देवेन्द्र सिंह जी - लेखक |
माहिल के सामने मुख्य दो ही उद्देश्य उसके जीवन में
थे, परमाल और बनाफरों से बदला लेना। जब तक दश्यराज और बच्छराज जिन्दा थे तब तक वह कुछ
भी नहीं कर सका। राजा परमाल ने माहिल के क्रोध को शांत करने के लिए उसको मंत्री का
पद भी दिया मगर महिल का क्रोध फिर भी शांत नहीं हुआ। अपमान का बदला लेने के लिए वह
इस हद तक जाने को तैयार था की यदि उसकी बहिनें विधवा भी हो जाएँ तो यह भी उसको मंजूर
था। मंत्री पद को ठुकराने के लिए उसने एक चाल चली वह यह कि उसने जैन धर्म को अपना लिया।
वह जमाना युद्धों का था, मंत्री को भी युद्ध में जाना पड सकता था। माहिल तो परमाल का
विनाश चाहता था, वह उसकी तरफ से युद्ध क्यों करता इस कारण वह जैन हो गया। माहिल के
मन की बात तब हुई जब दश्यराज और बच्छराज की एक युद्ध में मृत्यु हुई और राजा परमाल
को अपमान का घूंट पीकर खामोश रह जाना पड़ा। इन दोनों वीरों को मरवाने में माहिल ने बड़ी
कूट बुद्धि से काम लिया था।
कूटनीति के चतुर खिलाड़ी एक बार बिठूर के मेले में
गए थे। मेले में उनकी मुलाक़ात माड़ोगढ़ के राजा जम्मी से हुई। जम्मी अपनी बहिन के लिए
मेले से कोई बहुमूल्य उपहार ले जाना चाहता था। माहिल ने यहीं से अपना कूटनीतिक दांव
चला। उसने जम्मी को सलाह दी कि यहाँ पर उपहार योग्य कोई वस्तु नहीं मिलेगी। यदि उपहार
देना ही है तो इसी समय दसरापुर जाओ वहाँ देवला के गले में पड़े नौलखा हार को प्राप्त
करके ले आओ और अपनी बहिन को दो। माहिल की सलाह मान कर जम्मी ने दस्यराज और बच्छराज
(परमाल के सेनापति) का वध कर दिया तथा नौलखा हार और अन्य कीमती सामन जीत कर ले गया।
यह माहिल की पहली कुटनीतिक सफलता थी लेकिन यह सफलता आधी ही थी क्योंकि माहिल की बहिन
मलन्हा ने अपने पति परमाल को इस बात के लिए राजी कर लिया कि उसकी दोनों विधवा बहिनें
तथा उनके पुत्र आल्हा, ऊदल और मलखान वयस्क होने तक महोबा में राज परिवार के साथ ही रह सकें। माहिल
का काम अभी आधा ही हुआ था। दश्यराज और बच्छराज के पुत्र भी छोटे तो थे मगर शेर बच्चे
थे।
ऊदल अभी कम उम्र के ही थे। एक दिन ये शिकार खेलते
हुए बेतवा नदी पार करके माहिल के राज में घुस आए। ऊदल का दल प्यास से व्याकुल होकर
माहिल की बगिया में आ पहुँचा, जहाँ राजमहल की पनिहारिनें महल के लिए पानी भरने आई हुई
थी। पनिहारिनों ने ऊदल और उनके साथियों को उनके कहने पर पानी पिला दिया। इनके घोड़े
भी प्यासे थे अतः पनिहारिनों से घोड़ों को भी पानी पिलाने को कहा गया। यहीं बात बिगड़
गई। पनिहारिनों ने घोड़ों को पानी पिलाने से मना कर दिया, आखिर राजमहल की पनिहारिनें
थी। बात इतनी बढ़ी कि घोड़ों को पानी न पिलाने पर ऊदल ने माहिल की पनिहारिनों के घड़े
फोड़ डाले। माहिल के दरबार में आकर उन पनिहारिनों ने पूरी घटना बतलाई। इन उद्दंड लोगों
को दंड देने के लिए माहिल ने अपने पुत्र अभई को कुछ सैनिकों के साथ भेजा। यह दल भी
पिट-पिटा कर वापस लौटा। अब माहिल ने खुद जाकर इन लोगों को सबक सिखाने का निश्चय किया।
कुंइया में जब माहिल पहुंचा तो उसने ऊदल आदि को पहचान लिया। यहाँ पर माहिल ने फिर एक
दांव चला, उसने ऊदल को ताना मारा कि यहाँ क्या बहादुरी दिखला रहे हो। बड़े बहादुर हो
तो माडोगढ़ में जाकर दिखलाओ, जहाँ पर तुम्हारे पिता की खोपड़ियाँ टंगी हैं। यह पूरा किस्सा
