Wednesday, December 27, 2017

इतिहास की तंग गलियों में जनपद जालौन - 1

देवेन्द्र सिंह जी - लेखक 
अभी तक आपसे १८५७-५८ की क्रांति को ही साझा कर रहा था। यह क्रम तो चलता ही रहेगा। आज सोचा अपने जनपद के पुराने इतिहास को भी जैसा माने पढ़ा, जाना और फिर लिखा भी आप सब से साझा करूं। इसी क्रम में यह श्रंखला शुरू कर रहा हूँ, इस उम्मीद के साथ कि इसको भी आप पसंद करेंगे और अपनी राय देंगे।

जनपद का इतिहास उस युग के विवरण से प्रारंभ होना चाहिए जब मानव द्वारा इस जनपद में पदार्पण कर इसकी भूमि में बसा हो, परन्तु यथार्थ इतिहास उन सत्य घटनाओं का विवेचन करता है जो किसी न किसी प्रमाण पर आधारित हों। कुछ वर्षों पूर्व तक जनपद की प्राचीनता के बारे में ज्यादा पता नही था। मगर कालपी के यमुना के पुल के पास पुरातत्व विभाग द्वारा खुदाई करने पर हाथी दांत, फासिल्स तथा अन्य औजार मिलने पर तथा उनकी कार्बन डेटिंग करने पर पता चला कि ये सब ४०००० से ४५००० हजार वर्ष पुराने हैं अर्थात मध्य पाषाण युग यहाँ आदम जाति का निवास था। (आर तिवारी, पी सी पन्त और आई बी सिंह –Middle Paleolithic human activity and Palaeoclimate at Kalpi in Ymuna valley, Ganga plain Man and Environent .xxvii no.2(1-13) Pune)

आज यह विवादास्पद माना जा रहा है की आर्य बाहर से आए या भारतवासी थे और यहीं से बाहर गए। अधिकांश विद्वानों की राय रही है कि ये भारत के मूल निवासी नहीं थे, लेकिन अनेक भारतीय इतिहासकारों ने भारत को ही आर्यों का मूल स्थान माना है। भारतीय इतिहास कांग्रेस के ग्वालियर अधिवेशन (१९५२) में डा० राधा कुमुद मुकर्जी ने कहा था कि आदिमानव पंजाब और शिवालिक की भूमि में विकसित हुआ होगा। पंजाब में मनुष्य का जन्म, फिर सिंध की तराई में कृषि-सभ्यता का विकास, और सिन्धु के पठार में भारत की प्राचीन सभ्यता का अवशेष पाया जाना ये सारी बातें आपस में एक दुसरे की पुष्टि करती हैं। डा० गंगा नाथ झा, डा० अविनास दास, डा० राजबली पाण्डेय आदि का भी कहना है संपूर्ण भारतीय साहित्य में एक भी ऐसा संकेत नही मिलता जिससे सिद्ध किया जा सके कि भारतीय आर्य कहीं बाहर से आए। भारतीय अनुश्रुति या जनश्रुति में भी कहीं भी इस बात की गंध नही मिलती कि आर्यों की मात्रुभूमि या धर्मभूमि इस देश से कहीं बाहर थी। रामधारी सिंह दिनकर ने तो अपनी पुस्तक भारतीय संस्कृति के चार अध्याय में तो यह तक कह दिया कि अगर आर्य मध्य एशिया से आए तो उन्होंने वेद के समान कोई प्रामाणिक साहित्य अपने मूल स्थान में क्यों नहीं छोड़ा। इन सब विद्वानों के अनुसार आर्यों का मूल स्थान पंजाब ही रहा होगा और इसी भाग को उन्होंने ब्रह्माव्रत, मध्य देश और आर्यावर्त का नाम दिया।

