Monday, June 5, 2023

बैरागढ़ की माँ शारदा शक्ति पीठ और आल्हा की सांग

उत्तर प्रदेश के बैरागढ़ गाँव में स्थित मंदिर धार्मिकता, सिद्धस्थल होने के कारण देश भर में विख्यात है. माँ शारदा देवी का मन्दिर जालौन जिले के उरई मुख्यालय से लगभग तीस किलोमीटर दूर ग्राम बैरागढ़ में स्थित है. इस मंदिर में ज्ञान की देवी माँ शारदा की अष्टभुजी मूर्ति स्थापित है. कहते हैं कि इस शक्ति पीठ की स्थापना चन्देलकालीन राजा टोडलमल द्वारा ग्यारहवीं सदी में कराई गई थी किन्तु माँ शारदा की मूर्ति हस्तनिर्मित नहीं है. किवदंती है कि गाँव में स्थित एक कुंड से माँ शारदा स्वयं प्रकट हुई थीं, इसीलिए इस स्थान को शारदा देवी सिद्ध पीठ कहा जाता है. यह स्थल सुवेदा ऋषि की तपोस्थली रही है और उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर माँ शारदा कुंड से प्रकट हुई थीं. वह कुंड वर्तमान में इस मंदिर के पीछे बना हुआ है. इस शक्ति पीठ का दर्शन करने वाले श्रद्धालुओं के अनुसार माँ शारदा की यह मूर्ति पूरे दिन में तीन रूपों में दिखाई देती है. प्रातःकाल यह मूर्ति एक कन्या के रूप में दिखती है, दोपहर में इस मूर्ति में युवती का रूप नजर आता है और सायंकाल इसी मूर्ति में माँ का रूप दृष्टिगोचर होता है.

 

बैरागढ़ स्थित माँ शारदा शक्ति पीठ 


माँ शारदा की प्रतिमा 

सम्पूर्ण देश में बैरागढ़ का यह मंदिर अपनी धार्मिकता और सिद्धपीठ होने के कारण प्रसिद्द है तो यह अपनी ऐतिहासिकता के लिए भी विख्यात है. यह स्थल बुन्देलखण्ड के अप्रतिम वीर योद्धा आल्हा और पृथ्वीराज चौहान के युद्ध का साक्षी है. आल्हा और ऊदल दो भाई थे जो महोबा के दशरथपुरवा गाँव में जन्मे थे. दोनों भाई बचपन से ही अत्यंत वीर और पराक्रमी थे. आल्हा-ऊदल राजा परमाल के सेनापति थे. सन 1181 में उरई के राजा माहिल की कूटनीति पर राजा परमाल ने आल्हा-ऊदल को राज्य से निष्कासित कर दिया. जिसके चलते दोनों भाइयों ने कन्नौज के राजा लाखन राणा के यहाँ शरण ली.

 

पृथ्वीराज चौहान को जब इस बात की खबर लगी तो उसे लगा कि आल्हा-ऊदल से विहीन सेना को आसानी से जीता जा सकता है. बुन्देलखण्ड को जीतने के उद्देश्य से पृथ्वीराज चौहान ने महोबा पर आक्रमण कर दिया. कीरत सागर मैदान में चल रहे युद्ध रोकने के लिए पृथ्वीराज ने राजा परमाल से उनकी बेटी चंद्रावल, पारस पथरी और नौलखा हार सौंपने की शर्त रखी. यह शर्त मानना पृथ्वीराज की गुलामी स्वीकारने जैसा था. राजा परमाल की पत्नी मल्हना ने जब यह खबर आल्हा, ऊदल के पास कन्नौज पहुँचाई तो वे दोनों भाई और कन्नौज नरेश ने साधुवेश में कीरत सागर के मैदान में पहुँच कर पृथ्वीराज की सेना को पराजित कर पृथ्वीराज चौहान को जीवनदान दिया.


आल्हा और ऊदल माँ शारदा के उपासक थे. जिसमें आल्हा को माँ शारदा का वरदान था कि उन्हें युद्ध में कोई नहीं हरा पायेगा. कहा जाता है कि आल्हा-ऊदल और पृथ्वीराज चौहान के बीच 52 बार युद्ध हुआ, जिसमें हर युद्ध में पृथ्वीराज की बुरी तरह से हार हुई. बैरागढ़ का युद्ध इनके बीच का अंतिम युद्ध कहा जाता है. इस युद्ध में ऊदल को वीरगति प्राप्त हुई और आल्हा ने पृथ्वीराज चौहान को पुनः जीवनदान देते हुए वैराग्य ले लिया. इसी कारण से इस स्थान को बैरागढ़ के नाम से जाना जाता है.

