बुन्देलखण्ड
सदैव ही अपनी आन-बान-शान के लिए प्रसिद्ध रहा है। यहाँ के प्रतापी राजा अपने कार्य, साहस के कारण आज भी अमर-अजर हैं। ऐसे वीर प्रतापी राजाओं में
एक महाराजा छत्रसाल का नाम अग्रगण्य है। उन्होंने अपनी वीरता, पराक्रम और रणनीतिक कौशल से बुन्देलखण्ड को वैभवशाली राज्य के
रूप में स्थापित किया था। ‘बुन्देलखण्ड केसरी’ के रूप में प्रसिद्ध महाराजा छत्रसाल के राज्य का सीमांकन निम्न रूप में वर्णित
है-
‘इत यमुना, उन नर्मदा, इत चंबल, उत टोंस,
छत्रसाल सौं लरन की, रही न काहू हौंस।’
संग्रहालय में छत्रसाल प्रतिमा के साथ लेखक |
छत्रसाल
का जन्म ज्येष्ठ शुक्ल 3 संवत् 1707 (4 मई 1649 ई०)
को विंध्याचल पर्वत श्रेणियों के मध्य बने जंगलों में हुआ था।
उनके पिता राजा चम्पतराय को विश्वासघातियों के कारण अपना राज्य गँवा जंगलों में जाना
पड़ा। इन्हीं जंगलों,
प्राकृतिक वातावरण, रणभूमि में छत्रसाल का पालन-पोषण हुआ, जिससे उनमें किसी भी स्थिति से निपटने की नैसर्गिक क्षमता का विकास स्फूर्त रूप
से हुआ। बुन्देलखण्ड राज्य की स्वतन्त्रता के लिए मुगलों से संघर्ष करने वाले उनके
पिता तथा उनकी माता रानी लालकुँअरि ने विश्वासघातियों के कारण आत्माहुति दे दी। ऐसे
विपरीत हालातों में भी छत्रसाल ने हार न मानते हुए कालान्तर में सूझबूझ का परिचय देते
हुए राष्ट्रीयता के दैदीप्यमान नक्षत्र छत्रपति शिवाजी से सन् 1668 ई० में भेंट की। छत्रपति शिवाजी उनकी वीरता, आत्मविश्वास के साथ-साथ राष्ट्रचेतना, स्वतन्त्रता के प्रति उनकी क्रियाशीलता, दूरगामी नीतियों से प्रभावित हुए। छत्रसाल को स्वतन्त्र राज्य
स्थापना हेतु प्रेरित करते हुए छत्रपति शिवाजी ने समर्थगुरु रामदास के आशीष वचन सहित
‘भवानी’
तलवार भेंट की-
‘करो देस के राज छतारे। हम तुम तें कबहूँ नहीं न्यारे।।
दौर देस मुगलन को मारो। दपटि दिली के दल संहारो।।
तुम हो महावीर मरदाने। करिहो भूमि भोग हम जाने।।
जो इतही तुमको हम राखे। तो सब सुयश हमारे भाषे।।’
वीर छत्रसाल
स्वराज्य का मंत्र लेकर वापस आकर और अपने साथियों की मदद से 22 वर्ष की उम्र में मात्र 5 घुड़सवारों तथा 25 पैदलों की छोटी सी सेना तैयार की। इतनी छोटी उम्र में सेना
का गठन,
सैनिकों का चयन वीर छत्रसाल की कार्यक्षमता, बौद्धिक प्रतिभा को दर्शाता है। सेना बनाने के बाद सबसे पहला
आक्रमण उन्होंने अपने माता-पिता के विश्वासघाती सेहरा के धंधेरों पर किया। पहले आक्रमण
में प्राप्त विजय से जहाँ छत्रसाल और उनके साथियों का मनोबल ऊँचा हुआ वहीं क्षेत्रवासियों
में भी उनके प्रति विश्वास बढ़ा। अपनी विजय यात्रा को बढ़ाते हुए छत्रसाल बुन्देलखण्ड
राज्य की स्वतन्त्रता और उसके विस्तार हेतु लगातार प्रयासरत रहे। उन्होंने पूर्व में
