Monday, April 9, 2018

इतिहास की तंग गलियों में जनपद जालौन - 16

देवेन्द्र सिंह जी - लेखक 

अकबर के बाद जब हम अपने जिले के इतिहास पर नजर डालते हैं तो पाते है कि एक नया शासक वर्ग यहाँ पर बड़े शक्तिशाली रूप में उभरा और बहुत जल्द ही प्रभावशाली भूमिका में आ गया। जी हाँ, मैं बुंदेलों की बात कर रहा हूँ। भारतवर्ष अभी भी मुगलों के आधीन ही था किन्तु बुंदेलखंड में जिसमें जालौन भी शामिल है, उनकी सत्ता से पकड़ ढीली होने लगी थी। बुंदेले काफी हद तक स्वच्छन्द और स्वतंत्र आचरण करने लगे थे। जहाँगीरनामा जिसका अनुवाद ब्रजरत्न दास ने किया है के अनुसार कालपी की जागीर तो अब्दुल्ला खां के पास ही रही जिसने मधुकरशाह बुंदेला के पुत्र रामचन्द्र बुंदेला को परास्त करके तीन हजारी का मनसब जहाँगीर से प्राप्त किया। लेकिन एक बड़ा बदलाव जो जिला जालौन में देखने को मिला वह वह कोंच में था। जहाँगीर ने कोंच की जागीर वीर सिंह बुंदेला को दे दी, जिसने जहाँगीर के कहने से अबुलफजल की हत्या करवा दी थी। इस समय से हम कह सकते हैं कि जिले के कोंच इलाके में मुगलों का प्रभाव घटने लगा था बुंदेले प्रभावशाली होते चले गए, यद्यपि वे राजस्व मुगलों को देते रहे।

शाहजहाँ ने जब पिता जहाँगीर के खिलाफ विद्रोह किया तब कालपी के अब्दुल्ला खां शाहजहाँ के साथ हो गए इस कारण शाहजहाँ जब बादशाह हुआ तब उसने अब्दुल्ला खां को ही कालपी का हाकिम बना रहने दिया। लेकिन नवाब शमशुददौला शाहनवाज़ खां और उनके पुत्र अब्दुल हई की मंसिर-उल-उमरा जिसका अनुवाद एच वेवरिच (प्रथम भाग) ने किया से पता चलता है शाहजहाँ ने अपने शासनकाल में ही बाद में बहादुर खां रूहेला को चार हज़ार का मनसब 20000 घोड़े रखने के साथ कालपी की जागीर भी दी। शाहजहाँ के समय में कोंच की जागीर वीर सिंह बुंदेला के पुत्र जुझार सिंह के पास थी परन्तु उन्होंने विद्रोह कर दिया इस कारण उनको जागीर से हाथ धोना पड़ा। लेकिन बुंदेलखंड में चम्पत राय बुंदेला की शक्ति बढ़ रही थी। अब आवश्यक है कि यहाँ पर बुंदेलों के बारे में भी कुछ जान लिया जाय। लेकिन बहुत ही संक्षेप में क्योंकि मै बुंदेलों का इतिहास नहीं लिख रहा हूँ, इसलिए उनका जितना संबंध इस जिले से है उस पर ही कुछ साझा करूँगा।

चंदेलों की शक्ति जब यहाँ पर कम होना शुरू हुई लगभग उसी समय से जालौन के इलाके में बुंदेलों की शक्ति के बढने के प्रमाण मिलते है। बुंदेले कौन थे, ये बुंदेला क्यों कहलाए, इस बारे में विद्वानों की विभिन्न राय है। गोरेलाल तिवारी अपनी पुस्तक बुंदेलखंड के इतिहास में लिखते हैं कि इतना तो तय है कि ये क्षत्रिय थे और गहरवार थे और काशी से इस इलाके में आकर बसे। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि विन्ध्याचल देवी के उपासक होने के कारण विंध्येला कहलाए और यही शब्द बिगड़ कर बुंदेला हो गया। ब्रजरत्न दास ने चंदेलों का नागरी प्रचारणी सभा पत्रिका भाग तीन में लिखा कि विन्ध्याचल देवी को प्रसन्न करने के लिए अपने रक्त की बूंदों से देवी की आराधना की और वरदान प्राप्त किया इसी कारण बुंदेला कहलाए। पी०जे० ह्वाइट ने अपनी सेटेलमेंट रिपोर्ट में लिखा- Raja Panchm their ancestor determined to sacrifice his life in honour of goddess binda(Vindhya) Basin Bhawani, but she compassionately interposed just as he had begun to inflict a wound on himself. The drop of blood (बूंद ) which fell from the wound on earth became a Kunwar or Prince, and hence his descendants are called Bundelas.