 

बैरागढ़ में हुई भीषण लड़ाई में आल्हा के भाई ऊदल को पृथ्वीराज के सेनापति चामुंडराय ने धोखे से मार दिया. अपने भाई की मृत्यु का समाचार सुनकर आल्हा क्रोध से भर उठे और पृथ्वीराज की सेना पर कहर बनकर टूट पड़े. लगभग एक घंटे के भीषण युद्ध के बाद आल्हा ने पृथ्वीराज को हरा दिया. उसके बाद आल्हा ने विजय पश्चात् माँ शारदा से वरदान स्वरूप प्राप्त सांग को माँ शारदा के चरणों के पास गाड़ दिया. कहते है कि आल्हा ने उस सांग को जमीन से बाहर निकालने की चुनौती पृथ्वीराज चौहान को दी. पृथ्वीराज उस सांग को जमीन से बाहर न निकाल सके. इसके बाद आल्हा ने सांग को ऊपर से टेढ़ा करके उसे सीधा करने की चुनौती दी. इसे भी पृथ्वीराज पूरा न कर सके. पृथ्वीराज चौहान को बुरी तरह से परास्त करने के बाद भी अपने गुरु गोरखनाथ के आदेश पर आल्हा ने पृथ्वीराज को जीवनदान दे दिया. इसके बाद आल्हा ने बैराग ले लिया और माँ शारदा की भक्ति में लीन हो गए. आल्हा के द्वारा माँ शारदा के चरणों के नजदीक गाड़ी हुई सांग आज भी मन्दिर के मठ के ऊपर निकली दिखाई देती है. ये सांग 30 फिट से भी अधिक ऊँची है और लगभग इतनी ही जमीन में गड़ी है.

 

मंदिर के मठ पर गड़ी आल्हा की सांग 

मन्दिर में आल्हा द्वारा गाड़ी गई सांग इसकी प्राचीनता को दर्शाता है. आज भी बैरागढ़ में माँ शारदा के मंदिर में मान्यता है कि हर रात दोनों भाई आल्हा और ऊदल आराधना करते हैं. कहा जाता है कि रात को सफाई के बाद मंदिर के कपाट बंद कर दिए जाते हैं लेकिन सुबह जब कपाट खोले जाते हैं तो वहाँ पूजा करने के प्रमाण मिलते हैं. बैरागढ़ के अलावा माँ शारदा शक्ति पीठ मध्य प्रदेश के सतना के नजदीक मैहर में स्थित है.  

 


मंदिर प्रांगण में बना कुंड, जहाँ से माँ शारदा स्वयं प्रकट हुईं थीं 

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(सभी चित्र लेखक और उसके भाई डॉ. हर्षेन्द्र सिंह सेंगर द्वारा दिनांक 02-06-2023 को खींचे गए हैं.)

Saturday, September 11, 2021

सम्पादकीय लेख लिखने पर बेनीमाधव तिवारी को राष्ट्रद्रोह की सजा

देवेन्द्र सिंह जी 
बेनीमाधव तिवारी जी जालौन जिले के पहले व्यक्ति थे जिनको राष्ट्रद्रोह के जुर्म मे सजा दी गई थी। नई पीढ़ी के लोगों को जानकारी ही नहीं होगी और पुराने लोग तो भूल ही चुके होंगे कि स्वतन्त्रता आंदोलन में जिले के बेनीमाधव तिवारी जी को राष्ट्रद्रोह की सजा दी गई थी। यदि किसी को जानकारी भी होगी तो उनको शायद इसकी जानकारी न हो कि उनको यह सजा क्यों दी गई थी। 

असल में तिवारी जी को अपने अखबार देहाती में एक संपादकीय लेख लिखने के कारण यह सजा दी गई थी। तिवारी जी एक समाचार पत्र देहाती का सम्पादन-प्रकाशन करते थे। उनके समाचार पत्र के शीर्षक या मोटो से ही पता चलता है कि यह एक राष्ट्रवादी विचारधारा का पत्र था। समाचार पत्र का मोटो ये था-


