Saturday, July 8, 2017

बाँदा नवाब अलीबहादुर और 1857 की क्रांति

लेखक - देवेन्द्र सिंह 
बाँदा में क्रांति होने पर नवाब अलीबहादुर का शासन तो स्थापित हो गया मगर क्रांति के लिए धन की आपूर्ति कैसे हो यह एक गंभीर मुद्दा था। इसके साथ ही अजयगढ़ राज्य जो अंग्रेजों का सहायक था की तरफ से भी मुसीबतें खड़ी की जा रहीं थी। इन दोनों से अलीबहादुर कैसे निबटे आज उसी पर कुछ चर्चा, लेकिन पहले धन की आपूर्ति के बारे में।

सबसे पहले नवाब ने अपने कुछ सैनिक मौदहा भेज कर वहाँ की तहसील को लुटवा लिया। हमीरपुर से वैसे भी सब अंग्रेज अधिकारी भाग गए थे, अतः मौदहा के तहसीलदार ख्वाजाबक्स ने भी क्रांतिकारियों का विरोध करना ठीक नही समझा बल्कि वह खुद उनके साथ मिल गया। मौदहा की तहसील से पन्द्रह हजार रुपए ही मिले इतने से तो कुछ होना हवाना नहीं था। विद्रोही सैनिकों की मांग थी कि नवाब हर सैनिक को १६ रुपए महीने और हर सवार सैनिक को २५ रुपए महीने के हिसाब से चार दिन के अन्दर वेतन दें। नवाब को हथियार और गोलाबारूद भी खरीदना था। अब वह क्या करे, इसी उधेड़बुन में वह था तभी उसके करिन्दा खुमान ने उसको सलाह दी की तिरौहाँ(कर्वी) के मराठा जागीरदार नारायणराव और माधवराव से आर्थिक मदद लेने का प्रयास किया जाय। अलीबहादुर को भी आशा की किरण दिखलाई पड़ी अतः उसने खुमान को ही इस काम के लिए तिरौहाँ भेजा। तिरौहाँ वालों को जब १५जून,१८५७ को बाँदा में कर्वी के ज्वाइंट मजिस्ट्रेट कोकरेल के मारे जाने की सुचना मिला थी तभी से वे भी कर्वी के क्षेत्र में अपना अधिकार करने को लालायित थे। उन्होंने नवाब को आर्थिक मदद देने की इच्छा नवाब के करिन्दा खुमान से जाहिर की। खुमान से सूचना मिलते ही नवाब नारायणराव और माधवराव से मिलने के लिए १५ नवम्बर को तिरौहाँ के लिए चला। 

अलीबहादुर को जिले में एक मजबूत साथी की जरूरत थी जो उसकी हर प्रकार से मदद कर सकता हो। वह जानता था कि नारायणराव और माधवराव उसके साथ तभी शामिल होंगे जब उनको विश्वास होगा कि मैंने अंग्रेजों को जिले से भगा दिया है और वे उस पर विश्वास कर सकते हैं। अतः उसने अपना रुतबा दिखाने के लिए अपने साथ दो हजार सैनिक लिए। पांचवी इररेगुलर पलटन के दस्ते उसके बाडीगार्ड के रूप में उसके साथ चल रहे थे। तिरौहाँ में नवाब का भव्य स्वागत हुआ। तिरौहाँ के जागीरदार का मुख्य सलाहकार राधा गोविन्द बहुत चालक और होशियार व्यक्ति था। उसने रुपए देने के साथ साथ कुछ शर्तें नवाब के सामने रखीं। शर्त यह थी कि पहले इलाके का निर्धारण हो जाय कि कौन से इलाके किसके पास रहेंगे जहाँ से वे रेवन्यू की उगाही करेंगे। इस शर्त को मानने के अलावा नवाब के पास कोई अन्य चारा ही नही था। मानना मजबूरी थी अतः तय हुआ कि परगना छीबू, दर्सेंडा, बदौसा तथा बबेरू का आधा इलाका नारायणराव और माधवराव के अधिकार में रहेगा तथा परगना पेलानी, सिमौनी, बाँदा, और आधा बबेरू नवाब के पास रहेंगे। इसके बाद नवाब दो लाख की रकम लेकर बाँदा लौटे। सैनिकों की तनखाह बाटने के बाद धन की कमी फिर भी रही।

