Wednesday, June 6, 2018

इतिहास की तंग गलियों में जनपद जालौन - 29

देवेन्द्र सिंह जी - लेखक 

कालपी और कोंच के शासन में महत्वपूर्ण बदलाव कंपनी सरकार ने 1818 में किया जब बुंदेलखंड जिले को दो भागों में विभाजित करके कालपी को उत्तरी बुंदेलखंड का मुख्यालय बना दिया। कुछ परिवर्तन और देखने को मिलते हैं। 1818 में, भदेख परगना जिसको अंग्रेजों ने कानपुर जिले में शामिल कर रखा था वहाँ से हटा कर उत्तरी बुंदेलखंड जिले में शामिल कर दिया। वर्ष 1822 के अंत में यहाँ का सुपरवीजन सेंट्रल बोर्ड आफ रेवन्यू को दे दिया गया जिसका हेडक्वार्टर पटना में था, जो बाद में इलाहबाद में हो गया। अब कालपी के बन्दोबस्त का कार्य मि० वल्पी को सौंपा गया। यह बन्दोबस्त 1820-21 से 1824-25 तक के लिए था। वल्पी ने भी जनता के कष्टों और अकाल की तरफ कोई ध्यान नही दिया और कोंच और कालपी का बन्दोबस्त क्रमशः 2,18,140 रु० और 1,12,514 रु० की जमा पर किया। कुछ ही दिनों में कालपी के मुख्यालय को समाप्त करके हमीरपुर में नया मुख्यालय स्थापित किया गया और कालपी में एक डिप्टी कलेक्टर रेमजे की पोस्टिंग हुई। जनता में अकाल के कारण बड़ा असंतोष था। जालौन में इस समय बालाराव का शासन था। उन्होंने इसका फायदा उठा कर अपनी पिंडारी दस्तों को जिनको एट के पास बसा रखा था कालपी भेज कर लूटपाट की घटनाओं को अंजाम दिया। परासन से एक दल भेज कर कोंच में ही बलवा करवाया। 1825 आते आते कोंच की स्थिति बहुत खराब हो गई, तब अंग्रेजों ने झाँसी राज से मदद लेकर इस विद्रोह का दमन करवाया। इस विद्रोह का एक फायदा यह देखने में आया कि जब अगला बन्दोबस्त किया गया तब कलेक्टर Cathert और कमिश्नर Inslie ने कोंच परगने की जमा में कोई बदलाव नही किया तथा कालपी की जमा को घटा कर 93,067 रु० कर दिया। इससे पहले कालपी की जमा 1,12,514 रु० थी। यह बदलाव पहली बार कंपनी के शासन में देखने को मिला था।

26 दिसंबर 1834 को आगरा के गवर्नर ने इलाहबाद और बुंदेलखंड के कमिश्नर के पदों को समाप्त करने का निर्णय लिया जिसका बोर्ड आफ रेवन्यू ने विरोध किया। इस पर गवर्नर ने सरकारी खर्च ज्यादा होने की बात का हवाला दिया और कहा कि या तो पद समाप्त किये जाएँ या फिर सूबे में कमिश्नर के पदों की संख्या घटाई जाय। अभी इस पर विचार हो ही रहा था कि गवर्नर ने फरवरी 1835 में बुंदेलखंड और इलाहबाद के कमिश्नर के पदों को समाप्त कर दिया और जिला के कलक्टरों को आदेश दिया कि अब वे सीधे बोर्ड आफ रेवन्यू से पत्र व्यवहार किया करें। 27 अप्रेल 1835 को एक आदेश द्वारा उन्होंने नए कमिश्नर और उनके क्षेत्रों की घोषणा भी कर दी जिसमे एक डिविजन इलाहाबाद बना, जिसमे इलाहाबाद, कानपुर, बेला, बाँदा और हमीरपुर (कालपी) जिले थे। T.J.Turner को कार्यवाहक कमिश्नर नियुक्त किया गया।

1835 में एक बदलाव फिर बड़ा बदलाव किया गया यह हुआ कि कालपी और कोंच परगनों को इलाहाबाद कमिश्नरी से हटा कर Agent to Governor Genral in Sagur and Narbada Territorie के अधीन कर दिया (यह स्थिति 1858 तक बनी रही जब झाँसी कमिश्नरी तब यह भाग उसमे आया) जैसा की पहले लिखा जा चुका है 1833 में यहाँ अकाल पड गया था अत: 1836 में जब पिड्लोक ने नया बन्दोबस्त करना शुरू किया तब उनके पास ज्यादा कुछ करने को नही था क्योंकि 1837-38 में कालपी और कोंच फिर अकाल की चपेट में आ गए थे। अबकी बार सरकार ने कुछ राहत कार्य शुरू किए।