मेरी गाय रहे, मेरे बैल रहें, घर-घर में भरा नित राज रहे।

मेरी टूटी मड़ैया में राज रहे, कोई गैर न दस्तांदाज रहे।।


गोपीनाथ शाहा बंगाल के क्रांतिकारी थे और युगांतर दल के सदस्य भी थे। सर चार्ल्स टेगर्ट पुलिस उपायुक्त था। वह हद दर्जे का ज़ालिम था। अत: क्रांतिकारियों ने उसको मारने का निश्चय किया और यह काम गोपीनाथ शाहा को दिया गया। गोपीनाथ की गोली से टेगर्ट तो बच गया पर अर्नेस्ट डे नाम का अधिकारी मारा गया। गोपीनाथ पकड़े गए और उनको 12 जनवरी 1924 को फाँसी पर लटका दिया गया। फाँसी के समय शाहा की उम्र केवल 24 वर्ष थी। साहा को फाँसी देने की खबर तो अखबारों में छपी पर इसके विरोध में लिखने की हिम्मत किसी अखबार ने नहीं की। इस फाँसी की गूँज उरई में बेनीमाधव तिवारी को सुनाई दी जो देहाती अखबार निकालते थे और उसके संपादक भी थे। उन्होंने एक संपादकीय अपने समाचार पत्र में लिखा। उन्होंने जो लिखा, वह मित्रों से साझा करता हूँ। इसका शीर्षक था - 

भारतीयों के खून की बूंदें भारत की आज़ादी का घोषणा पत्र लिख लिख रही हैं


जहाँ में उनका आना ही मुबारक है मुबारक है।

रहें सफ़ में शहीदों के ज़ो अपने खूं में तर होकर।।


धन्य हैं वे आदमी ज़ो आत्मसम्मान और आज़ादी के नाम पर अपने प्राणों की आहुति दे अनन्त काल के लिए अमर हो जाते हैं।


हँसते-हँसते फाँसी के फंदे में अपनी गर्दन फँसा कर फट से अपने जीवन के फूल को फेंक देना, और गनगनाती हुई गोलियों को गले लगा कर देश और कौम के लिए मर मिटना, ओह! कितनी बड़ी बात है। उनके कार्यप्रणाली से किसी-किसी का मतभेद हो सकता है, उनके विचारों से कोई भी विभिन्नता प्रकट कर सकता है, पर उनकी आजादी की लगन और उनके नि:स्वार्थ बलिदान की कौन सराहना न करेगा?


खुदीराम बोस, सत्येंद्र, कनहाई, लाल दत्त और मि. टिगर्ट के धोखे में मि. डे की हत्या करने वाला गोपीनाथ शाहा आदि एक श्रेणी के आदमी हैं, जिन्होंने देश और कौम का नाम लेकर सरकार की शूली का स्वागत किया और मारना तथा मरना ही अपना सिद्धांत रखा।


दूसरी ओर जालियाँवाला बाग के शहीद राय बरेली के किसान और जैतू के अकाली जत्थे आदि हैं जो नौकरशाही और नाभाशाही के गोलियों के शिकार हुए और जिनका देश और कौम के नाम पर शत्रु का नहीं किन्तु अपना बलिदान करना ही अटल सिद्धांत कहा जा सकता है।


इसमे संदेह नहीं कि यदि भारत आज स्वतंत्र होता तो उसमे ऐसी हत्याएँ और बलिदान कदाचित और कदापि न होते। अस्तु हमें दृढ़तापूर्वक यह कहना ही पड़ता है कि इन दोनों प्रकार की हत्याओं अथवा खून के वे ही जिम्मेदार हैं जिनके कारण सबसे प्राचीन और संसार की सभ्यता के जन्मदाता हमारे भारत पर परतंत्रता की मुहर लगी हुई है।


हम चाहते हैं कि ऐसी हत्याएँ और खून भारतवर्ष में सदा के लिए बंद हो जायें और उनके बंद करने का केवल यही जरिया है कि भारतवर्ष में स्वराज स्थापित हो जाये, परंतु ब्रिटेन के राजनीतिज्ञों को कदाचित इसी में मज़ा आता है अथवा वे भारतवर्ष की आज़ादी से ब्रिटेन की हानि समझते हैं। इसलिए वे पग-पग पर भारतवर्ष की स्वाधीनता का विरोध करते हैं और प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रीति से ऐसे अनेक हत्याकांडों का समर्थन किया करते हैं।


