Sunday, June 24, 2018

इतिहास की तंग गलियों में जनपद जालौन - 40

देवेन्द्र सिंह जी - लेखक 

17 जून 1857 को जालौन से भागने पर जालौन-ग्वालियर रोड पर पशन्ना और ग्रिफिथ को 53वीं नेटिव इन्फेंट्री की वह टुकड़ी मिली जो जालौन से खजाना लेकर ग्वालियर भेजी गई थी। यह टुकड़ी लौट रही थी मगर अब यह अंग्रेजों से बहुत नाराज थी। इसका कारण यह था कि जब यह टुकड़ी खजाना लेकर जाते समय रास्ते में ही थी तभी यहाँ पर उरई में सैनिकों ने बगावत कर दी थी इस कारण अंग्रेजी सरकार ने सिंधिया सरकार को सूचित किया कि जो टुकड़ी खजाना लेकर ग्वालियर भेजी गई है उससे खजाना ग्वालियर पहुचने के पहले ही रास्ते में अपने सैनिक भेज कर सिंधिया ले लें। इस कारण सिंधिया ने ग्वालियर से अपने सैनिक इन उरई वाली टुकड़ी से धन लेने के लिए भेज दिए। ग्वालियर में पदस्थ अंग्रेज अधिकारी यह भी नहीं चाहते थे कि कानपुर और उरई की किसी सैनिक टुकड़ी की मुलाकात ग्वालियर के सैनिकों से हो। सिंधिया के सैनिकों ने इस टुकड़ी से खजाना लेकर इन को वापस कर दिया। उरई की सैनिक टुकड़ी ने यह समझा कि अब उन पर अंग्रेज सैन्य अधिकारी विश्वास नहीं कर रहे हैं तभी उनसे रास्ते में ही धन ले लिया गया है। इस कारण उनको बहुत क्रोध हुआ और वे भी बगावती हो गए। उनने अपने सैनिक अधिकारी तामकिन्सन से कहा कहा कि अब वे उनकी नजरो से फौरन ही दूर हो जाएँ अब उनका कोई भी हुक्म नहीं माना जायगा। तामकिन्सन इतना डर गया कि रात में ही वह भाग निकला और खेत में जाकर छुप गया। वापस लौटती हुई यह टुकड़ी जब रास्ते में पशन्ना के दल को मिली तो वे खुश हुए कि सुरक्षा मिलेगी। मगर यहाँ तो अब बात उलटी थी। यह दल अब बगावती हो गया था उसने सब अंग्रेजों को कैद कर लिया। इनके पास जो भी धन था सब छीन लिया और कैदी की हालत में इनको लेकर जालौन पहुँचे। जालौन में पहुँच कर इन सैनिकों ने पशन्ना से कहा कि यदि वे दो हजार रुपए नगद दें तो नगदी छोड़ कर बाकी सब सामान लौटा देंगे। पशन्ना ने केशवराव के पुत्र शिवराम तातिया से कहा कि सरकारी कोष से दो हजार रु० देकर उनका सामान वापस दिलवाने की व्यवस्था करें परन्तु शिवराम ने इस पर कोई भी ध्यान नहीं दिया। इतना ही नहीं उसने सैनिकों को चौदह सौ रुपए देकर इन अंग्रेजो के सब सामान और घोड़े खुद ही अपने लिए खरीद लिए।

इधर उरई और कालपी में भी घटनाएं बहुत तेजी से घटी। कालपी के डिप्टी कलेक्टर शिव प्रसाद तो 6 जून से ही ब्राउन से कालपी छोड़ने की आज्ञा मांग रहे थे मगर कालपी जिले का प्रमुख स्थान था इस लिए ब्राउन कालपी पर हर हाल पर अधिकार रखना चाहते थे इस कारण उनको कालपी छोड़ने की आज्ञा नहीं दी गई थी। उरई में 17 जून को सभी अंग्रेजों को मार दिए जाने की सूचना कालपी में शिव प्रसाद को मिली। उरई में एक भी अंग्रेज अधिकारी नहीं रह गया था। उरई से काले खां का क्रान्तिकारी दस्ता किसी भी क्षण कालपी पहुंच सकता था। शिव प्रसाद को अब किसी से कुछ भी पूछना नहीं था। बिना किसी को कुछ बतलाए यमुना पार करके वह भाग गया।

18 जून को विद्रोही सैनिकों ने कालपी पहुँच कर शिव प्रसाद की खोज की परन्तु वह कहीं नहीं मिला। किसी ने शिव प्रसाद को कालपी से जाते हुए नहीं देखा था इससे क्रांतिकारियों ने समझा कि वह कालपी में ही कहीं छुपा होगा। इस कारण उसके बारे में सूचना देने वाले को पांच सौ रु० दिए जाने की घोषणा की गई। शिव प्रसाद कालपी में होते तो मिलते वे तो रात को ही कालपी से निकल लिए थे। विद्रोहियों ने उनके घर का सारा सामान लूट लिया। कालपी के थानेदार बसंतराव की किस्मत खराब थी, उनको भागने का मौका नहीं मिला। विद्रोहियों ने उनको कैद कर लिया और अपने साथ कानपुर ले गए। पता चलता है कि वे किसी प्रकार से बाद में कानपुर से क्रांतिकारियों के चंगुल से भाग निकले थे।

