प्राचीन समय में कालप्रिया के नाम से प्रसिद्द नगरी वर्तमान में कालपी के
नाम से जानी जाती है। किंवदंतियों के आधार पर कालपी नगर चौथी शताब्दी में वसुदेव
द्वारा बसाया गया था। बुन्देलखण्ड के जनपद जालौन की तहसील कालपी अपने में
ऐतिहासिकता को संजोये हुए है। महाभारत के रचयिता वेद व्यास की जन्मस्थली के रूप
में प्रसिद्धि प्राप्त होने के साथ-साथ इसकी अपनी राजनैतिक-ऐतिहासिक गाथा है। कालपी
ऐतिहासिक नगर है जहाँ पुराने समय से लगातार राजनीतिक उथल-पुथल होती रही है। सन् 1196 ई० में यह नगर कुतुबुद्दीन के आधिपत्य में आया। सन् 1527
ई० में जौनपुर और बिहार दोनों पर विजय प्राप्त कर लेने के बाद बाबर
ने कालपी पर अधिकार कर लिया। हुमायूँ ने कालपी को अपने
अधिकार में सन् 1540 ई० तक रखा। अकबर के समय में कालपी सरकार
का मुख्यालय रहा। बाद में मराठों ने इस नगर को राज्य के मुख्यालय का रूप दिया। मई,
सन् 1858 ई० में झाँसी की रानी के नेतृत्व में यहाँ भयंकर युद्ध हुआ जिसमें राव साहब और बाँदा के नवाब का
पूरा सहयोग था। कहते हैं कि अकबर के प्रसिद्ध दरबारी बीरबल भी कालपी के ही थे। अपनी
इस ऐतिहासिकता के साथ-साथ कालपी में मनमोहक ऐतिहासिक, धार्मिक दर्शनीय स्थल भी बने
हुए हैं, जो कालपी की गौरवगाथा स्वयं सुनाते हैं। यहाँ बहती यमुना नदी के किनारे
सूर्य मंदिर अपनी आभा को चहुँ ओर प्रकीर्णित कर रहा है। व्यास मठ, चौरासी गुम्बज
के साथ-साथ कालपी नगर में स्थित लंका मीनार अपने आपमें अद्भुत है।
कालपी स्थित लंका मीनार
नाम से विख्यात एक मीनार है जो नगर के रावगंज मोहल्ले में स्थित है। कुतुबमीनार की
तरह दिखने वाली इस मीनार का निर्माण सन् 1857 ई० में
कालपी निवासी, जनपद के ख्यातिलब्ध वकील बाबू मथुरा प्रसाद निगम ने करवाया था। बाबू
मथुरा प्रसाद निगम जी अपने समय में रामायण प्रसंगों पर आधारित रामलीला में रावण के
किरदार का पूरी जीवन्तता के साथ निर्वहन करते थे। उनकी तन्मयता का आलम ये था कि
उनको लंकेश के नाम से ही जाना जाता था तथा अपने पात्र रावण के मोहपाश में वे ऐसे
बंधे कि रावण की स्मृति को संरक्षित करने की दृष्टि से बाबू मथुरा प्रसाद निगम ने सन्
1857 ई० में 210 फुट ऊंची लंका मीनार
का निर्माण करवा दिया। इस मीनार को बनवाने के लिए उन्होंने अपनी समूची जायदाद भी
बेच डाली थी। कहा जाता है कि सीप, उड़द की दाल, शंख, कौड़ियों आदि से बनी इस मीनार
को बनने में बीस वर्षों का समय लगा और लगभग एक लाख पचहत्तर हजार रुपये लागत लगी।
इस मीनार की विशेषता इसका
निर्माण और इसकी स्थापत्य-कला है। सात मोड़ों अर्थात सात चक्कर, के रूप में बनी 173 घुमावदार सीढ़ियाँ इस मीनार में अन्दर बनी हुई हैं। ये
साथ मोड़ रामचरित मानस के सात सोपानों (कांडों) के परिचायक हैं। मीनार के चारों ओर
लंका कांड की चित्रमय प्रस्तुति उकेरी गई है, जो इस मीनार को भव्यता प्रदान करती
है। इसके बुर्ज पर 15 फुट ऊँची छत्रसहित ब्रह्मा जी की
मूर्ति स्थापित थी जो सन् 1934 ई० में आये भूकंप में टूट कर
लटक गई थी और आज भी उसी रूप में मीनार के साथ जुड़ी हुई है।
लंका मीनार परिसर में इस मीनार के अतिरिक्त बाबू मथुरा प्रसाद निगम ने
भगवान शंकर का मंदिर भी बनवाया था, जिसका उद्देश्य ये था कि शिवभक्त रावण अपने महल
से शिव को सदैव देखता रहे। इसके अतिरिक्त मीनार परिसर में रावण दरबार, अयोध्यापुरी,
जनक द्वारिका, शनिदेव मंदिर, मथुरापुरी की छवियाँ निर्मित होने के साथ-साथ बारह
विष्णु अवतार, 27 नक्षत्र तथा चारों युगों से
संदर्भित आकर्षक प्रतिमाएँ स्थापित हैं। लंका मीनार परिसर की चाहरदीवारी पर बना
नाग-नागिन का जोड़ा भी मन मोह लेता है।
स्व० मथुरा प्रसाद निगम का रावण भक्त परिवार भगवान राम के प्रति भी
आस्थावान है और पूर्वजों की परम्परा को कायम रखते हुए आज भी रामलीला का आयोजन
करवाता है। इस रामलीला की अनूठी बात यह है कि बुराई पर अच्छाई की विजय का प्रतीक
पर्व दशहरा मेला यहाँ संपन्न होता है किन्तु उसका समापन रावणदहन से न होकर उसकी
आरती से होता है।
अपने क्षेत्र की भव्यता और ऐतिहासिकता को अपने में समाहित किये लंका मीनार
आज रखरखाव के अभाव में लगातार क्षरण का शिकार हो रही है। लंकेश के नाम से प्रसिद्द
मथुरा प्रसाद निगम के परिवार ने इस मीनार के रखरखाव हेतु सरकार से अपील की है। डेढ़
सौ वर्षों से अधिक की विशाल परम्परा को अपने में संजोये इस मीनार को
संरक्षित-सुरक्षित रखना स्थानीय निवासियों और प्रशासन की भी जिम्मेवारी है, जिससे
आने वाली पीढ़ी अपने क्षेत्र के इतिहास से परिचित हो सके।
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चित्र मित्र विनीत चतुर्वेदी एवं लेखक द्वारा
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चित्र मित्र विनीत चतुर्वेदी एवं लेखक द्वारा