भारतवर्ष की आत्मा जाग उठी है, वह अपने शरीर के बंधन तोड़ने के लिए बेचैन है। अब वह तलवार और मशीनगनों के ज़ोर से अधिक दिन तक गुलाम नहीं रखा सकता। जो ज़ोर-जबरदस्ती से इन 30 करोड़ आदमियों को गुलाम रखना चाहते हैं, वे अमरीका और आयरलैंड के इतिहास से आँखें मीच लेते हैं। एक कौम दूसरी कौम की हुकूमत का जुआ सदैव अपने कंधे पर रखे रहे यह बिलकुल अस्वाभाविक है।


अस्तु, निसन्देह ब्रिटेन और ब्रिटिश साम्राज्य का हित इसी में है कि वह स्वेछा से भारत में स्वराज स्थापित कर सदा के लिए भारतीयों को अपना मित्र बना ले और नौकरशाही द्वारा होने वाले इन नित नए अत्याचारों को सदा के लिए रोक दे।


मि. टिगार्ट के प्राण लेने की फिक्र, मि. डे की हत्या, गोपीनाथ शाहा को फाँसी का हुक्म, अकाली जत्थे पर गोलियों की वर्षा और भारत मंत्री लार्ड ओलीवर की हाल की घोषणा ने भारतवर्ष में फिर नई समस्या उपस्थित कर दी है और प्रत्येक दिल में तहलका मचा दिया है।  


हम मि. टिगार्ट के प्राण लेने के पक्षपाती नहीं हैं, पर हम अवश्य उस शासन प्रणाली के प्राण लेने के पक्षपाती हैं जिसमें मि. टिगार्ट को ऐसे कृत्य करने का मौका लगता है कि जिनसे देश के नवयुवक इस हद तक उत्तेजित हो जाते हैं।


मि. डे की हत्या को जितना हम बुरा समझते हैं उतना ही बुरा हम उस हुक्म को समझते हैं जिसके कारण हमारे देश के युवक गोपीनाथ शाहा को फाँसी दी जायगी। यदि गोपीनाथ शाहा फाँसी न देकर ब्रिटेन के उन राजनीतिज्ञों की बुद्धि को फाँसी दे दी जाती तो अधिक अच्छा होता कि जिसके कारण भारतवर्ष मे मौजूदा शासन प्रणाली मौजूद है।


अकाली जत्थे पर गोली चला कर नाभाशाही और नौकरशाही के सम्मिलित कृत्यों ने देश के खून को खौला दिया है। भारत मंत्री की हाल की घोषणा ने भारतवासियों की उस आशा और विश्वास को चौपट कर दिया है कि जिसे वे मजदूर सरकार पर लगाए हुए थे।


हम ब्रिटेन के राजनीतिज्ञों से पूछना चाहते हैं कि भारतवासियों के हकों को इस तरह कुचलना और देश के वक्षस्थल को उन्हीं के खून से रँगना अंत मे क्या रंग लायेगा?


पता नहीं कि हमारे इस सवाल का वे क्या उत्तर देंगे पर हम तो संसार के इतिहास को सामने रख केवल इस नतीजे पर पहुँचे हैं कि ब्रिटेन के राजनीतिज्ञ अपनी बुद्धि का यदि यों ही परिचय देते रहे और आए दिन इसी तरह भारतीयों के रक्त से भारत की जमीन रंजित होती रही तो भारत की आज़ादी की घोषणा ब्रिटेन द्वारा नहीं किन्तु भारतीयों द्वारा होगी, जिसे आज उनके खून की बूँदें इतिहास के पन्नों पर लिखने जा रही हैं।


अब देशद्रोह का मुकदमा तो चलना ही था। सन 1924 में एक भारतीय पत्र का संपादक ऐसा लिखे, यह तो अंग्रेजों की कल्पना में ही नहीं हो सकता था। उनकी नज़र में तो यह देशद्रोह था, इसलिए उन पर दफा 124-ए ताज़ीरात-हिन्द का एक मुकदमा जिला मजिस्ट्रेट श्री देसाई के न्यायालय में चलाया गया। कानूनी तौर पर तो तिवारी जी के वकील श्री शिवनाथ मिश्र थे लेकिन मुकदमे की पैरवी तथा जिरह खुद श्री तिवारी ज़ी ने ही की थी। तिवारी जी ने मिश्रा जी से कह रखा था कि वे उनकी बगल मे खड़े रहें और जब वे सलाह माँगें तो चुपके से सलाह दे दें। ऐसा हुआ भी। उनका लिखित बयान 72 पन्नों का था। खुद देसाई साहब भी बयान से प्रभावित थे किन्तु सरकार के आदेशों से मजबूर थे। उनको दो वर्षों की सज़ा सुनानी ही पड़ी।





 