1840-41 में कालपी और कोंच का बन्दोबस्त डनलप द्वारा किया गया। इन्होने परगनों में पसरी हुई गरीबी को कुछ हद तक समझने की कोशिस की और कोंच परगने को 2,02,798 रु० में तथा कालपी परगने की 78,335 रु० में सेटेलमेंट किया। 1842 में मि० म्यूर ने यहाँ की गरीबी को देखते हुए अपनी रिपोर्ट में लिखा- The Zamidars who had engaged were reduced to abject proverty. (इस पोस्ट में मैंने सन्दर्भ नहीं दिए हैं इसका कारण यह है कि ज्यादातर बातें बन्दोबस्त पर हुई हैं किसने बन्दोबस्त किया उनका नाम दे दिया है। ये बन्दोबस्त अभिलेखागार में मौजूद हैं और नाम से ढूंढे जा सकते हैं)

अब जालौन के बचे हुए भाग जहाँ नाना गोविंदराव का शासन था वहां देखे कि क्या चल रहा था। पूना में 13 जून 1817 को पेशवा और कंपनी सरकार के बीच एक और संधि होती है। इस संधि की धारा 13 के अनुसार पेशवा ने अपने बुंदेलखंड प्रान्त से जिसमे झाँसी, सागर तथा वे क्षेत्र जो जालौन के राजा गोविंदराव के अधिकार में थे अपने सब अधिकार तथा प्रभुसत्ता को ईस्ट इंडिया कंपनी के पक्ष में परित्याग कर दिया। संधि में लिखा गया- Peshwa ceded to the British, All the rights interests, or Pretensions, feudal, territarial or Pecuniary, in the Province of Bundelkhand, including Saugar, Jhansi and the land held by Nana Govind Rao, and agreed to relinguish all connections with chief in that quarter.

इस संधि को समझने की जरूरत है। 1806 की संधि के अनुसार नाना गोविंदराव अभी भी अपने इलाके के स्वतंत्र राजा थे, लेकिन 1817 की संधि के द्वारा पेशवा ने कंपनी के पक्ष में अपनी प्रभुसत्ता का परित्याग कर दिया। इअका अर्थ यह हुआ कि अब नाना गोविंदराव कंपनी सरकार के आधीन थे। पेशवा से कोई भी मतलब नही रह गया। इन स्थितियों के पैदा होने पर कंपनी सरकार ने नाना गोविंदराव सर एक नई संधि करने को कहा। इस संधि में 10 धाराएं थीं। संक्षेप में इस संधि की बातें इस प्रकार थी। 1806 की संधि प्रभावी रही। नाना गोविंदराव के पास इस समय जो भू-भाग था वह वहाँ के पैत्रक, वंशानुगत राजा माने जाते रहेंगे। नाना गोविंदराव को महोबा के पास का खंडेह का पुरा इलाका, चुर्खी के पास के लोहई, जुगराजपुरा, टिकरी, जरारा, और मानपुरा पांच गाँव अंग्रेजों को देने पड़े। नाना गोविंदराव अब किसी बाहरी से संधि, संबंध आदि नहीं रख सकते थे। कंपनी सरकार ने नाना के राज की रक्षा करने का वचन दिया। The The British Government moreover acknowledges and hereby constituted him, his heirs and successors, the hereditary rulers of territory then in his actual possession. 

इस संधि के अध्ययन से एक बात पता चलती है और उसको ध्यान में भी रखना पड़ेगा कि इसी तिथि से ही जालौन के मराठा शासकों को राजा का पद प्राप्त हुआ। पहले ये पेशवा के यहाँ मुलाजिम थे। इनका पद कमविस्दार, मामलातदार का था। पूना में पेशवाई के कमजोर होने पर ये शक्तिशाली जरुर हो गए मगर प्रभुसत्ता हमेशा पेशवा की ही मानी जाती रही। जब पेशवा ने अपनी प्रभुसत्ता को कंपनी के पक्ष में परित्याग किया और कंपनी ने उनको राजा माना तभी से उनका पद राजा का हुआ। हम लोग आदर में हमेशा उनको जालौन का राजा ही शुरू से कहते रहे। इस संधि का जालौन के इतिहास में बड़ा दूरगामी प्रभाव पड़ा अत: इसका पूरा अध्ययन जरूरी है अत: पूरी संधि आप से साझा करता हूँ।

आज इतना ही। आगे का हाल अगली पोस्ट में। 

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© देवेन्द्र सिंह  (लेखक)
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