प्राचीन काल में जालौन का परिक्षेत्र जिस भू-भाग में सम्मिलित था उसे विभिन्न समय में विभिन्न नामों से जाना जाता रहा है, जैसे चेदि देश, दर्शाण, जुझौती, जेजाक भुक्ति आदि। इसका नामकरण कभी शासकों कभी यहाँ के निवासियों के नाम पर पड़ता रहा। इस भू-भाग को अब बुंदेलखंड के नाम से पुकारते हैं।

पूर्व पाषाण युग और उत्तर पाषाण युग के बाद धातु युग आया। उत्तर भारत विशेष रूप से उत्तर प्रदेश में तांबे की वस्तुओं के अवशेष प्राप्त हुए। कुछ वर्षों पूर्व उत्तर प्रदेश की पुरातत्व विभाग की इकाई ने कालपी में खुदाई करके कॉपर आन्त्थ्रोमार्क कालीन सभ्यता का पता लगाया (कृष्ण कुमार- ए यूनीक कॉपर आन्थ्रोमार्क फ्राम कालपी, जनरल आफ द गंगानाथ झा केन्द्रीय संस्क्रत विद्यापीठ) तथा कुछ वर्ष पूर्व उरई के मातापुरा मुहल्ले में मकान की नीव की खुदाई में एक तांबे का पिंड, कुछ कुल्हाड़ियाँ और एक गोल आकार की चीज मिली। मातापुरा की गिनती उरई के प्राचीनतम इलाके में की जाती है। यह मुहल्ला नगर से निकलने वाले गोहनी नाले के दक्षिणी किनारे पर बसा है। मोहल्ले का नाम यहाँ पर स्थित बड़ी माता के मन्दिर पर पड़ा है। जिस स्थान से यह सामग्री मिली है वह मन्दिर के पास ही है। जो भी वस्तुएं मिली हैं उनके अवलोकन से पता चलता है कि ये एक ही बड़े पिंड से काट कर निर्मित की गई हैं। इन सब उपकरणों के बारे में डा० कृष्ण कुमार का कहना है कि सीधी कुल्हाडियों का निर्माण एक पीस से किया गया है, जो पेड़ों को काटने के काम में आती रही होगी। बर्छियां और हार्फून अलग अलग सांचे में ढाल कर बनाए गए हैं। उनके अनुसार उरई से प्राप्त सामग्री २०००० बी०सी० से १३०० बी०सी० के काल की हैं। उन्होंने अपने शोध आलेख में लिखा है This hoard comprising finished and unfinished artifacts together with four copper ingots clearly show that during the protohistoric time a workshop was located at Matapura in Orai. Copper hoards represent the late Rigvedic Aryan culture. इससे यह कहा जा सकता है कि वैदिक काल या उसके अंत तक आर्य लोग यहाँ (जालौन) के उर्वरा मैदान में फैल चुके थे।


आर्य कदाचित गत्वर (घुमक्कड़) लोग थे। यह कल्पना की जा सकती है कि आर्यों का कोई दल यमुना नदी का किनारा पकड़ कर इस तरफ (जालौन जनपद) आ गया। यहाँ का मनमोहक लैंडस्केप, पास ही बड़ी नदी और सुंदर जंगल, चारागाह जो उनके जीवन-यापन के लिए बहुत उपयोगी था को पाकर यहीं पर रुक कर बस गया। यहाँ की उर्वरा धरती ने उनके घुमक्कड़ स्वभाव को बदल दिया। यही वह भू-भाग है जिसको बाद में जालौन के नाम से जाना गया। बुंदेलखंड में आर्य सबसे पहले जालौन के क्षेत्र में बसे थे। दीवान प्रतिपाल सिंह ने अपनी पुस्तक बुंदेलखंड का इतिहास में इस भाग को बुंदेलखंड का स्वीटजरलैंड कहते हुए लिखा कि आर्य सबसे पहले यहीं पर बसे। आज यहीं तक अगली पोस्ट में देखेंगे की आर्य जब यहाँ आये तो उन्होंने यहाँ क्या देखा और पाया। 
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© देवेन्द्र सिंह  (लेखक)

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