Tuesday, June 26, 2018

इतिहास की तंग गलियों में जनपद जालौन - 41

देवेन्द्र सिंह जी - लेखक 
पशन्ना आदि शिवराम तातिया के इतने सैनिकों का मुकाबला नही कर सकते थे। शिवराम तातिया ने इन अंग्रेजों से कहा वे बिठूर के नाना पेशवा धुधु पन्त के प्रति वफादार है और उनको पेशवा का आदेश है कि अंग्रेजों को कैद करके कानपुर लाया जाय। ग्रिफिथ, पसन्ना, उनकी पत्नी, पांच बच्चे और दो भतीजों को दो बैलगाड़ियाँ को बैठा कर ये सैनिक 18 जुलाई की शाम को कालपी पहुचे। शिवराम तातिया बहुत चालाक था उसकी मंशा थी कि अंग्रेज सराय में रुके हुए सैनिकों द्वारा मार दिए जाएँ। इससे उस पर कोई जुम्मेदारी भी नही आती और यदि बाद में कहीं अंग्रेज फिर से क्रांति को दबाने में सफल हो जाय तो उस पर कोई जुर्म न बने। असल में केशवराव और उसके दोनों पुत्र दो नाव में एक साथ पैर रखे थे। उनका मुख्य उद्देश्य जालौन का धन वसूल करके गुरसराय भेज कर अपना खजाना भरना था इस लिए वे अपने को क्रांतिकारियों के साथ होने का दिखावा करते थे। शिवराम तातिया को जब पता चला कि सराय में इन अंग्रेजों की हत्या इस कारण नहीं हो सकी क्योंकि दुकानदारों ने विरोध किया था तो वह उनको सजा देने के लिए उरई लौटा। यहाँ केशवराव द्वारा नियुक्त थानेदार ने शिवराम तातिया को सात नामों की सूची दी, जिन्होंने आग लगाने का विरोध किया था। उसको पता चला कि विरोध करने वालो की अगुवाई गणेश बजाज, जिसकी सराय में कपड़े की दुकान थी, ने की थी। शिवराम ने गणेश को पकडवा लिया। गणेश ने बड़ी खुशामद करके साठ रु० जुर्माना देकर अपनी जान बचाई। बाद का किस्सा भी यहीं पर जान लें। अंग्रेजों ने गणेश को अपना बड़ा हितैषी माना और जब फिर उनका जालौन पर अधिकार हो गया तब गणेश को बड़ा सम्मान दिया, उसका नाम दरबारियों की लिस्ट में शामिल किया गया। गणेश के मरने के बाद उसके पुत्र लल्ला को भी यह सम्मान मिला। उसका नाम भी दरबारियों की सूची में रहा।

कालपी में शिवराम ने इन अंग्रेजों को सराय में बंदी बना कर रखा और उनको कानपुर भेजने की तैयारी करने लगा। भेजने की तैयारियाँ हो ही रही थी तभी कानपुर में क्रांतिकारियों की पराजय, नाना के बिठूर पलायन और अंग्रेजों द्वारा कानपुर पर अधिकार कर लिए जाने की सूचना कालपी पहुँची। इधर बंदी रहते हुए पशन्ना ने एक हरकारे को रिश्वत देकर कानपुर एक पत्र भेजने में सफलता प्राप्त कर ली। कानपुर में कुख्यात जनरल नील को यह पत्र मिला। वहाँ से से जनरल नील ने एक कड़ा पत्र शिवराम तातिया के पास कालपी भेजा, जिसमें सभी अंग्रेजों के जानमाल की रक्षा और कानपुर सुरक्षित भेजने को कहा। केशवराव और उनके दोनों पुत्र दो नावों पर एक साथ सवारी करके जिस पक्ष की विजय हो उसकी तरफ रहने का फायदा उठाना चाहते थे। जैसे ही कानपुर में अंग्रेजों की जीत हुई और समाचार कालपी आया वैसे ही शिवराम का व्यवहार पशन्ना के प्रति एकदम से बदल कर मैत्रीपूर्ण हो गया।