जनपद में बुंदेलों का अधिकार वीरभद्र बुंदेला के समय में हुआ, जो पंचम बुंदेला का उत्तराधिकारी था। श्रीयुत विश्व ने बुंदेलखंड केशरी क्षत्रसाल पुस्तक में लिखा कि वीरभद्र ने कोंच से दस मील दूर पश्चिम में मऊ नामक स्थान पर अपनी राजधानी बना कर मऊ-मिहोनी राज्य को स्थापित किया। उनके अनुसार वीरभद्र ने अफगान सरदार तातार खां को जगम्मनपुर के पास हरा कर कालपी के आसपास तक अधिकार कर लिया था। वर्ष 1225 में अर्जुन पाल बुंदेला मऊ-मिहोनी के राजा हुए जिनकी तीसरी रानी से वीर पाल और देव पाल नाम के दो पुत्र हुए थे। वीर पाल के वंशज कोंच के पास व्योना, देवगांव आदि जगह पर रहने लगे।

चम्पत राय जिला जालौन में तो नहीं मगर बुदेलखंड के दूसरे भागों में भारी लूटपाट कर रहे थे। शाहजहाँ का जमाना था। उसने कालपी के अब्दुल्ला खां को चम्पत राय के दमन करने का कार्य सौपा मगर अब्दुल्ला खां को सफलता नहीं मिली। शाहजहाँ के समय में दारा शिकोह का बड़ा दबदबा था। उसने जब देखा कि मुगल सेना चम्पत राय को काबू नहीं कर पा रही है तब उसने चम्पत राय की तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ाया। पता नहीं इसमें दारा शिकोह की कूटनीतिक राजनितिक चाल थी कि चम्पत राय को बुंदेलखंड दूर भेज दिया जाय या वह चम्पत राय की वीरता से प्रभावित था, वह कंधार के घेरे में चम्पत राय को अपने साथ ले गया। कंधार के युद्ध में चम्पत राय ने बड़ी वीरता दिखलाई। दारा, चम्पत राय के साथ जब कंधार से वापस लौटा तब उसने दरबार में चम्पत राय की वीरता का शाहजहाँ से बड़ा बखान किया। डब्लू०आर० पोग्सन, हिस्ट्री आफ बुन्देलाज (1974 एडिशन ) के पेज न० 27 में लिखता है कि दारा शिकोह की संस्तुति पर शाहजहाँ ने कोंच और कनार की तीन लाख की जागीर चम्पत राय को प्रदान कर दी।

