Saturday, April 21, 2018

इतिहास की तंग गलियों में जनपद जालौन - 20

देवेन्द्र सिंह जी- लेखक 

14 मार्च, 1760 को पेशवा बालाजी ने अपने चाचा भाऊ को अब्दाली का मुकाबला करने के लिए सेना की कमान सौंप कर पूना से दिल्ली के लिए भेजा। जालौन के गोविन्द को भी कई महत्वपूर्ण जिम्मेदारियां दी गईं। उनमे से प्रमुख थी मराठी सेना के लिए रसद और धन की व्यवस्था तथा बुंदेला राजाओं की सहायता प्राप्त करना। गोविन्द पंत पर बड़ी भारी जिम्मेदारी अचानक ही आ पड़ी थी जिसका निर्वहन उन्होंने बड़ी योग्यता से किया। भाऊ ने सेना का नेतृत्व ग्रहण करते ही 15 मार्च को गोविन्द पंत को लिखा कि वे तुरन्त ही बीस लाख रुपए भेजें। अप्रैल में भाऊ की सेना बुरहानपुर तक आ गई। तब गोविन्द पंत से कहा गया कि तुरन्त ही बाईस लाख रुपए की व्यवस्था करके रखें और तीन लाख तो तुरन्त ही कैम्प में भेजें। यह भी कहा गया कि पन्ना के राजा हिन्दुपत तथा अवध के नवाब शुजौदौल्ला की सहायता भी मराठों को मिले इसका इंतजाम भी करें। अक्टूबर 60 में मराठी सेना का पानीपत पहुंची और वहीं पडाव डाला गया।

गोविन्द पंत को मराठी सेना की रसद की व्यवस्था तो करनी ही थी साथ ही यह भी देखना था कि अब्दाली की सेना को रसद कहीं से न मिले। गोविन्द पंत ने यह कार्य इतनी अच्छी तरह से किया कि अब्दाली ली सेना को रसद प्राप्त करने में भारी कठिनाई हो गई। पुरानी कहावत है कि फ़ौज पेट के बल चलती और लडती है। मतलब कि भूखे रह कर फ़ौज लड़ नहीं सकती। अब्दाली को यह लगने लगा कि कहीं बिना लड़े ही हार न हो जाय। अब्दाली के लिए अब गोविन्द पंत को पहले हराना आवश्यक हो गया। इस कार्य की जिम्मेदारी उसने अपने प्रमुख सेना नायक अताई खां को सौपी। गोविन्द पंत का कैम्प गाजियाबाद के पास जलालाबाद नामक स्थान पर था। अताई खां और करीम खां ने 16 दिसंबर, 1760 की शाम को अचानक गोविन्द पंत के डेरे पर आक्रमण कर दिया। आक्रमण इतना अप्रत्यासित था कि गोविन्द पंत के सैनिक सामना न कर सके तथा भागे। गोविन्द पंत संध्या पूजन कर रहे थे। वो धोती पहने ही घोड़े पर चढ़ कर भागे पर गोली लगने से गिर गए। एक अफगान सैनिक ने तलवार के वार से उनका सर धड से अलग कर दिया। इस प्रकार युद्ध भूमि में जालौन में मराठा राज्य के संस्थापक की मृत्यु हुई। अताई खां अपने भाले की नोक पर गोविन्द पंत के सिर को लेकर अब्दाली के डेरे पर आया और अब्दाली को दिया। बहुत से इतिहासकारों ने इस मार्मिक घटना के बारे में लिखा है।

इतिहासकार हरी राम गुप्ता और यदुनाथ सरकार के अनुसार अब्दाली ने गोविन्द पंत के सिर को एक पत्र के साथ भाऊ के डेरे में भेजा जिसमे कहा गया था कि तुम्हारे गोविन्द पंत तुम्हारे लिए जगह देखने पहले ही स्वर्ग चले गए हैं। तुमको पहचान के लिए सर भेज रहा हूँ यह हैं या नही?” भाऊ को गोविन्द पंत की मृत्यु से बड़ा आघात लगा था। दुःख से व्यथित भाऊ का उत्तर भी पढिए। उन्होंने जवाब भिजवाया वह स्थान (स्वर्ग) तो सभी का है, आप कंधार के बड़े बादशाह हैं आपके वहाँ पहुचने पर आपके पद और मर्यादा के अनकूल ही सम्मान होना चाहिए इसलिए आपकी अगवानी के लिए गोविन्द पहले ही चले गए हैं।”