इन बच्चों की माँ ने कभी उनको नहीं बतलाया था।
आल्हा, ऊदल आदि ने पिता का बदला लेने
के लिए माड़ोगढ़ पर चढाई कर दी। माहिल को जब इस बात का पता चला तो वह बहुत खुश हुआ, यह
सोच कर कि अब इन बच्चों की मौत पक्की है। लेकिन इन लोगों ने माड़ोगढ़ को जीत कर अपने
पिता की मौत का बदला ही नहीं लिया बल्कि सब सामान भी वापस ले आए। इस विजय से राजा परमाल
चन्देल तो खुश हुए लेकिन माहिल पर तो मानो बज्रपात हो गया। इनकी वीरता देख कर उसको
डर हुआ कि कहीं ये चन्देल राज पर अधिकार ही न कर लें। वह आल्हा, ऊदल और मलखान से अन्दर
ही अन्दर शत्रुता रखने लगा और किसी तरह इनको महोबा से निकालने की जुगाड़ में लग गया।
जल्द ही उसने राजनीति की वह चालें चलीं कि राजा परमाल ने इन सबको परिवार सहित महोबा
छोड़ने का आदेश कर दिया। माड़ोगढ़ की विजय से इन भाइयों की वीरता चारों तरफ फैल चुकी थी।
इनकी वीरता से प्रभावित कन्नोज के राजा जयचंद ने इस परिवार को अपने यहाँ शरण दे दी।
दिल्ली नरेश पृथ्वीराज और परमाल चन्देल में आपस में बड़ी शत्रुता थी। उरई नरेश माहिल
ने इसका फायदा उठाया। उसने आल्हा, ऊदल की महोबा में अनुपस्थित की सूचना पृथ्वीराज को
दी और महोबा पर आक्रमण करने के लिए उकसाया।
माहिल की सलाह मान कर पृथ्वीराज ने महोबा पर आक्रमण
किया। इतिहासकारों का अनुमान है कि यह घटना 1182-83 की है। पृथ्वीराज की सेना ने सबसे पहले सिरसागढ़
पर चढाई की और उस पर अधिकार कर लिया। यहीं से चंदेलों के राज की सीमा शुरू होती थी।
कहा जाता है कि इस लड़ाई में चंदेलों का सेनानायक मलखान बनाफर वीरगति को प्राप्त हुआ।
अब राजा परमाल को आल्हा और ऊदल जैसे वीरों की कमी महसूस हुई। उसने अपने अपने सन्देशवाहक
जगनिक भाट को दोनों वीरों को कन्नौज से वापस महोबा बुला लाने को भेजा। पहले तो दोनों
भाई आने को तैयार नहीं थे परन्तु माँ के समझाने और कहने पर तैयार हो गए। दोनों भाइयों
ने कालपी पार करके हमीरपुर पर अपने सैन्य दल को स्थापित कर लिया। उधर परमाल की सेना
भी बेतवा के किनारे मोहना (जालौन) पर आ जुटी। उरई से लगभग चौदह मील पश्चिम तथा कोंच
से दक्षिण-पूर्व में दस मील पर अकोढ़ी नामक गाँव के पास पृथ्वीराज तथा चंदेलों के मध्य
हुए। युद्ध में चंदेलों की भारी पराजय हुई। ऊदल सहित अन्य प्रमुख वीर इस युद्ध में
मारे गए। इस प्रकार माहिल ने अपने पूर्वज नागभट्ट परिहार की हार का बदला, जिसको 831 में ननक चन्देल ने हराकर चन्देल राज की स्थापना की थी, अपनी कुटनीतिक चालों से लिया।
कहा जाता है कि इस विजय की ख़ुशी में पृथ्वीराज
ने अकोढ़ी में एक विजय स्तम्भ का निर्माण कराया था परन्तु अब उसका कोई निशान नहीं रह
गया है। युद्ध के बाद जालौन का बहुत बड़ा भाग पृथ्वीराज चौहान के आधीन आ गया। उसने अपने सरदार पजनू राय तोमर को यहाँ का शासक नियुक्त
किया। लेकिन चौहान इस क्षेत्र पर अपना अधिकार ज्यादा समय तक नहीं रख सके क्योंकि तुर्कों
के आक्रमण दिल्ली तक होने लगे थे। कोंच से पजनू राय तोमर को भी दिल्ली जाना पड़ा। इस
स्थिति का फायदा उठाकर चंदेलों ने एक बार फिर यहाँ पर अधिकार कर लिया।
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© देवेन्द्र सिंह (लेखक)
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