चित्रकूट और पन्ना का क्षेत्र, पश्चिम में ग्वालियर, उत्तर में कालपी से लेकर दक्षिण में सागर, गढ़कोटा और दमोह तक अपने राज्य का विस्तार किया। उनके रणविजय
की पताका मालवा,
बघेलखण्ड, राजस्थान, पंजाब तक पहराने लगी थी, जिसके चलते यमुना,
चम्बल, नर्मदा, टोंस आदि नदियों में बुन्देल राज्य स्थापित हो गया था।
जैतपुर
में हुए अंतिम युद्ध में महाराजा छत्रसाल पराजित होने की स्थिति में आने लगे। ऐसी विषम
परिस्थिति में उन्होंने बाजीरव पेशवा को अपने पुराने सम्बन्धों का परिचय देते हुए एक
काव्यात्मक पत्र लिखा,
जिसकी चन्द पंक्तियाँ पूरे पत्र का सार प्रस्तुत कर देती हैं-
‘जो गति गज और ग्राह की, सो गति भई है आज।
बाजी जात बुन्देल की, राखौ बाजी लाज।।’
महाराजा छत्रसाल का ताम्रपत्र |
इस पत्र के मिलते ही बाजीराव
पेशवा की सेना ने मुहम्मद बंगश पर आक्रमण कर पराजित कर दिया। इस युद्ध में महाराजा
छत्रसाल पराजित हो सकते थे किन्तु मराठों के साथ अपने प्रगाढ़ रिश्तों के चलते अपना
और बुन्देलखण्ड राज्य का सम्मान बचाए रखा। इसके बाद उन्होंने अपने राज्य का बंटवारा
अपने दोनों पुत्रों और बाजीराव में कर दिया। बाजीराव से वे इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने
मस्तानी,
जिसे वे अपनी पुत्री मानते थे, के साथ उनका विवाह करवा दिया। बुन्देलखण्ड राज्य का विस्तार
चहुँ ओर करने वाले प्रतापी महाराजा छत्रसाल ने पौष शुक्ल तृतीया संवत् 1788 (19 दिसम्बर 1731 ई०) को अपने बसाये नगर छतरपुर में नौगाँव के निकट अंतिम साँस लेकर
जगमगाते नक्षत्रों में शामिल हो गये। बाजीराव पेशवा ने उनके सम्मान में समाधि-स्थल
का निर्माण छतरपुर जिले में धुबेला ग्राम में धुबेला ताल के पास करवाया।
महाराजा छत्रसाल का समाधि स्थल |
आजीवन बुन्देलखण्ड
की स्वतन्त्रता,
उसके स्वाभिमान के लिए संघर्ष करने वाले महाराजा छत्रसाल की
अंतिम निशानी वर्तमान में उपेक्षा का शिकार है। धुबेला में उनके नाम से राजकीय संग्रहालय का उद्घाटन तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल
नेहरू ने किया था। इसी संग्रहालय परिसर में ‘मस्तानी महल’
भी स्थित है। कहते हैं कि बाजीराव ने बंगश पर विजय प्राप्त करने
के बाद यहीं आकर मस्तानी से विवाह किया था और छत्रसाल ने उनके रुकने की व्यवस्था इसी
महल में करते हुए इसका नाम मस्तानी महल रखा था। इसी राजकीय संग्रहालय के पार्श्व में
महाराजा छत्रसाल की पहली रानी कमलापति की स्मृति में बना समाधि स्थल है। यहाँ से लगभग
एक सौ मीटर की दूरी पर महाराजा छत्रसाल की समाधि स्थित है। ये अपने आपमें आश्चर्य का
विषय है कि महाराजा छत्रसाल के नाम से संचालित राजकीय संग्रहालय में उनसे सम्बन्धित
विक्रमी सम्वत 1759
(सन् 1702 ई०) का ताम्रपत्र है, जिसमें उनकी उपलब्धियों, दान देने की सनद, ताम्रपत्र लिखने की तिथि एवं स्थान आदि का उल्लेख मिलता है।
