Tuesday, April 10, 2018

इतिहास की तंग गलियों में जनपद जालौन - 18

देवेन्द्र सिंह जी - लेखक 

बाजीराव ने जो दल बुंदेलखंड में छत्रसाल के पुत्रों से अपना भाग लेने के लिए भेजा था उस दल में गोविन्द पन्त बल्लाल खेर भी थे और उन्हींने इस जिले में मराठा साम्राज्य खड़ा किया। उन्हीं के वंशज जालौन के राजा भी कहलाए। आगे बढ़ने से पहले गोविन्द पन्त के प्रारंभिक जीवन के बारे में जान लें।

गोविन्द पन्त बल्लाल खेर का जन्म महाराष्ट्र के बारमेड नामक स्थान में हुआ था। इनके पिता का नाम नरसिंह खेर था। गोविन्द पन्त का नाम पहले लक्ष्मण पन्त था। इनको पिता के मित्र बालाजी पन्त ने गोद लिया था। गोविन्द पन्त के पिता जिन्होंने इनको गोद लिया था के मरने पर ये उनके स्थान पर नेवारे के कुलकर्णी बने परन्तु यह कार्य इनको रास नहीं आया। एडवंचर प्रिय गोविन्द घर से भाग कर सतारा पहुंचे और पेशवा के यहाँ नौकर हो गए। पेशवा बाजीराव के साथ रह कर जल्द ही उनके कृपापात्र भी बन गए। बाजीराव के कृपापात्र बनने के विषय में बतलाया जाता है एक बार वे बाजीराव के साथ एक यात्रा में थे। बाजीराव थे कि रुकने का नाम ही नहीं ले रहे थे। गोविन्द पन्त भूख से परेशान हो रहे थे। एक स्थान पर बाजीराव थोड़े से समय के लिए रुके। इतना समय नहीं था कि गोविन्द पन्त नहा-धो कर भोजन बनाते। उन्होंने एक नाले पर एक चिता जलती देखी उन्होंने दस मिनट के अन्दर ही चिता की आग पर ही रोटियां सेंक कर खा ली। बाजीराव दूर से ही गोविन्द पन्त के क्रियाकलाप को देख रहे थे। वे गोविन्द पन्त की निर्भीकता से बहुत प्रभावित हुए। 1905 के सागर जिले के गजेटियर में उल्लेख है कि बाजीराव ने गोविन्द पन्त की निर्भीकता से प्रभावित हो कर ही उनको बुंदेलखंड में भेजा था। बाजीराव जब छत्रसाल की मदद में बुंदेलखंड में आए थे तब गोविन्द पन्त भी उनके साथ यहाँ आए थे। इसी कारण वह चीमा जी के साथ जो प्रतिनिधि मंडल हिरदयशाह और जगतराज से पेशवा का भाग लेने आया था उसमे बाजीराव ने गोविंदराव पन्त को भी भेजा।

जल्द ही दोनों भाइयों ने पेशवा का भाग उनको दे दिया। आर०के०लघाटे, गोविन्द्पन्त बुन्देल्यांची कैफियात में लिखते हैं कि कुछ ही समय में गोविन्द पन्त ने छत्रसाल के पुत्रों से चुर्खी, रायपुर, कनार, जालौन, कोंच, मोहम्दाबाद, एट, केलिया, महोबा, हमीरपुर, तथा सागर के इलाके प्राप्त करके सागर को अपना मुख्यालय बनाया। बाजीराव की मृत्यु के बाद उनके पुत्र पेशवा बालाजी ने गोविन्द पन्त को बुंदेलखंड में छत्रसाल के पुत्रों से प्राप्त इलाकों से राजस्व वसूलने की सनद प्रदान की और उनके बड़े पुत्र बालाजी गोविन्द को उनका दीवान नियुक्त कर दिया। गोविन्द पन्त ने बड़े पुत्र बालाजी को सागर का प्रबंध सौपा और छोटे पुत्र गंगाधर राव के साथ कालपी आए तथा कालपी, उरई, जालौन आदि का इलाका उनको देकर इधर का कार्य भार सौंपा। इन्ही गंगाधर राव के पुत्र और वंशज ही बाद में जालौन के राजा कहलाए। गोविन्द पन्त ने अपने एक संबंधी को गुरसराय का इलाका दिया जो बाद में गुरसराय के राजा के नाम से जाने गए। झाँसी के आत्माराम गोविन्द खेर जो यू०पी० विधान सभा के सभापति भी रहे थे इसी वंश के थे। कालपी में गंगाधर राव को कालपी का किला मिला जहाँ उन्होंने अपना घर और मुख्यालय बनाया।

कालपी का किला कब बना, किसने बनवाया इस बारे कई बातें कही जाती हैं। दुर्ग कला का उल्लेख वेदों और पुरानों में भी है। ऋग्वेद में एक ऐसी जाति का उल्लेख मिलता है जो किलेबंदी में रहती थी तथा चुर के नाम से जनि जाति थी। ऐत्रय ब्राह्मण में भी ऐसे तीन किलों का उल्लेख किया गया है जिसमे छिप कर ब्राह्मण अपने यज्ञ किया करते थे। चार प्रकार के किलों का वर्णन प्रमुख रूप से मिलता है- 1-पर्वत दुर्ग, 2-जल दुर्ग, 3- महि दुर्ग, 4-वन दुर्ग। शिवतत्व रत्नाकर में नौ प्रकार के किलों का उल्लेख है इसमें सबसे अच्छे पर्वत व जल दुर्ग माने गए हैं।

