बुन्देली लोकगीतों की परम्परा और बन्नी गीत
भारतीय हिन्दू पद्वति में विवाह संस्कार अपनी पावनता के कारण महत्ता प्राप्त
किये है। विवाह की स्वीकार्यता और लोकमानस का हर्ष, उल्लास में
चहकना खुशी का और बढ़ाता है। संस्कारों के अवसर पर खुशी के प्रदर्शन हेतु हाथ स्वतः
ही किसी ध्वनि का प्रस्फोट करने लगते हैं; पैर स्वतः ही थिरकना
शुरू कर देते हैं और मुख से स्वाभाविक रूप से गीतों की उत्पत्ति होने लगती है। स्वाभाविक
रूप से प्रकट यही गीत जनमानस के मध्य लोकगीतों के रूप में प्रचलित रहते हैं। लोकगीतों
में अद्भुत प्रकार की जीवन्तता होती है। जीवन की रागात्मक प्रवृत्ति का सांगोपांग चित्रण
लोकगीतों में होता है।
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लोकगीत किसी एक व्यक्ति की रचना नहीं होते हैं, ये पीढ़ी
दर पीढ़ी स्वतः ही जनमानस के मध्य अपनी उपस्थिति बनाये रखते हैं। ‘लोक’की पावनता को अक्षुण्य रूप से ये गीत अपने में समाहित कर जीवन्त रखते हैं।
वर्तमान में समाज में ‘लोक’को अंग्रेजी के ‘फोक’का पर्याय स्वीकार
कर इसका गलत अर्थ निकाला जाता है, जबकि सत्यता यह नहीं है। ‘लोक’का ग्रामीण स्वरूप इसी विभ्रम के कारण उत्पन्न हुआ है। ‘लोक’की पावनता को त्रिलोक-पृथ्वी लोक, आकाश लोक, पाताल लोक-के माध्यम से आसानी से समझा जा सकता है। इसी पावनता के कारण लोकगीतों
में सत्यं, शिवं, सुन्दरं का भाव समाहित
माना जाता है।
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बुन्देलखण्ड क्षेत्र सदैव से संस्कृति-समृद्ध रहा है। शौर्य, रक्षा, क्षमा, दान, वीरता, उत्साह जैसे आन्तरिक गुणों के अतिरिक्त यहां पर्वों,
त्यौहारों, व्रतों, मेलों,
उत्सवों आदि का आयोजन समय-समय पर होता रहता है। इसी कारण से इस क्षेत्र
के जनमानस में हरपल उत्साह का संचार होता रहता है और पर्वों, त्यौहारों, समारोहों के अतिरिक्त श्रम के समय भी मजदूरों,
किसानों आदि के द्वारा पूर्ण उत्साह के साथ लोकगीतों का गायन होता रहता
है। मंगलाचार, कृषिकार्यों, तीर्थयात्राओं
आदि पर गाये जाने वाले लोकगीतों का अपना अलग स्वरूप है। इसी तरह के लोकगीतों के विविध
रूप विवाह अवसर पर गाये जाने वाले गीतों में भी दिखाई देते हैं। विवाह संस्कार की वैविध्य
रस्मों पर घर-परिवार की स्त्रियों द्वारा लोकगीत गाये जाने का चलन आज भी है। वैवाहिकी
सम्बन्धी छोटे-बड़े सभी प्रकार के आयोजनों में महिलाओं द्वारा उत्साहजनक उपस्थिति लोकगीतों
के माध्यम से दिखती रहती है।
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विवाह संस्कार की विविध
रस्मों का प्रारम्भ वर-वधू पक्ष के आपसी समन्वय के बाद से हो जाता है। तदुपरान्त सगाई
की रस्म से लेकर वधू के गृह-आगमन तक और उसके पश्चात तक भी लोकगीतों का गायन होता रहता
है। लगुन, माटी-मिथौरी, तिलकोत्सव,
मण्डप, तेल-चढ़ावा, चीकट उतराई,
भात पहनाना, द्वारचार, भांवरें,
चढ़ावा, कुंवर कलेवा, मुंह
दिखाई, देवपूजन, रोटी छुवाई आदि-आदि अनेक
प्रकार की रस्मों में घर-परिवार की, पास-पड़ोस की महिलायें लोकगीतों
के साथ अपनी सहभागिता करती हुई इन रस्मों का निर्वाह करती हैं। विवाह संस्कारों में
लड़के को इंगित करके गाये जाने वाले गीतों को बन्ना गीत और लड़की को इंगित करके गाये
जाने वाले गीतों को बन्नी गीत कहते हैं। बन्ना, बन्नी से तात्पर्य
यहां उस लड़के और लडकी से होता है जो विवाह-बंधनों में बंधने जा रहे होते हैं। इस कारण
