देवेन्द्र सिंह जी - लेखक |
इर्श्किन
के कार्यकाल में जालौन में बहुत से ऐसे कार्य हुए जो यहाँ के इतिहास में महत्वपूर्ण
स्थान रखते हैं। संक्षेप में उनका विवरण देखें।
अभी
तक सरकारी खजाने में जो टैक्स जमा होता था वह देशी सिक्कों में होता था। इर्श्किन ने
आदेश किये कि अब वह कंपनी के रुपए में जमा होगा। यदि कोई देशी सिक्के में जमा करेगा
तो उसको विनिमय दर के अनुसार देना पड़ेगा। इसके लिए एक्सचेंज रेट (विनिमय दर) निर्धारित
की। उस समय जिले में बहुत प्रकार के सिक्के प्रचलन में थे। आइए देखे कि कौन कौन से
सिक्के प्रचलन में थे और कंपनी के रुपए के हिसाब से उनकी विनिमय दर क्या थी।
1- 100 रुपये बालाशाही सागर, कालपी
और जालौन = 84-1-9 रु० कंपनी के
2- 100 रुपये श्रीनागरी = 87-10-8 कंपनी के
3- 100 रुपये नानाशाही झाँसी = 83-15-0 कंपनी के
4- 100 रुपये गजाशाही टीकमगढ़ = 84-8-0 कंपनी के
5- 100 रुपये छतरपुर = 88-0-0 कंपनी
के
6- 100 रुपये राजशाही दतिया = 82-0-0 कंपनी
7- 100 रुपये चदुंरा और ग्वालियर का नया रु० = 93-0-0 कंपनी
इर्श्किन
के समय में ही 100 रुपये के वजन का सेर प्रचलन में लाया गया लेकिन
कहीं-कहीं 100 रुपये और 106 का भी प्रचलन था। माधोगढ का सेर 101 रु० के वजन का था
जबकि आटा का सेर 96 रु० भर का था। उरई और कोंच में पयला से तौल
की जाति थी। यह लकड़ी का बना होता था, जिसमे पांच सेर अनाज आता
था। कहीं पर 8 सेर का पयला भी होता था। इसके अलावा एक सेर के
लिए चुरा, आधा सेर के लिए अधारो और चौथाई सेर के लिए पटोली और
दो छटांक के लिए कुरी का प्रयोग होता था। पटवारियों के लिए पहले वेतन के बदले भूमि
देने का चलन था। इर्श्किन ने इसको समाप्त करके रुपए देने का प्रावधान किया। पचास घरों
पर एक चौकीदार के नियुक्त करने का भी निर्णय लिया गया, इसके साथ
ही डिस्ट्रिक्ट डाक सेवा की नींव इसी समय पड़ी। जिसके लिए जमीदारों को प्रेरित किया
गया कि वे जो टेक्स देते हैं उसके साथ ही एक छोटा सा प्रतिशत डाक सेवा के लिए भी दें।
जिले की सभी सरक़ारी इमारतों की देखभाल कानपुर में नियुक्त इंजीनियर को सौंपी गई।
आमजन
को न्याय कैसे मिले इसकी तरफ भी इर्शिकिन ने ध्यान दिया। जनता को न्याय सुलभ करने के
लिए सहायक प्रभारी परगना को फौजदारी के मुकदमे सुनने के लिए अधिकृत किया जिसमे एक वर्ष
तक की सजा और 200 रु० तक का जुरमाना किया जा सकता था। इससे ऊपर
के मुकदमे की सुनवाई उनके खुद की अदालत से शुरू होती। ये असिस्टेंट हर प्रकार के राजस्व
मामलों की सुनवाई करते जो लोवर कोर्ट (तहसीदार) से उनके पास आते उनका क्रियान्वन भी
करवाते। बाद में मुख्य सदर अमीन की नियुक्ति हुई जो 600 से 5000
रु० तक सिविल और परगना कोर्ट के आदेश के खिलाफ अपील की सुनवाई करता।
सुपरिनटेनडेंट खुद सदर अमीन के फैसले के खिलाफ अपील की सुनवाई करता। उसके पास वे सब
केस सुने जाते जो पांच हजार से ऊपर के होते। फौजदारी के मुकदम्मे में इर्श्किन के पास
मजिस्ट्रेट की पूरी पावर थी। वे सब मुकदमे जिसमे सजा एक वर्ष से ज्यादा की होती उनकी
अदालत में ही शुरू में पेश होते तथा इनके फैसले के खिलाफ अपील झाँसी में तैनात एजेंट
टू गवर्नर जनरल फार बुंदेलखंड के यहाँ होती। जिले की पुलिस भी इर्श्किन की मातहती में
थी क्योंकि जिले में अभी पुलिस सुपरिंटेंडेंट का पद सर्जित नही किया गया था। पुलिस
और क्रिमनल रुल अभी वही लागू थे जिनको बाँदा में तैनात गवर्नर जनरल के एजेंट मि० फ्रेशर
ने बनाए थे जिनमे थोडा फेर बदल कर्नल स्लीमन ने किया था। न्याय व्यवस्था के बारे में
कैप्टेन इर्श्किन ने 1850 में लिखा - The
Pergunnah Court is an admirably-consitituted court, and is formed as follows.