इधर 53वीं नेटिव इन्फेंट्री कंपनी अपने कैदियों पशन्ना, ग्रिफिथ और उनके परिवार के साथ 19 जून को उरई आई। ये अंग्रेज अधिकारी सौभाग्यशाली थे क्योंकि रिसलेदार काले खां का क्रान्तिकारी दल 18 को ही उरई से चला गया था वर्ना इन सबके मारे जाने में कोई सन्देह नहीं था क्योंकि काले खां का नियम था कि किसी भी अंग्रेज को जिन्दा नही छोडना है। 53 नेटिव इन्फेंट्री ने भी इन अंग्रेजों को इनके भाग्य के भरोसे छोड़ा और कानपुर प्रस्थान कर गई। इन अंग्रेजों का साथ देने वाला उरई में कोई नहीं था अत: इन्होंने कदौरा के नवाब या चरखारी के राजा रतन सिंह के पास जाने की सोची। उरई से दक्षिण की राह पकड़ी लेकिन रास्ते में ही गुरसराय के राज के पुत्र शिवराम तातिया के सैनिकों द्वारा पकड़ लिए गए। उरई लाकर इन सबको शिवराम तातिया के आदेश से उरई की संराय में रख कर फर बैठा दिया गया। अगले दिन ग्वालियर कन्टेनजेंट की चार पलटन और 14वीं रेगुलर सवारों का एक दल उरई आया। शिवराम के सैनिकों ने बंदी अंग्रेज अधिकारीयों को इन सैनिकों के सामने पेश किया। सैनिकों का नायक दयालु स्वभाव का था। उसने कहा कि जब इनको कैद करने वाले सैनिकों ने नही मारा, हम लोग ही क्यों मारे। इनको भाग्य के सहारे उरई में छोड़ कर वे सब भी कानपुर प्रस्थान कर गए। पशन्ना और ग्रिफिथ के पास जाने के लिए कोई भी सुरक्षित स्थान नही था, अत वे सब उरई में सराय में ही रुके रहे। लगभग तीन सप्ताह तक ये लोग सराय में ही रुके रहे। 14 जुलाई को क्रान्तिकारी सैनिकों की एक टुकड़ी उरई आई और इसी सराय में रुकी।

14 जुलाई को क्रान्तिकारी सैनिकों की जो टुकड़ी उरई में आकर सराय में रुकी थी। यह सराय उरई में आजकल के गोपालगंज के पास ही थी। अभी भी यह इलाका सराय के नाम से जाना जाता है। बहरहाल, क्रांतिकारी सैनिकों को सुबह 15 तारीख को पशन्ना आदि अंग्रेजों के इसी सराय में रुके होने के बारे में पता चला। इन सैनिकों ने इन अंग्रेजों को मारने का प्रयास किया। सहादत खां और मिया खां नाम के सैनिकों ने पूरा प्रयास कर लिया अंग्रेजों ने दरवाजा अन्दर से बंद कर रखा था इस कारण सफलता नहीं मिली। अब इन लोगों ने आग लगा कर मारने की सोची। अब तक सराय के पास काफी भीड़ लग गई थी। सराय के पास छोटा-मोटा बाजार भी था। इन दुकानदारों को लगा कि आग लगाने से हो सकता है कि वह फैल जाय और उनकी दुकानों को भी आग अपनी लपेट में ले ले क्योंकि दुकानें खपड़ेल की कच्ची ही थीं। इस पर इन दुकानदारों ने आग लगाने का विरोध किया मगर सैनिक आग लगाने को आमादा थे। विरोध करने वालों में गणेश बजाज प्रमुख रूप से आगे था। गणेश ने जब देखा कि इन सैनिकों पर कहने-सुनने का कोई असर नहीं हो रहा है तब उसने सराय के और दुकानदारों को लेकर इन सैनिकों पर पत्थरों की बौछार शुरू कर दी और लाठियां लेकर उन पर पिल पड़े। इससे सैनिकों को सराय से भागने को मजबूर हो गए। इस घटना के कारण एक बार फिर इन अंग्रेजों की जान बच गई और ये सराय में रुके रहे। 17 जुलाई को शिवराम तातिया अपने 300 सैनिकों के साथ कालपी से उरई आया औए इन सब अंग्रेजों को हिरासत में ले लिया। 


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© देवेन्द्र सिंह  (लेखक)
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