Saturday, June 23, 2018

इतिहास की तंग गलियों में जनपद जालौन - 39

देवेन्द्र सिंह जी - लेखक 

16 जून को दिन में झाँसी के क्रांतिकारी सैनिकों का मुख्य दस्ता, 14वीं इररेगुलर घुड़सवार दस्ता कानपुर जाने के लिए रिसालेदार काले खां के साथ उरई पहुंचा। पहले ही लिखा जा चुका है कि इस दल का अग्रिम दस्ता तो 15 को उरई आ गया था परन्तु लूटखसोट के अलावा उसने कुछ और नही किया था। काले खां ने जिले में जिन्दा रह रहे अंग्रेजों को पकड़ने का निश्चय किया। काले खां के क्रोध का एक कारण यह भी था कि अग्रिम दस्ता जालौन के डिप्टी कलेक्टर पशन्हा और ग्रिफिथ को कैद नहीं कर सका था। ये दोनों 15 की रात को ही जालौन की तरफ भाग गए थे। डिप्टी कलेक्टर पशन्हा अपने परिवार के सदस्यों जिसमे उनकी पत्नी, बहिन पांच बच्चे तथा दो भतीजे थे के साथ जालौन की तरफ भागे। उनके साथ दूसरे डिप्टी कलेक्टर ग्रिफिथ भी थे। पशन्हा की माँ बीमार थी कम बैलगाड़ियों की व्यवस्था हो पाने के कारण अपने बंगले में रुकी रह गई। रिसालेदार काले खां के द्वारा 17 जून 1857 को उनकी हत्या कर दी गई। यह उल्लेख अधिकांश इतिहासकारों ने किया है लेकिन जब मैंने अपने मित्र डा० राजेन्द्र पुरवार को साथ लेकर उरई के ईसाईयों के कब्रिस्तान में उनकी कब्र को खोज निकला तब देखा की उसमे उनकी मौत की तिथि 16 जून 1857 अंकित है। अत: कह सकते हैं की काले खां ने उरई आते ही 16 को ही उनको मार कर उनके घर को लूटा होगा।

उरई में तैनात सैनिकों के साथ डा० हेमिंग की भी तैनाती थी। उनको भी दोनों डिप्टी कलेक्टरों के भागने की खबर मिली। अत: उन्होंने भी उरई छोड़ने की सोची। 16 जून की रात्रि को स्थानीय लोगों द्वारा पहने जाने वाले कपड़े पहिने, मुंह में रंग लगाया और चुपके से रात के अँधेरे में कचेहरी से सीधे कालपी जाने वाले शार्टकट रास्ते को पकड़ा। पकड़े जाने के भय से डर कर मुख्य सडक छोड़ बीहड़ की पगडंडी से चले। रात भर बीहड़ में चलते रहे रास्ता और दिशा दोनों ही गडबडा गई। सूर्योदय के समय कालपी के पास होना चाहिए था लेकिन रास्ता भटक जाने के कारण उलटे फिर उरई का ही रास्ता पकड़ लिए थे। उन्होंने अपने को उरई कचेहरी की सीमा पर पाया। रात भर पैदल चलने के कारण प्यास से व्याकुल थे, अत: कचेहरी में स्थित कुंए पर आकर प्यास बुझाई। उसी समय कुछ सैनिक भी नहाने धोने के लिए कुंए पर आए। डा० हेमिंग यद्यपि वेष बदले हुए थे मगर 12 इन्फेंट्री के सैनिकों ने उनको पहचान लिया और 17 जून को कुंए पर ही उनका वध कर दिया।

