स्वतन्त्रता
प्राप्ति के लिए हुई क्रान्तियों अथवा संघर्षों में भारत का प्रथम स्वाधीनता
संग्राम-1857 का विशेष
महत्व है। यह अपनी शैली और अंग्रेजी साम्राज्य को हिला देने के कारण अनूठा माना
जाता है। इस स्वाधीनता संघर्ष में मात्र सैनिकों ने ही भागीदारी नहीं कि अपितु देश
के समूचे वर्गों ने अपनी सामर्थ्य लगाकर इस संघर्ष को अमर कर दिया। बड़े-बड़े
राजा-महाराजाओं के साथ-साथ छोटी-छोटी रियासतों ने भी भाग लिया। सामन्त, पूंजीपति वर्ग के लोगों की हिस्सेदारी
रही तो मजदूर, किसान भी पीछे
नहीं रहे।
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सन् 1857 की क्रान्ति में सभी अपनी क्षमता से
अधिक आहुति देने की तत्परता दिखा रहे थे। उत्तर प्रदेश का जनपद जालौन भी किसी
दृष्टि से इस संघर्ष में पीछे नहीं रहा। छोटे-छोटे संघर्षों के अतिरिक्त सन् 1857 में जनपद जालौन क्रान्तिकारियों की
कर्मभूमि बन कर उभरा, यहां
तक कि क्रान्ति की समस्त गतिविधियां बुन्देलखण्ड में अलग-अलग संचालित न होकर एकजुट
रूप में कालपी से संचालित होने लगीं। नाना साहब, तात्या तोपे, रानी
लक्ष्मीबाई, कुंवर साहब आदि
की रणनीति यहीं पर बनती और क्रियान्वित होने लगती। इन सबसे अलग जनपद जालौन का नाम
इस बिन्दु पर आकर ज्यादा आभासित प्रतीत होता है कि इन सभी प्रसिद्ध नामों से बहुत
पूर्व जनपद की पहली महिला क्रान्तिकारी ताई बाई ने इस आन्दोलन में सक्रियता दिखा
कर क्षेत्र के क्रान्तिकारियों के मध्य एक अलख जगा दी थी। यह जनपद जालौन का
दुर्भाग्य ही कहा जायेगा कि इस क्षेत्र के ऐतिहासिक महत्व की ओर इतिहासकारों की ओर
से ध्यान नहीं दिया गया। यह और बात है कि कुछ साहित्यकारों और संस्कृतिप्रेमियों
के द्वारा समय-समय पर इस क्षेत्र की महत्ता को सामने लाया जाता रहा है।
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जनपद जालौन के
इतिहास में ताई बाई की स्मृति को मिटाने का कार्य तत्कालीन अंग्रेज अधिकारियों
द्वारा ही शुरू कर दिया गया था। ताई बाई के द्वारा लगातार सात माह तक क्रान्तिकारी
सरकार के रूप में कार्य किया गया। यह दुस्साहस अंग्रेजों को नागवार गुजरा, इसी कारण से ताई बाई से सम्बन्धित समस्त
दस्तावेज, वस्तुओं यहां
तक कि जालौन स्थित उनके किले को सन् 1860 में
जमींदोज करवा दिया। अंग्रेजी सरकार की इस कायरतापूर्ण कार्यवाही के बाद भी इस वीर
महिला की वीरता का वर्णन करते हुए तत्कालीन झांसी डिवीजन के एक अंग्रेज अधिकारी जे0 डब्ल्यू0 पिंकने ने लिखा भी था कि वर्ष 1858 के प्रारम्भ होते-होते दबोह और कछवाघार
के कुछ भागों को छोड़ कर पूरा जालौन जिला ताई बाई के अधिकार में आ गया था।
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उत्तर प्रदेश
का जनपद जालौन सन् 1857 के
समय आज की स्थिति में नहीं था। सन् 1838 में
जालौन पर अंग्रेजों का अस्थाई अधिकार हो गया था। जालौन के राजा की मृत्यु पश्चात
यहां उत्तराधिकार की समस्या सामने आई। राजा की पत्नी ने एक बालक गोद लेकर राज्य
करने का विचार किया मगर उसकी अनुभवहीनता और आपसी झगड़ों में यहां की स्थिति बिगड़ गई।
तब स्वर्गीय राजा बालाराव की पत्नी लक्ष्मीबाई ने अंग्रेजों से जालौन की रियासत को
संभालने का आग्रह किया। तत्पश्चात सन् 1838 में
