला मजिस्ट्रेट श्री देसाई के न्यायालय में चलाया गया। कानूनी तौर पर तो तिवारी जी के वकील श्री शिवनाथ मिश्र थे लेकिन मुकदमे की पैरवी तथा जिरह खुद श्री तिवारी ज़ी ने ही की थी। तिवारी जी ने मिश्रा जी से कह रखा था कि वे उनकी बगल मे खड़े रहें और जब वे सलाह माँगें तो चुपके से सलाह दे दें। ऐसा हुआ भी। उनका लिखित बयान 72 पन्नों का था। खुद देसाई साहब भी बयान से प्रभावित थे किन्तु सरकार के आदेशों से मजबूर थे। उनको दो वर्षों की सज़ा सुनानी ही पड़ी।





 

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