22 जुलाई को 42 इन्फेंट्री के क्रांतिहारी सैनिक सागर से कालपी आए, उन्होंने कालपी में रह रहे अंग्रेजों के बारे में जानने की कोशिस की। शिवराम तातिया के लिए अब अंग्रेजों की जान बचाना बहुत आवश्यक था क्योंकि नील का पत्र उसको मिल चुका था। वह समझ रहा था कि कहीं इन सैनिकों ने यदि अंग्रेजों की हत्या कर दी तो फिर जनरल नील उसको नहीं छोड़ेगा। नील के कानपुर में किए गए अत्याचार की कहानियाँ उसको पता चल चुकी थीं। अत: उसने सभी अंग्रेजों को कालपी से 15 मील की दूरी पर चुर्खी नामक स्थान पर सुरक्षा के दृष्टिकोण से भेज दिया। अब आपको आश्चर्य हो रहा होगा कि इनको चुर्खी ही क्यों भेजा तो आप को बतला दूँ कि चुर्खी में रानी लक्ष्मीबाई की सौतेली बहिन, मोरोपंत की पुत्री व्याही थी। मोरोपंत की ससुराल गुरसराय में थी। केशवराव गुरसराय के ही तो राजा थे अत: निकट सम्बन्धी थे। जब सागर के सैनिक कालपी से चले गए तब फिर 11 अगस्त को सभी अंग्रेजों को चुर्खी से कानपुर भेजने के लिए कालपी लाया गया। कालपी से अंग्रेजों को कानपुर भेजने के लिए बहुत अच्छी-खासी तैयारियां करनी थी सुरक्षा के लिहाज से और आराम के लिहाज से भी। 16 अगस्त को इन अंग्रेजों को कानपुर प्रस्थान करना था। इसी मध्य 15 अगस्त को नाना के समर्थक कुछ सैनिक कालपी आए। उन्होंने कालपी में मौजूद क्रान्तिकारी सैनिकों का मनोबल बढाने के लिए झूठ-मूठ प्रचारित कर दिया कि इलाहाबाद और कानपुर में फिर से क्रांतिकारियों का अधिकार हो गया है। यह खबर बहुत बढा-चढा कर बतलाई गई थी, जिसको शिवराम तातिया ने सच मान लिया। वह फिर पलटी मार गया। उसने पशन्ना से कहा कि कानपुर में फिर से नाना साहब का अधिकार हो गया है और चूँकि वह नाना साहब का समर्थक है अत: अब वह उनको अंग्रेजों के पास नही भेजेगा और नाना के आदेशों का पालन करेगा। उसने सभी अंग्रेजों को फिर से हिरासत में लेकर चुर्खी भेज दिया। अगस्त का महीना समाप्त होने को आ रहा था, परन्तु पशन्ना आदि अभी भी कानपुर नहीं पहुचे थे। अत: जनरल नील ने पुन: एक कठोर पत्र इस विषय में केशवराव के पास भेजा। नील की ख्याति उसके द्वारा कानपुर में किए गए जघन्य अत्याचारों के कारण क्रूरतम अंग्रेज सेनानायक रूप में हो गई थी। केशवराव ने अब अंग्रेजों को तुरन्त कानपुर भेजने में ही खैरियत समझी। 31 अगस्त को फिर से सब अंग्रेजों को चुर्खी से कालपी लाया गया। केशवराव ने धन, बैलगाड़ियाँ और घोड़ों की व्यवस्था करके अपने सैनिकों की सुरक्षा में सब अंग्रेजों को कानपुर भेज दिया। डिप्टी कलेक्टर ग्रिफिथ, पशन्ना, उनकी पत्नी, पांच बच्चे तथा दो भतीजे 2 सितम्बर 1857 को सकुशल कानपुर पहुँचे।

आज इतना ही, बाकी अगली पोस्ट में।

बहुत से मित्र सन्दर्भ जानने के लिए कहते है उनके सूचनार्थ बतला दूँ कि क्रांति के समाप्त हो जाने पर पशन्ना कुछ समय के लिए जालौन में पोस्ट किए गए थे थे और उनसे यहाँ पर क्रांति कैसे हुई आदि के बारे में एक पूरी रिपोर्ट देने को कहा गया था। उन्होंने रिपोर्ट बना कर डिप्टी कमिशनर टरनन को दी जिसको उन्होंने सरकार को प्रेषित किया था। रिपोर्ट अंग्रेजी में प्रिंटेड है और राज्य अभिलेखागार लखनऊ की लाइब्रेरी में देखी जा सकती है। रिपोर्ट का टाइटल है नरेटिव आफ इवेंट्स अटेंडिंग द आउटब्रेक आफ डिस्टर्बेंसेज एंड द रेस्टोरेशन आफ अथार्टी इन द डिस्ट्रिक्ट आफ जालौन,1857-59। धन्यवाद.. 

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© देवेन्द्र सिंह  (लेखक)
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