यहां प्रशासक नियुक्त कर दिया गया। इसी दौरान सन् 1840 में गोद लिए बालक गोविन्दराव की मृत्यु हो गई। इस बार
अंग्रेजों ने रानी को पुनः किसी को गोद लेने की अनुमति नहीं दी और जालौन रियासत को
अंग्रेजी राज्य में मिला लिया। इसी वर्ष अंग्रेजों ने जालौन को जिले के रूप में
मान्यता प्रदान की। इसके बाद तमाम सारी कार्यवाहियों और गतिविधियों के बाद
अंग्रेजों ने सन् 1853 को
कालपी तथा कोंच को भी जनपद जालौन में शामिल कर लिया।
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जनपद जालौन की
पहली महिला क्रान्तिकारी ताई बाई जालौन रियासत के स्वर्गीय राजा बालारव की बहिन
थीं। ताई बाई का विवाह सागर के नारायण राव से हुआ था परन्तु विवाहोपरान्त ताई बाई
अपने पति सहित जालौन के किले में ही निवास करने लगीं। राजा बालाराव की मृत्यु
पश्चात उनकी पत्नी रानी लक्ष्मीबाई के द्वारा शासन का संचालन उचित रूप से नहीं हो
पा रहा था, इधर
परिस्थितियों के विषम होने के कारण जालौन को अंग्रेजों ने अपने अधिकार में भी ले
लिया था। ताई बाई अपने पूर्वजों का ऐसा अपमान नहीं देख पा रहीं थीं। अंग्रेजों से
बदला लेने के लिए उनके भीतर स्वाधीनता क्रान्ति का अंकुर फूटने लगा इसी कारण
उन्होंने गुपचुप तरीके से अपनी योजना को क्रियान्वित करने का विचार बनाया।
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कानपुर में
क्रान्ति की शुरूआत होने की सूचना 6 जून 1857 को उरई पहुंची। इसके पश्चात यहां भी
क्रान्तिकारियों ने कार्यवाही प्रारम्भ कर दी। क्रान्ति का आरम्भ होते ही जालौन के
डिप्टी कमिश्नर कैप्टन ब्राउन ने भागने में ही अपनी भलाई समझी। कैप्टन ने भागते
समय गुरसराय के राजा केशवदास को पत्र लिख कर जालौन में शांति स्थापित करने में
सरकारी अधिकारियों की सहायता करने को कहा। राजा केशवदास मौकापरस्त व्यक्ति था, उसने अपने पूरे कार्यकाल में उसी का साथ
दिया जिसका पलड़ा भारी होता था। इससे पूर्व वह अंग्रेजों की दया पर ही गुरसराय पर
अपना राज्य चला पा रहा था। कैप्टन के पत्र के बाद केशवदास ने जालौन में ताई बाई
तथा अन्य क्रान्तिकारियों के तेवर देखे तो उसने ताई बाई का साथ देने में ही अपनी
बधाई समझी। कैप्टन के पत्र की भाषा में फेरबदल करके उसे सरकार चलाने के
अधिकार-पत्र के रूप में परिवर्तित कर लिया। केशवदास ने अपने दोनों पुत्रों के साथ
जालौन आकर अन्य सरकारी अधिकारियों को भगा कर किले पर अधिकार कर लिया। केशवदास के
इस कृत्य को ताई बाई आदि ने क्रान्तिकारियों का सहयोग समझकर धन-बल से उसकी सहायता
की। इधर ताई बाई अन्य क्रान्तिकारी गतिविधियों का संचालन करने लगीं और राजा
केशवदास पर विश्वास कर बैठीं।
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केशवदास की कुछ
गतिविधियों से लगता कि वे क्रान्तिकारियों के पक्ष में हैं तो कभी लगता कि वे
अंग्रेजों के पक्ष में हैं। इस बारे में एक घटना को प्रमुखता से देखा जाता है।
जालौन में क्रान्ति के पश्चात दो अंग्रेजी डिप्टी कलेक्टर पशन्हा और ग्रिफिथ को
बन्दी बना लिया गया था। जब तक कानुपर में नाना साहब, तात्या तोपे क्रान्तिकारी के रूप में और जालौन में ताई बाई
की सक्रियता रही तब तक केशवदास ने इन अंग्रेज अधिकारियों को बन्दी बनाये रखा।