महाराजा छत्रसाल को चित्रांकित करती एक पेंटिंग तथा संग्रहालय के प्रांगण में आदमकद
प्रतिमा भी देखने को मिलती है। इनके अतिरिक्त महाराजा छत्रसाल से सम्बन्धित किसी भी
प्रकार की सामग्री इस संग्रहालय में नहीं है।
महाराजा छत्रसाल की पत्नी की कमलापति की समाधि |
बुन्देलखण्ड
के नाम को अपने नाम से पहचान देने वाले महाराजा छत्रसाल की शासन अथवा प्रशासन स्तर
से मात्र इतनी ही उपेक्षा नहीं की जा रही है। उनके दुर्ग के भग्नावशेष, उनकी और उनकी पहली पत्नी की समाधि भी उपेक्षा का शिकार है। धुबेला
ताल के किनारे बनी इन दोनों समाधियों को संग्रहालय परिसर से अलग रखा गया है, जिसके कारण से स्थानीय क्षेत्रवासियों द्वारा इनके शिल्प और
स्थापत्य के साथ पर्याप्त छेड़छाड़ की जा रही है। संग्रहालय से लगी हुई टूटी, उखड़ी हुई सड़क, उसके आसपास उगी कंटीली झाडि़यां, खरपतवार आदि स्पष्ट रूप से इसका संकेत देते हैं कि संग्रहालय के अलावा महाराजा
छत्रसाल के शेष स्मारकों की सुरक्षा अथवा रखरखाव की ओर शासन-प्रशासन का ध्यान नहीं
है। समाधि स्थल के पत्थरों को तोड़ देना, उन पर किसी भी ठोस वस्तु से अपने नाम को उकेर देना आदि आम रूप में देखा जा सकता
है।
मस्तानी महल |
रानी कमलापति समाधि स्थल के आसपास पक्का निर्माण होने के कारण वहाँ गन्दगी का साम्राज्य
स्पष्ट रूप से नहीं दिखाई देता है किन्तु महाराजा छत्रसाल के समाधि स्थल को यह सौभाग्य
भी प्राप्त नहीं है। उसके आसपास का स्थान कच्चा, मिट्टीदार होने के कारण बहुत बड़ी संख्या में जगली पेड़-पौधों, खरपतवारों, कंटीली झाडि़यों
आदि ने उस इमारत को घेर रखा है। कुछ इसी तरह की स्थिति संग्रहालय परिसर में स्थित मस्तानी
महल की है। उसके अंदर की दीवारें जर्जर, जीर्ण-शीर्ण स्थिति में हैं। वहाँ आने वालों द्वारा एवं स्थानीय लोगों द्वारा पान
खाकर थूकने का,
दीवारों पर खरोंचने का काम किया जा रहा है। इसके अतिरिक्त आसपास
के क्षेत्रवासियों द्वारा,
बड़ी संख्या में युवाओं द्वारा इन गौरवशाली प्रतीकों को मौजमस्ती
का अड्डा बना लिया गया है। इनके आसपास बड़ी संख्या में सिगरेट, गुटखा, तम्बाकू, शराब आदि सेवन करने के अवशेष देखने को मिलते हैं। देखा जाये
तो सरकारी स्तर पर इन ऐतिहासिक स्थलों की देखरेख करने की, अराजक तत्वों से इनको बचाये रखने की, इनके जीर्णोद्धार आदि की कोई समुचित व्यवस्था नहीं की गई है।
इसी कारण से इन ऐतिहासिक स्मारकों पर, धुबेला ताल पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं।
यह अपने
आपमें शर्म का विषय है कि जहाँ एक व्यक्ति ने अपना सर्वस्य बुन्देलखण्ड की आन-बान-शान
के लिए न्यौछावर कर दिया वहीं स्वयं बुन्देलखण्डवासी ही उसके प्रतीकों की, उसकी धरोहर की उपेक्षा करने में लगे हुए हैं।