On a claim being made under Rs.600 a petetion is given to
the tehseeldar of pergunnah. The plaintif is directed by him to give in a list
of twelve assessors. The defendant is summoned and called upon for a similar
list. If he denies the debt, each party then takes the list of other, and from
it strikes out ten names; the remaining four in the two list, and the
tehseeldar as president, form the court. These rules are simple, and the court,
generally, speaking, affords ample and cheap justice. (These courts were
abolished in 1862).
वर्ष
1851 में इर्श्किन ने दबोह परगने का भी बन्दोबस्त
किया। इसकी जमा पहले 88525-100-0 थी उसको बढ़ा कर 1,29,963
रु० कर दिया। इतने वर्षो में इर्श्किन ने यहाँ रह कर हिंदी, उर्दू पढ़ने लिखने और बोलने में महारत हासिल कर ली थी। अत: 1853 में जब हिंदी भाषी इलाके सागर और नर्बदा टेरिटरी और जालौन को नार्थ-वेस्ट-प्राविन्स
के आधीन किया गया तब तरक्की देकर इनको सागर डिविजन का कमिश्नर बना कर जबलपुर भेजा गया
जो सागर डिविजन का मुख्यालय था। साथ ही सेना में मेजर का पद भी दिया।
इर्श्किन
के जालौन से जाने के बाद वर्ष 1953 में कैप्टेन
स्किने की नियुक्त जालौन में हुई। इनका पद भी असिस्टेंट सुपरिंटेंडेंट का था। इनको
कोई बन्दोबस्त नही करना पड़ा क्योंकि पिछला बन्दोबस्त पांच साला था। जो जमा जनता से
लेनी थी उसी की वसूली नहीं हो पा रही थी। 1855 में यहाँ से जाने
से पहले उन्होंने अपनी रिपोर्ट में लिखा- That the present assessment
presses very heavily on most of the zamidars is an admitted fact.
1855 में मि० डब्लू० बालमेन की जिले में नियुक्त हुई। इनके समय में ही जिले के
अस्सिस्टेंट सुपरिटेंडेंट के पद नाम को बदल कर डिप्टी कमिश्नर किया गया। अब झाँसी कमिश्नरी
बन गई थी और वहाँ पर कमिश्नर की नियुक्त करके उसके आधीन आने वाले जिले के अधिकारी को
डिप्टी कमिश्नर कहा जाने लगा। इस प्रकार यह कह सकते हैं कि जिले के पहले डिप्टी कमिश्नर
मि० डब्लू० बालमेन थे। Balmin ने भी Skene की ही बात का समर्थन किया और 1855 में एक रिपोर्ट में
लिखा- In support of the fact that the Government demand presses very
severely, I would offer the following observation- The extremily embarrassed
condition of Zamidars, who are almost universally in debt and are unable even
to provide seed grain for their lands when the banker refuses assistance,
personal property they hardly passess, with the exception of cattle. (See.Settlement
report of Jalaun (exclusive of the old pergunnah of Konch and Kalpi)printed at
the Govt. press, N.W.P.,1870).