से वर-कन्या के घरों में लोकगीतों के माध्यम से बन्ना-बन्नी गीत गाकर अपनी खुशी प्रकट
की जाती है।
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बुन्देलखण्ड क्षेत्र में
बन्नी गीत का आरम्भ लड़की की लगुन लिखे जाने के अवसर से होता है। इस अवसर पर दैवीय अनुष्ठान
आदि के द्वारा वैवाहिक कार्यक्रमों के शुभ मुहूर्त निर्धारित करके मंगल-पत्री को लड़के
वालों को सौंपा जाता है। कन्या-पक्ष की महिलायें इस अवसर पर बन्नी गीत गाकर शुभ कार्यक्रमों
का आरम्भ करती हैं।
‘‘जनक राजा के अंगना में खुशियां छाईं रे,
मंगल घड़ी आई रे, सियाजू के मंगल गाइये।
गिरिजा पूजन सीता गईं, रामलला के दर्शन पाये,
नैनन बसाई सांवरी मूरत, सियाजू के मंगल गाइये।
राजा राम ने तोड़ो धनुष है, राजा जनक को मान धरो है,
सिया-राम की जोड़ी सजेगी, सियाजू के मंगल गाइये।’’
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विवाह के अवसर पर वर-कन्या में सीता-राम का आरोपण करके इन मंगल लोकगीतों की
रचना महिलाओं द्वारा कर ली जाती है। इस अवसर पर सम्पन्न होने वाले अनुष्ठान में महिलायें
हर्षोल्लास से लोकगीतों का गायन करती हुई कार्यक्रमों को दिव्यता प्रदान करती हैं।
देवअनुष्ठान के साथ पुरोहित जी शुभलग्न का विचार कर रहे होते हैं और महिलायें समूहबद्ध
रूप से लोकगीतों का गायन करती हुईं वातावरण को रसमय बनाती हैं-
‘‘दशरथ सुत ने तोड़ो धनुष, मंगलाचार गवत है,
रचो रे पत्री, मंगल-पत्री, मिथिला
में रस बरसत है।
कौन मंगाय कोरे कागज, कौन भरी सियाही शीशी,
बाबुल मंगाये कोरे कागज, भैया भरी सियाही शीशी।
कोरे कागज पै शुभ मिती भेजो, मिथिला में रस बरसत है।’’
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इसी तरह से लोकगीतों में सभी रिश्तेदारों को सम्बोधित करते हुए उसका गायन होता
रहता है। विवाह के अवसर पर लगभग समस्त कार्यक्रमों का संचालन महिलाओं द्वारा ही किया
जाता है। इस विविध कार्यक्रमों में महिलाओं की सहभागिता उन कार्यक्रमों को लोकगीतों
के द्वारा उल्लासपूर्ण बना देती है। शगुन कार्यक्रम के बाद माटी-मिथौरी, देवताओं का आवहान आदि संस्कारों/रस्मों का निर्वहन किया जाता है और इन अवसरों
पर महिलाओं द्वारा देवी गीतों, धार्मिक गीतों का गायन होता रहता
है। बन्नी गीतों को अधिकांशतः ऐसे अवसरों पर गाया जाता है जिन कार्यक्रमों में लड़की
की उपस्थिति अथवा सहभागिता सीधे-सीधे जुड़ी होती है। घर की स्त्रियां, लड़की की चाची, मामी, मौसी,
बुआ, भाभी, बहिनें आदि मजाक
करती हुईं बन्नी गीतों को गाती रहती हैं और रस्मों को सम्पन्न करवाती रहती हैं।
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इन रस्मों और कार्यक्रमों के मध्य कन्या के रूप-सौन्दर्य को निखारने,
संवारने का कार्य भी चलता रहता है। हल्दी-तेल चढ़ाने की रस्म का प्रतिपादन
इसी के लिए किया गया होगा। हल्दी-तेल चढ़ाने की रस्म कहीं-कहीं मण्डपाच्छादन के पूर्व
और कहीं-कहीं मण्डप के बाद सम्पन्न होती है। पांच, सात,
नौ आदि की विषम संख्या में इस रस्म का समापन होता है। इस रस्म का निर्वाह
महिलाओं द्वारा होता है जिसमें कन्या के पैर, हाथ, कंधे, माथे आदि पर तेल-हल्दी लगाई जाती है। इस अवसर पर
भी महिलायें लोकगीतों का गायन करती हुईं हंसी-मजाक आदि के द्वारा वातावरण को तरंगित
करती जाती हैं-
‘‘आज मोरी बन्नी को तेल चढ़त है,
तेल चढ़त है, फुलेल चढ़त है। आज मोरी बन्नी....