सैनिकों ने एक दूसरा रास्ता धन प्राप्त करने का निकला। उन्होंने बाँदा के महाजनों से संपति गिरवी रख कर रुपया देने को कहा। इस पर महाजन तैयार हो गये। सैनिकों ने नवाब से गहने व जवाहरात आदि लिए और महाजनों के पास रख दिए, लेकिन एक गडबडी हो गई। सैनिकों ने देखा कि बाँदा के महाजनों के पास बहुत रुपया है तो उन्होंने रुपया तो लिया ही रेहन वाले जवाहरात आदि भी नहीं दिए।
नवाब ने चरखारी के राजा रतनसिंह से भी आर्थिक मदद का अनुरोध किया मगर रतन सिंह ने साफ मना कर दिया क्योंकि वह तो अंग्रेजों का सहायक था नवाब के कर्मचारियों ने हर व्यापरी से चार सौ से पांच सौ रुपए वसूल किए जिससे सैनिकों का वेतन दिया जा सके। नवाब के कर्मचारी तो बाँदा के हर आदमी की माली हालत को जानते थे ही २नवम्बर को मीरन साहब और मिर्जा विलायत हुसेन ने शहर के व्यापारी रतीराम की मकान की नींव को खुदवा डाला। इस खुदाई से उन्हें दो हीरे, सोना, चाँदी, और लगभग ७५००० रुपये नगद मिले। इसमें से ३५००० रुपए रसद आदि खरीदने में ही समाप्त हो गए।

अंग्रेजों के समय के बहुत से नौकर जैसे फरहतअली तहसीलदार बाँदा, चिरंजीलाल तहसीलदार स्योढ़ा, बाँदा के कोतवाल फजल मोहम्मद आदि सब ने नवाब की सेवा में आना स्वीकार कर लिया था इनको नवाब से १०० रु० हर महीने वेतन मिलता था। इन सबको जिले के एक एक आदमी की हैसियत मालुम थी। इनके बतलाने पर नवाब ने शिवचरन का हाथी अपने यहाँ मंगवा लिया(कन्सल्टेशन न०२०५ दिनांक, २९-१-१८५८ दुर्गा प्रसाद का बयान, राष्ट्रीय अभिलेखागार, नई दिल्ली) । जमुना प्रसाद की दस हजार रुपए मूल्य की संपति भी नवाब ने कब्जे में ले ली। इतना ही नही नवाब ने बाँदा के मुन्स्फी के वकील बाबु बिहारीलाल को धन न देने कारण कैद में डलवा दिया। कुछ दिनों बाद दो हजार रुपए दे कर वे मुक्त हुए। इस घटना से वे इतने घबरा गए कि बाँदा ही छोड़ कर चले गए। इसके बाद भी धन की कमी बनी ही रहती थी। 

धन प्राप्त करने के लिए नवाब को हर हथकंडे अपनाने पड़ रहे थे। बाँदा के कोतवाल का भतीजा नवाब की तथा क्रांतिकारियों की गतिविधियों की सुचना अंग्रेज अधिकारीयों को पहुँचा देता था। नवाब ने पता चलने पर उसको पकडवा लिया और भारी दंड वसूल किया। नवाब ने एक और तरीका धन प्राप्त करने का निकला। अंग्रेजों के समय के कीरत पुरवार, काशी, नन्हे, और मदन दलाल आदि कर्मचारियों ने नवाब की नौकरी स्वीकार नहीं की थी, नवाब उनसे बहुत नाराज था अतः बाँदा में उनके घर जला दिए गए और उनकी करीब साढ़े चार लाख रुपए की संपति जब्त कर ली। नवाब ने कभी बाँदा के कश्मीरी सेठ जमुना दस के पास चाँदी का हाथी का हौदा और चाँदी की एक घडी रेहन रख कर रुपया लिया था उसको जमुनादास से जबरजस्ती वापस ले लिया। आर्थिक तंगी अभी भी थी अतः नवाब ने एक बार फिर अपने जवाहरात गिरवी रख कर बीस हजार रुपए और एक बार चालीस हजार रुपए प्राप्त किए और क्रांति को जारी रखा। 

इस प्रकार हम देखते हैं कि क्रांति को जारी रखने के लिए नवाब के पास धन की बहुत कमी थी उसने इसके लिए हर प्रकार के हथकंडे अपनाएं। तो क्या इन कार्यों के लिए नवाब को दोष दिया जा सकता है? मेरा मानना है कि यह सब उसको मजबूरी में करना पड़ा था। उसने इस धन में से एक भी पैसा अपने ऐशोआराम के लिए खर्च नहीं किया था। बल्कि जब भी आवश्यकता पड़ी उसने अपने निजी जेवरात को रेहन रखने में जरा भी सोच विचार नही किया और गिरवी रखा।


यह मेरी अपनी सोच है। आप भी सोचिए। जरूरी नहीं कि मेरी और आपकी सोच एक समान ही हो। 

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© देवेन्द्र सिंह  (लेखक)

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