इतिहास की कितनी गलियों में घूमना पड़ा, तब मैं चम्पत राय को जिला जालौन में ला पाया और कोंच से जोड़ पाया। लेकिन अभी तो और तमाशा होना बाकी था देखिए। ओरछा नरेश पहाड़ सिंह बुंदेला को चम्पत राय की यह तरक्की सहन नहीं हुई। उन्होंने दारा शिकोह से कहा कि कोंच और कनार की जागीर हमे दें और हम उनको नौ लाख रुपए देंगे। पता नहीं दारा किस कारण लालच में पड कर चम्पत राय की सेवाओं को भुला बैठा और कोंच और कनार की जागीर पहाड़ सिंह को दे दी। आगे दारा को इसका भारी मूल्य चुकाना पड़ा। चम्पत राय दारा से बहुत नाराज हुआ और जब दिल्ली की गद्दीदारी की लड़ाई शुरू हुई चम्पत राय ने औरंगजेब का साथ दिया। इसका नतीजा यह हुआ कि औरंगजेब जब दिल्ली की गद्दी पर आशीन हुआ उसने कोंच कनार की जागीर फिर चम्पत राय को दे दी। बाद में औरंगजेब, चम्पत राय से विमुख हो गया और चम्पत राय को अंत तक मुगल सेना से जूझना पड़ा। अभी तक जिला जालौन में बुंदेलों का प्रभाव कोंच और कनार के इलाके में ही कभी-कभी रहा परन्तु चम्पत राय के पुत्र छत्रसाल के रूप में बुंदेलों को एक नायक मिल गया, जिसके समय में इस जनपद में मुगलों की सत्ता नाम मात्र की ही रह गई थी। वस्तुतः पूरा जालौन ही छत्रसाल के आधीन आ गया था। मगर कैसे? तो आइये एक बार फिर से इतिहास की तंग गलियों में घुसें और देखें कि कहाँ पहुचते हैं और क्या मिलता है।

औरंगजेब का अधिकांश समय दक्षिण के अभियानों में व्यतीत हो रहा था। कालपी की सेना भी इस मुहिम में दक्षिण गई हुई थी। छत्रसाल ने इसका फायदा उठाया और कालपी पर चढ़ दौड़े। इस समय कालपी के किले की रक्षा की जिम्मेदारी दुर्जन सिंह की थी। वह छत्रसाल का भला क्या मुकाबला करता। बाँदा के प्रसिद्ध इतिहासकार राधाकृष्ण बुन्देली और सत्य भामा बुन्देली का कथन है कि छत्रसाल ने मुगल खजाना लूट कर अपने चेले उत्तम सिंह धंधेरे को कालपी में नियुक्त कर दिया। औरंगजेब को जब कालपी पर छत्रसाल के अधिकार करने की खबर मिली तो वह बहुत क्रोधित हुआ और मुगल सरदार अनवर खां को कालपी पर अधिकार करने के लिए भेजा। मजा तो तब आया जब छत्रसाल ने अनवर खां को हराया ही नही बल्कि कैद भी कर लिया। अनवर खां की बड़ी किरकिरी हुई। बड़ी मुश्किलों से उसने एक लाख रुपए का इंतजाम किया और छत्रसाल को देकर उनकी कैद से मुक्ति पाई। अब जिले के कोंच, कनार, उरई, कालपी भदेख आदि इलाके छत्रसाल के अधिकार में थे।

छत्रसाल अपने राज को बढाने में लगे रहे। इसी कार्य में जब वह देवगढ में युद्धरत थे कालपी के जागीरदार ने विद्रोह कर दिया। इस विद्रोह को दबाने के लिए एक बार बुन्देली सेना फिर कालपी में आई। अबकी छत्रसाल ने कालपी को तो जीता ही जिले के कोटरा पर भी चढ़ाई कर दी। कोटरा की विजय के बारे में झाँसी के प्रसिद्ध इतिहासकार स्व० डा० भगवानदास गुप्ता ने अपने शोध ग्रन्थ बुंदेलखंड केशरी महाराजा छत्रसाल बुन्देला तथा पोग्सन लिखता है कि कोटरा के सैयद लतीफ़ खां ने एक लाख रुपए नजराना देकर छत्रसाल की आधीनता स्वीकार कर ली। झाँसी गजेटियर में ब्रोकमेन ने भी लिखा की इस समय संपूर्ण जालौन पर छत्रसाल का प्रभुत्व स्थापित हो गया। इस जिले में छत्रसाल ने कैसे राज किया और आगे क्या हुआ इस सबके बारे में बाद में। आज इतना ही। रोज की तरह आपकी प्रतिक्रियाओं का इंतजार रहेगा। धन्यवाद नमस्कार।  


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© देवेन्द्र सिंह  (लेखक)

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