बालमेंन
जिले में बहुत कम समय ही रहे पाए थे। 1856
में उनका ट्रांसफर यहाँ से हो गया। और उनकी जगह पर जी०एच० फ्रीलिंग आए। ये भी यहाँ
पर ज्यादा समय नही रहे। 1857 में उनका भी ट्रांसफर हो गया और
उनकी जगह पर कैप्टेन ब्राउन डिप्टी कमिश्नर हो कर जिले में आए। इनको चार्ज लिए हुए
थोडा ही समय हुआ था कि भारतवर्ष में 1857 की क्रांति हो गई। 1857 के प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम से जालौन जिला भी अछूता नहीं रहा। जून 1857 में यहाँ पर भी स्वतन्त्रता संग्राम शुरू हो गया जिसको अनेक इतिहासकारों ने
गदर कहा है।
यह
मैंने पहले ही लिखा है कि जालौन स्टेट का अधिग्रहण अंग्रेजों ने किया, वही जिला बनने
का मूल था। वर्ष
1838 से 1853 तक जालौन का
पूरा क्षेत्र गवर्नर जनरल के पोलिटिकल एजेंट और कमांडर इन चीफ के आधीन सुपरिंटेंडेंट
की देखरेख में शासित होता था। वर्ष 1853 में झाँसी के राजा गंगाधर
राव की मृत्यु होने पर झाँसी जिला बना और सुप्रिनटेंडेंसी भी बनी जिसमें तीन जिले झाँसी,
चंदेरी (ललितपुर) और जालौन रखे गए। प्रत्येक जिले में एक डिप्टी सुपरिंटेंडेंट
रखा गया जो झाँसी के सुपरिंटेंडेंट के मातहत था। 1853 में परगना
कालपी और कोंच को जालौन जिले में मिला कर बदले में महोबा और जैतपुर को हमीरपुर को दे
दिया गया। वर्ष 1854-56 के मध्य गरौठा, भांडेर, मोंठ और तालुका चिरगांव को जालौन से निकाल कर
झाँसी जिले में शामिल किया गया। 1857 की क्रांति के बाद भी कुछ
बदलाव हुए थे उसको भी यहीं पर जान लें।
1857 की क्रांति में सिंधिया ने अंग्रेजों की बहुत मदद की थी। अत: 1861 में इनाम के बतौर गवर्नर जनरल ने जालौन के परगना इंदुरखी और माधोगढ के 125 गाँव तथा परगना दबोह के 101 गाँव सिंधिया को दे दिए
जिसमें लिखा गया- “As a free gift and willing acknowledgement of his
highness Scindia’s services during the mutinies.” दिसंबर 1860 की संधि में यही लिखा गया है। इस प्रकार 1861 में जालौन
जिले से 255 गाँव और निकल गए। अब जालौन जिले में परगना जालौन,
उरई, माधोगढ, कोंच और कालपी
(आटा) बचे। इसके बाद जालौन जिले में ज्यादा बदलाव नहीं हुआ। 1891 तक हमीरपुर जिले के तीन गाँव और जालौन को मिले। वर्ष 1914 में जालौन जिले के 6 गाँव पूंछ, खिल्ली टाठी, सरायं-झाँसी और भोरा-एरच झाँसी जिले में
गए। 1955 में हमीरपुर जिले के शमशी हाजीपुर, सलैया, बसराही, क्योटरा,
चीपुरा और हेमनपुरा नामक गाँव जालौन जिले में आए। स्वतन्त्रता प्राप्त
होने पर विन्ध्य प्रदेश बना। मगर कुछ ही वर्षों में उसका विघटन होने पर दतिया स्टेट
की नदीगांव तहसील के गाँव और कदौरा-बावनी राज के अधिकांश गांवों को जालौन जनपद में
शामिल कर दिया गया। तब से जालौन जिला अपने वर्तमान स्वरूप में है। ह्वाइट साहब ने जब
कालपी परगने का अंतिम रूप से बन्दोबस्त किया था, उस रिपोर्ट में
उन्होंने जालौन जिले के इतिहास पर भी अपने मेमोयर शामिल किये थे। इसमें भी जालौन जिले
के इतिहास पर काफी रोचक जानकारी मिलती है तथा यह भी पता चलता है कि जालौन जिले का गठन
कैसे हुआ। यह रिपोर्ट अब आसानी से प्राप्त नहीं होती है, अतः मैं उसको पूरी की पोस्ट
करूंगा। उसका हिंदी में अनुवाद नहीं करूंगा क्योंकि इसमें बहुत समय नष्ट होगा।
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© देवेन्द्र सिंह (लेखक)
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