कौटिल्य ने भी युद्ध और किले के बारे में लिखा है। वह लिखता है कि किले की दिवार के बनाने में इस बात का ध्यान रखा जाना चाहिए कि किले के भित्ति के मध्य में कोई किले के समीप न आ सके।
यमुना नदी के दक्षिणी किनारेपर 26.8 उत्तरी एवं 79.45पूर्वी अक्षांश पर स्थित कालपी नगर की उत्तरी सीमा पर यह किला स्थित है। इतिहासकार फरिस्ता के अनुसार कालपी की स्थापना सन 400 ई० के आसपास किसी बासुदेव ने की थी। अधिकांश का कहना है कि यह किला चंदेलकालीन है और उनके द्वारा निर्मित करे गए आठ प्रसिद्ध किलों में से एक है। उस समय की राजनैतिक व्यवस्था के अंतर्गत यमुना, बेतवा, तथा चंबल के भू भाग पर अधिकार करने और रखने के लिए कालपी का मजबूत होना आवश्यक था इसलिए चंदेलों ने कालपी में एक मजबूत दुर्ग का निर्माण करवाया था। डा०अयोध्या प्रसाद पाण्डेय के अनुसार वीरगढ़, अजयगढ़, मनियागढ़, मड़फा, कालपी, गढ़ा, कालिंजर, महोबा, में चंदेलों के दुर्ग थे। श्री कृष्ण दत्त बाजपेई के अनुसार लगभग दशवीं शताब्दी के मध्य में कालपी पर चंदेलों का अधिकार हुआ और वहाँ पर एक दुर्ग का निर्माण हुआ। मदन वर्मन के समय में कालपी की बड़ी उन्नति हुई। चंदेलों के बाद जितने भी शासक हुए सबने इस किले के महत्व को समझा और अपने अधिकार में किये रहे तथा अपने लिए कोई नया निर्माण नही करवाया। गोविद पन्त और गंगाधर पन्त को इससे अच्छा बना बनाया स्थान कालपी में और कहाँ मिलता अतः उन्होंने किले को ही अपना मुख्यालय बनाया। कालपी का किला अब लगभग खंडहर के समान है। 

डा० अयोध्या प्रसाद पांडे की पुस्तक चंदेलकालीन बुन्देलखण्ड का इतिहास के अनुसार यह यमुना के किनारे 120 फुट ऊंची सीधी कगार पर स्थित है। इस किले की बुनियाद तीन गज अर्थात 9 फुट चौड़ी है। किले का जो हिस्सा बचा है वह 125 फुट लंबा और 40 फुट चौड़ा है इस भग्नावेश में पूर्व की ओर एक द्वार व दक्षिण की ओर तीन द्वार हैं जो ठीक एक दुसरे के सामने हैं। पश्चिम की ओर कोई द्वार नही है। मध्य में ऊपर एक गोल गुम्बद है जिसके ऊपर केंद्र विन्दु के चारो ओर गोल घेरे में विकसित पदम् अंकित है। उत्तरी एवं दक्षिणी भीती पर तीनो दरवाजों के ऊपर द्वितीय तल पर खुली स्वक्ष हवा हेतु महराबदार खिड़कियाँ बनी हुई हैं। यह बचा हुआ भाग शतरंज की गोत की भांति है और इसकी छत चौरस है। इस के मध्य चार स्तंभ भी नहीं हैं। इस प्रकार जो भाग बचा वह विशाल गुम्बज मुख्य भवन की छत से लगभग 60 फिट ऊंचा है इसके चारो कोनो पर चार छोटे बुर्ज हैं। बुर्ज छत से लगभग 40 फिट ऊंचा है। इस भग्नावेश को अन्दर से देखने से पता चलता है कि यह भवन अन्दर से 107 फुट लंबा व 22 फ़ुट चौड़ा है। ऊपरी छत की ऊचाई 54 फुट है। अन्दर से छत तीन गुंबदो से बनी है। मध्य गुंबद ऊचा एवं उसके पूर्वी और पश्चिम गुम्बद अपेक्षाकृत कम ऊंचे हैं। किले से यमुना तट जाने के लिए मराठा गवर्नर गोविन्द पन्त बल्लाल खेर ने अपनी पत्नी के लिए पक्की सीढियाँ बनवा कर एक घाट बनवाया। यह घाट बाई घाट के नाम से जाना जाता है इस का कारण यह है कि गोविन्द पन्त की पत्नी मराठा इतिहास में बाई साहब के नाम से जाना जाता हैं।

कालपी के किले का एक दुर्लभ चित्र जो 1859 में एक पर्यटक द्वारा लिया गया था
 आज यहीं तक, कालपी के किले ने बहुत समय ले लिया। आगे का इतिहास अगली पोस्ट में।

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© देवेन्द्र सिंह  (लेखक)

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