इंग्लिश आफिस में मिस्टर डबल हेड क्लर्क थे। इनके परिवार में इनकी पत्नी, पुत्र था सासु जी श्रीमती पिलिन्गटन भी उरई में ही रहती थीं। डबल साहब को 15 को ही डिप्टी कलेक्टरों के भागने का पता चल गया था। 15 की रात को यह परिवार भी उरई से भागा और कुछ कोस का सफर तय करके खरका-कुइया के बीहड़ में छिप गया। 16 जून का पूरा दिन इन लोगों ने छिप कर बिताया क्योंकि दिन में सफर करने पर पकड़े जाने का भय था। 16 की रात्रि को हमीरपुर जिले में जाने के लिए इन लोगों ने यात्रा शुरू की। अनजाना रास्ता रात में बीहड़ का सफर। रात भर बीहड़ में चलते रहे लेकिन सुबह एर गाँव के पास ही अपने को पाया। 17 की सुबह थी, दिन को यात्रा की नही जा सकती थी अत: फिर बीहड़ में छिपे रहे लेकिन मौत तो साथ-साथ चल रही थी। एर गाँव के सुबराती, खैराती और पल्टू किसी कार्य से बीहड़ की तरफ आए। इन लोगों की निगाह छिपे हुए अंग्रेजों पर पड़ी। तीनो ने इन अंग्रेजों को पकड़ने का निश्चय किया परन्तु मि० डबल की बंदूक से डर लग रहा था। इसके बाद भी तीनो ने हिम्मत नहीं हारी और युक्तिपूर्वक सबको बंधक बना लिया। तीनो देशप्रेमी डबल और उनके परिवार को उरई लाकर क्रांतिकारियों को सौप दिया। यह 17 जून की तारीख थी, क्रांतिकारियों ने इन सबको मौत के घाट उतार दिया। इस घटना में एक बात तो रह गई आपको बतलाने से। मि० डबल का पांच वर्ष का पुत्र जीवित बच गया था। वह बीहड़ में ही कहीं छुपा रह गया था जो गाँव की एक औरत को जब वह बीहड़ में लकड़ी इकठ्ठा करने गई मिला। कहा नहीं जा सकता कि दयावश ममता के कारण या इनाम के लालच में वह बच्चे को अपने घर ले आई। इसके बाद किसी जुगाड़ से उसने यह बच्चा झाँसी में एक अंग्रेज महिला मुट्लो के पास पहुँचा दिया। यह अंग्रेज महिला मुट्लो वही महिला है जो झाँसी में 8 जून को झोकनबाग़ में हुए हत्याकांड में बच गई थी और झाँसी में ही कहीं छिपी हुई थी। मुट्लो ने बाद में इस बच्चे को किसी प्रकार दतिया भेज दिया, वहाँ यह दतिया राज के संरक्षण में रहा। मार्च 1858 में जब रोज़ फ़ौज के साथ झाँसी आया तब दतिया के राजा ने इस बच्चे को रोज़ को सौपा। वहाँ से फिर इसको अपने रिश्तेदारों के पास मुंगेर भेजा गया। आइए फिर पीछे लौटे।

17 जून 1857 का वह दिन है जब उरई में एक भी अंग्रेज जिन्दा नहीं बचा था। 15 जून को जो दो अंग्रेज डिप्टी कलेक्टर अपने परिवार के साथ उरई से भागे थे उन पर क्या गुजरी वह भी जान लें। 15 जून 1857 की रात को डिप्टी कलेक्टर पशन्ना और ग्रिफिथ परिवार सहित उरई से भाग कर कुशलतापूर्वक जालौन पहुचे। जालौन में गुरसरायं के राजा केशवराव और उनके पुत्रों ने डिप्टी कमिश्नर ब्राउन के जालौन से जाते ही कब्जा कर लिया था यह सब विवरण पिछली पोस्ट में लिखा जा चुका है। जालौन में इन अंग्रेजों को खतरे का आभास हुआ अत: इन लोगों ने ग्वालियर का रास्ता पकड़ा लेकिन दुर्भाग्य इनके भी साथ था। 17 जून को जालौन-ग्वालियर रोड पर पशन्ना और ग्रिफिथ को 53वी नेटिव इन्फेंट्री की वह टुकड़ी लौटती हुई मिली जो उरई से खजाना लेकर ग्वालियर गई थी। यह टुकड़ी जब उरई से ग्वालियर के लिए चली थी तब इनके मन में अंग्रेजों के प्रति कोई दुर्भावना नही थी क्योंकि तब तक क्रांति का उद्घोष यहाँ नही हुआ था। लेकिन अब इनके मन में अंग्रेजों के प्रति आक्रोश था वह क्यों यह जानिए, अगली पोस्ट में। 

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© देवेन्द्र सिंह  (लेखक)
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