अंग्रेज नाराज न हो जायें इस कारण से केशवदास ने उन्हें मारा भी नहीं और फिर
कानपुर में क्रान्तिकारियों की पराजय के साथ ही केशवदास ने दोनों अंग्रेज
अधिकारियों को परिवार सहित सकुशल कानपुर पहुंचा दिया।
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इस घटना के बाद
से ताई बाई को विश्वास हो गया कि केशवदास अंग्रेजों के लिए कुछ भी कर सकता है। इधर
पराजित क्रान्तिकारी कानपुर से भागकर कालपी आ गये। तात्या तोपे भी अक्टूबर 1857 को ग्वालियर के विद्रोही सैनिकों के
साथ जालौन आ पहुंचे। ताई बाई ने तात्या तोपे के साथ मिलकर केशवदास को वापस गुरसराय
जाने पर विवश कर दिया। इस घटना के बाद तात्या ने ताई बाई के पांच वर्षीय पुत्र
गोविन्द राव को जालौन की गद्दी पर बिठा कर ताई बाई को संरक्षिका घोषित कर दिया। इस
कार्यवाही से जालौन में क्रान्तिकारियों की सरकार का गठन हो गया और पेशवाई राज्य
की स्थापना हुई। ताई बाई ने इसके बाद भी अपनी गतिविधियों को विराम नहीं लगने दिया।
क्रान्तिकारी गतिविधियों के आगे के संचालन हेतु ताई बाई ने तात्या तोपे को तीन लाख
रुपये की सहायता प्रदान की।
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क्रान्तिकारियों
की सरकार बन चुकी थी और ताई बाई ने सफल संचालन के लिए प्रधानमंत्री तथा अन्य
अधिकारियों की नियुक्ति की। ताई बाई ने अद्भुत क्षमता से अत्यल्प समय में एक बड़ी
सेना का गठन करके उसे तात्या तोपे के साथ कानपुर पर अधिकार करने के लिए भेज दिया।
कई हमलों में विजय भी प्राप्त हुई परन्तु पूर्ण अधिकार प्राप्त न हो सका। अन्ततः
दिसम्बर में एक युद्ध में इस सेना की भयानक पराजय हुई। यह सेना हताश मन से वापस
लौट आई। ताई बाई यह भली-भांति समझती थी कि यदि इस समय हिम्मत हारी तो क्रान्तिकारियों
में जोश पैदा करना मुश्किल हो जायेगा। इस कारण से ताई बाई ने अपने व्यक्तिगत
जेवरों और कीमती वस्तुओं को बेचकर प्राप्त धन से सेना का पुनः गठन किया।
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जालौन में
क्रान्तिकारियों का स्वतन्त्र राज्य पहले से ही स्थापित था, ताई बाई ने सहयोग के लिए चरखारी नरेश से
सहायता मांगी। अंग्रेजों के हितैषी चरखारी नरेश ने सहायता देने से मना किया तो ताई
बाई ने तात्या तोपे के नेतृत्व में अपनी सेना के द्वारा चरखारी पर विजय प्राप्त
की। अपनी समूची सेना के खर्चों, युद्ध
खर्चों, वेतन आदि का
भार ताई बाई स्वयं ही उठाती रहीं। अपनी सूझबूझ और कुशल नेतृत्व क्षमता के कारण ताई
बाई ने सम्पूर्ण जनपद में अंग्रेजों का नामोनिशान भी न रहने दिया।
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ताई बाई की
बढ़ती शक्ति से अंग्रेज भी परेशान थे। एक ओर क्रान्तिकारी घटनाएं हो रही थीं और
रानी लक्ष्मीबाई, नाना साहब आदि
की गतिविधियों के साथ-साथ ताई बाई का शासन अंग्रेजों को रास नहीं आ रहा था। इस समय
तक कालपी क्रान्तिकारी घटनाओं के संचालन का केन्द्र बन चुका था। मई 1858 में कोंच के युद्ध में क्रान्तिकारियों
की पराजय से अंग्रेजों को जनपद में पुनः घुसने का मौका मिला। कोंच में अंग्रेजों
की विजय उनकी कूटनीति के कारण नहीं अपितु सैनिकों की अनुशासनहीनता के कारण हुई। इस
पराजय के बाद तात्या तोपे वापस आने के स्थान पर ग्वालियर चले गये। इधर ताई बाई