सोने की बिलियन में तेल भराओ,
हल्दी मिला के उबटन चढ़ाओ,
बन्नी को रूप कैसो दमकत है। आज मोरी बन्नी....
तेल के संगे छुटकी पांखुरियां,
भौजी तेल चढ़ाओ बन्नी बांहुरियां,
चन्दा सौ रूप कैसो छलकत है। आज मोरी बन्नी....’’
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हल्दी-तेल चढ़ाने की रस्म का एक और गीत कुछ-कुछ इसी तरह का ही है, चूंकि लोकगीतों में रस्मों के निर्वहन का रूप छिपा होता है और इसी कारण से
अधिकांश लोकगीतों की आत्मा एक जैसी ही होती है। एक अन्य लोकगीत का उदाहरण-
‘‘आज मोरी बन्नी के तेल चढ़त है,
तेल चढ़त है, फुलेल चढ़त है। आज मोरी बन्नी....
चढ़ गयो तेल, छुटकी पांखुरियां,
कौन ल्याओ तेल, कौन पांखुरियां,
तेलिन लाई तेल, मालिन पांखुरियां। आज मोरी बन्नी....
कौन चढ़ाओ तेल, कौनो पांखुरियां,
भौजी चढ़ाईं तेल, बन्नी की बाहुंलियां। आज मोरी बन्नी....’’
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विविध कार्यक्रमों के मध्य रस्मों का निर्वहन हंसते गाते होता रहता है। घर
के आंगन में मण्डप की रस्म सम्पन्न की जाती है। इस रस्म का निर्वहन घर के पुरुषों विशेष
रूप से भाइयों द्वारा किया जाता है। मण्डपाच्छादन की इस प्रक्रिया में भूमि खोदना,
लीपना, मण्डप लगाना, कलश
रखना, जल भरना आदि क्रियाओं को सम्पन्न किया जाता है। सारी क्रियाओं
का वर्णन इस अवसर पर बन्नी गीत के माध्यम से प्रकट होता रहता है। मण्डप के अवसर पर
गाये जाने वाले बन्नी गीत की एक बानगी-
‘‘सुगर बढ़ैया, चंदन मड़वा को रुच-रुच के ल्याओ रे।
चारउ कौनन पै खम्बा लगाओ रे,
बीच में चन्दन मड़वा गड़वाओ रे।
गैया को गोबर मंगाओ, ढिंग दै आंगन लिपाओ रे।
सुगर बढ़ैया, चंदन मड़वा को रुच-रुच के ल्याओ रे।।
भैया ने रोपे चंदन मड़वा,
फूफा ने छाये जामुन पत्ता।
सोने की थारी बुआ भर ल्याई, छप्पन भोग लगाओ रे।
सुगर बढ़ैया, चंदन मड़वा को रुच-रुच के ल्याओ रे।।’’
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मण्डप के बाद भी तेल-हल्दी की रस्म होती रहती है और ऐसे अवसर पर महिलायें अपनी
कन्या की शोभा का बखान करने से पीछे नहीं रहती हैं। कार्यक्रमों, रस्मों के अतिरिक्त भी घर के अन्य दूसरे कार्यों को सम्पन्न करते समय भी लोकगीतों
के माध्यम से बन्नी के गुणगान होते रहते हैं-
‘‘बन्नी की शोभा सजीली है, बन्नी छबी नीकी लागी रे।
हल्दी उबटन से रूप संवारो,
चन्दा सा सुन्दर मुख है वारो।
चारउं दिशा जाकै रूप से दमकें, बन्नी छबी नीकी लागी रे।
माथे पै बेंदी दमदम दमकै,
कानन में कुण्डल चमचम चमकै।
मुतियन को सुन्दर हार गले में, बन्नी छबी नीकी लागी रे।’’
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इसके अतिरिक्त बन्नी की शोभा का वर्णन घर की बड़ी-बुजुर्ग महिलायें करते हुए
बन्नी गीत को कुछ इस तरह से प्रस्तुत करती हैं-
‘‘मैया की कोख से जनम लओ है,
रूप सांचे में ढार दओ है
हमाई बन्नी रुनक-झुनक करी जाये।
बाल हैं कारे, अंखियां हैं कारी,
सोने की काया पै जाउं बलिहारी,
हमाई बन्नी रुनक-झुनक करी जाये।’’
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कार्यक्रमों, रस्मों का परम्परागत रूप से निर्वहन होते-होते
पाणिग्रहण संस्कार का समय आ जाता है। कन्या को वरमाला कार्यक्रम हेतु सोलह शंृगार के