इतिहासकार केन काईड तथा परासनिस गोविन्द पंत की की मृत्यु की तिथि 22 दिसंबर बतलाते हैं। 1738 से 1760 तक गोविन्द पंत का दबदबा बुंदेलखंड और दोआब में रहा। अपने दो पुत्रों बालाजी और गंगाधर के द्वारा उन्होंने कालपी, जालौन, कड़ा, जहानाबाद आदि जगहों पर मराठों का परचम फहरा कर यहाँ का शासन योग्यतापूर्वक संभाला। मराठा इतिहास में इनको पन्त साहब के नाम से जाना जाता है। बुन्देलखंड में इनको गोविन्द पन्त बुंदेला का नाम मिला। सागर, जालौन और गुरसराय रियासतें इनके द्वारा ही स्थापित की गईं थीं।

जलालाबाद में जब गोविन्द पंत की शहादत हुई उस समय उनके बड़े पुत्र बालाजी गोविन्द दिल्ली मे थे। बहुत सा धन जो गोविन्द पंत ने भाऊ को देने के लिए एकत्रित किया था वह उनके अधिकार में था। पिता की मृत्यु का समाचार जब उनको मिला तब उनको खजाने की चिंता हुई। अत उन्होंने सारा धन पांच सौ घोड़ों में लदवाया प्रत्येक घोड़े पर पांच सौ रुपए की थैली बांधी और पांच सौ सवार सुरक्षा के लिए लेकर 2 जनवरी, 1861 को पानीपत के लिए चले जहाँ भाऊ का कैम्प था। दुर्भाग्य से यह दल अफगानों की अग्रिम पेट्रोल दल के कैम्प के पास पहुंच गई। इनका सारा खजाना लूट लिया गया। लेफ्टिनेंट कर्नल गौतम शर्मा ने अपनी पुस्तक इंडियन आर्मी थ्रू द ऐज में इस घटना का वर्णन करते हुए लिखा कि बालाजी गोविन्द ने बड़ी मुश्किल से भाग कर अपनी जान बचाई। आगे का इतिहास तो सब को मालूम है ही। 14 जनवरी, 1861 को मकर संक्रांति के दिन पानीपत के युद्ध में मराठों की करारी हार हुई। जालौन में जब हम लौटते है तो पाते हैं कि कालपी में जब गोविन्द पंत की पत्नी बाई साहब को पति की मृत्यु का समाचार मिला तब वह वह छोटे पुत्र गंगाधरराव के साथ पानीपत की युद्ध भूमि के लिए चलीं, जिससे पति के साथ सती हो सकें। इटावा के जलेशर नामक स्थान पर उनको पता चला कि उनके पति का दाह संस्कार कर दिया गया है तब उन्होंने वहीं सती होने का निश्चय किया और उमराहाट स्थान पर वे सती हो गईं। मराठों में उस समय सती प्रथा का प्रचलन था। गोविन्द पंत के बड़े पुत्र बालाजी गोविन्द के दिवंगत होने पर उनकी पत्नी लक्ष्मीबाई भी कालपी में सती हुई थी। इतिहासकारों ने उनके कालपी में सती होने की बात कही है। मगर कालपी के पास रायपुर में बहुत से ऐसे चिन्ह मिलते हैं जिससे पता चलता है कि वहां पर भी कोई सती हुई थी। पेशवा माधवराव के मरने पर उनकी पत्नी रमाबाई के भी सती होने का उल्लेख मिलता है। क्षत्रपति शाहूजी के साथ उनकी पत्नी सकवार बाई, लक्ष्मीबाई तथा सुखु पासवाने भी चिता पर चढ़ी थीं।

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© देवेन्द्र सिंह  (लेखक)

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