असमंजस में थी और अंग्रेज भी जालौन के स्थान पर कालपी किले पर कब्जा करना चाह रहे
थे। इसका कारण एक तो वे क्रान्तिकारियों की शक्ति को सीधे तौर पर कम करना चाहते थे
और दूसरी ओर ताई बाई के साथ संघर्ष में अंग्रेज अपनी शक्ति को कम नहीं करना चाहते
थे।
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कोंच में
विध्वंस करने के बाद अंग्रेजों ने सीधे कालपी की ओर रुख नहीं किया और न ही सीधे
तौर पर ताई बाई से युद्ध किया। अंग्रेजों ने नई कूटनीति का इस्तेमाल करते हुए ताई
बाई के सहयोगियों को मिटाना शुरू कर दिया। इसके लिए उन्होंने युद्ध का नहीं वरन्
नरसंहार का सहारा लिया। सबसे पहले हरदोई के जमींदार अंग्रेजी सेना के कोपभाजन बने।
भयंकर लूटपाट और नरसंहार किया, एक
दर्जन से अधिक क्रान्तिकारियों को खुलेआम पेड़ से लटका कर फांसी की सजा दे दी गई।
अंग्रेजों का नरसंहार जारी रहा, अब वे
ताई बाई से सीधे न टकराकर जनता को निशाना बना रहे थे। ताई बाई ने नरसंहार को रोकने
का उपाय भी किया किन्तु अंग्रेज सीधे-सीधे युद्ध भी नहीं कर रहे थे इस कारण ताई
बाई के समक्ष दिक्कत भी आ रही थी।
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अन्ततः ताई बाई
ने नरसंहार रोकने के लिए मई 1858 को
अपने पति और पुत्र के साथ आत्मसमर्पण कर दिया।
अंग्रेजों ने ताई बाई की जालौन की समस्त सम्पत्ति जब्त कर ली। राजद्रोह और
विद्रोह का आरोप लगाकर उन्हें तथा उनके सहयोगियों को आजीवन कारावास की सजा सुना
दी। ताई बाई की लोकप्रियता और शक्ति से घबराकर अंग्रेजों ने उन्हें बंदी जीवन
बिताने के लिए जालौन से बहुत दूर मुंगेर-बिहार- भेज दिया गया। यहीं पर कैदी जीवन
बिताते हुए उनकी मृत्यु सन् 1870 में
हो गई। ताई बाई की मृत्यु के बाद भी अंग्रेज उनकी लोकप्रियता और शक्ति से घबराते
रहे। इसका प्रमाण इस बात से मिलता है कि उनकी मृत्यु के बाद उनके कैदी बेटे को
पढ़ने के लिए तो इलाहाबाद भेज दिया गया किन्तु उनके बंदी पति को जालौन में रहने की
आज्ञा नहीं दी गई।
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वर्तमान में
ताई बाई को अंग्रेजी कोप के कारण कोई जानता भी नहीं है। एक छोटे से स्थान पर
उन्होंने अपनी कार्यक्षमता और कुशल सैन्य संचालन से अक्टूबर 57 से मई 58 तक स्वतन्त्र सरकार की स्थापना कर उसका संचालन किया। जनपद
जालौन की इस क्रान्तिकारी महिला को लोग इस कारण से भी नहीं पहचानते हैं कि
अंग्रेजों ने यथासम्भव जालौन से ताई बाई से सम्बन्धित सभी वस्तुओं, दस्तावेजों आदि को समूल नष्ट कर दिया
था। इसके बाद भी उनकी छवि, लोकप्रियता
भले ही रानी लक्ष्मीबाई जैसी न रही हो किन्तु जनपद जालौन के निवासियों के
मन-मष्तिष्क में ताई बाई की छवि आज भी बसी हुई है। अंग्रेजों द्वारा लिखे गये
क्रान्तिकारियों के भ्रामक इतिहास को पुनः लिखने और सामने लाने की आवश्यकता है, कुछ इसी तरह की पहल की आवश्यकता ताई बाई
के गौरवशाली इतिहास को सामने लाने की है। जनपद जालौन की पहली महिला क्रान्तिकारी
ताई बाई को इन्हीं समवेत प्रयासों के माध्यम से ही देशवासियों के सामने लाया जा
सकता है, तभी हम सभी
अन्य वीर-वीरांगनाओं की तरह ही ताई बाई को भी याद रख सकेंगे।
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