द्वारा तैयार किया जाता है। बारात वर को लेकर कन्या के द्वार पर आ जाती है। वर यहां
भगवान का रूप समझा जाता है। वर और कन्या पर राम और सीता का आरोपण कर सभी उन्हें पर्याप्त
आदर प्रदान करते हैं। द्वारचार के अवसर पर वर घोड़े पर चढ़कर आता है और कन्या पक्ष की
स्त्रियां बन्नी गीत के द्वारा अपनी भावनाओं का प्रदर्शन करती हैं-
‘‘आज बन्नी को ब्याहन राजा रामजू आये,
घोड़ी पै चढ़कै द्वारे पै आये।
बन्नी ने रूप रुच-रुच के संवारो,
माथे पै बिंदिया, गले में मुतियन हार डारो।
आज बन्नी को ब्याहन राजा रामजू आये।
हाथन में मेंहदी, आंखन में कजरा लगाओ,
नाक में नथिनी, कानन में कुण्डल सजाओ।
आज बन्नी को ब्याहन राजा रामजू आये।।’’
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इस प्रकार के गीत बन्नी का शृंगार करने के अवसर पर भी गाये जाते हैं। हंसी-खुशी
से चहकती स्त्रियां किसी भी रूप में अपनी बन्नी को कम नहीं समझती हैं। वे द्वार पर
आये वर की शोभा और बन्नी की शोभा का बखान करती हैं पर अपनी बन्नी को वर से कम नहीं
स्वीकारती हैं। इस प्रकार के हंसी-मजाक के वातावरण में ये लोकगीत माहौल को और भी खुशनुमा
बना देते हैं-
‘‘बन्ना जी आये बन्नी का ब्याहने,
सजे दोनो बराबर हैं, शान बन्नी की न्यारी है।
बन्ना के सिर पै सेहरा सोहै,
बन्नी के सिर माथे बेंदी सोहै,
चमकें दोनो बराबर हैं, शान बन्नी की न्यारी है।
सजीलो रूप बन्ना को दमकै,
सोलह शृंगार में बन्नी दमकै,
रूप दोनो सुहावन हैं, शान बन्नी की न्यारी है।’’
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इस प्रकार से बन्नी गीतों के साथ विवाह-संस्कार सम्पन्नता की ओर बढ़ते जाते
हैं। अपनी खुशियों को प्रदर्शित करती महिलायें द्वारचार के बाद भी सम्पन्न होने वाली
विविध रस्मों में लोकगीतों का गायन करती हैं किन्तु बन्नी गीतों का गायन बन्द हो जाता
है। भांवरों के समय, चढ़ावे के समय, मांग
भराई, सप्तपदी, बाती मिलाई आदि के अवसर
पर भी लोकगीतों के माध्यम से वातावरण को पावन और सरस बनाये रखा जाता है।
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देखा जाये तो लोकगीत एक प्रकार की संप्रेषणीयता का कार्य करते हैं। बन्नी गीतों
के माध्यम से भी बन्नी के मनोभावों को प्रकट किया जाता है और कई बार बुजुर्ग,
अनुभवी महिलाओं के द्वारा एक प्रकार की शिक्षा भी प्रदान की जाती है।
लोकगीतों की रोचक लयबद्धता में विवाह सम्बन्धी कार्य भी आसानी से सम्पन्न होते रहते
हैं और परिवार में भी हर्षोल्लास का वातवरण बना रहता है। लोकगीत गायन की, बन्ना/बन्नी गीत गायन की परम्परा शहरों की आपाधापी में भले ही विलुप्त हो रही
हो किन्तु ग्रामीण अंचलों में और ग्रामीण अंचलों से सम्बद्ध परिवारों में आज भी लोकगीतों
की, बन्ना/बन्नी गीतों की मधुरता कानों में रस घोलती है। समय
की इबारत पर यह अक्षरशः सत्य है कि बन्नी गीतों का, लोकगीतों
का संरक्षण, संवर्द्धन ग्रामीण महिलाओं द्वारा ही हो रहा है;
यही ग्रामीण महिलायें अपने गायन द्वारा लोकगीतों की परम्परा को,
इस समृद्ध बुन्देली विरासत को पोषित एवं संरक्षित कर रही हैं।
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