Wednesday, November 7, 2012

चिन्तनपरक बुन्देली काव्यात्मक कहावतें

                 लोक संस्कृति अपने आपमें बहुत कुछ समाहित किये रहती है। लोक के साथ जुड़े आम जनमानस को अपनी बोली और भाषा में मुहावरों, कहावतों आदि का प्रयोग करते देखा जाता है। देखने में आया है कि लोक संस्कृति के माध्यम से लगभग सभी पक्षों पर विचार तो किया जा सका है किन्तु मुहावरों और कहावतों आदि को अपने अध्ययन का विषय कम से कम बनाया गया है। देखा जाये तो ग्रामीण अंचलों में आज भी जनमानस को अपनी बातचीत में कहावतों और मुहावरों का प्रयोग करते देखा जा सकता है। इन कहावतों का कोई निश्चित साहित्य नहीं है और न ही इसके रचयिता का पता है। ये कहावतें  वाचिक परम्परा के द्वारा एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तांतरित होती रहती हैं। ये सामाजिक जगत के तत्वज्ञान के रूप में भी हमारे बीच उपस्थित रहती हैं। कहावतों का मधुरतम रूप, उनका सरस होना, उनका चुटीलापन, उनकी काव्यात्मकता आदि-आदि ऐसा होता है कि मानस के मन-मष्तिष्क में एक बार स्थापित होने के बाद हटती नहीं हैं। 
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                बुन्देलखण्ड सदैव से ही प्रत्येक क्षेत्र में समृद्ध रहा है। यहां शौर्य की परम्परा रही है तो लोक का भी समृद्ध पक्ष यहां दिखाई देता है। यहां भी कहावतों का रूप वाचिक परम्परा के रूप में समाज में प्रचलन में हैं। इस क्षेत्र में कहावतों का काव्यतात्मक रूप देखने में आता है। इन कहावतों में लोकनीतियां हैं तो व्यावहारिक ज्ञान भी है। इनमें स्वास्थ्य सम्बन्धी ज्ञान दिखता है तो लोक दर्शन के साथ-साथ कृषि के बारे में भी भरपूर ज्ञान मिलता है। इसके अलावा इतिहास का समेटे हुए तथा लोक विश्वास को समेटे हुए कहावतों के दर्शन हो जाते हैं। इन काव्यात्मक कहावतों में भले ही साहित्यगत शास्त्रीयता देखने को नहीं मिलती हो किन्तु इनकी लयात्मकता और काव्यात्मकता देखते ही बनती है।
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वैसे भी इनके जन्म के बारे में इस बात को प्रामाणिकता से कहा जा सकता है कि ये किसी न किसी घटना पर आधारित रहती हैं। घटनाओं के आधार पर जो जैसा देखा गया, सुना गया उसे कहावतों के रूप में समाज में स्थापित कर दिया गया। इस सम्बन्ध में एक उदाहरण दृष्टव्य हो सकता है। एक व्यक्ति का नाम ठनठन गोपाल था और उसे अपना यह नाम बिलकुल भी अच्छा नहीं लगता था। एक दिन वह इसी बात से नाराज होकर घर से भाग निकला। गांव से बाहर उसे लगातार कई लोग मिलते रहे जिनके नामों के कारण से उस व्यक्ति ने अपना नाम बदलने का इरादा बदल दिया और वापस घर लौट आया। इस सम्बन्ध में आज भी जो काव्यात्मक कहावत चलन में है उसे निम्न रूप में देखा जा सकता है-
                                कंडा बीने लक्ष्मी,
                                हर जोतें धनपाल,
                                अमर हते ते मर गये,
                                जासे अच्छे हम ठनठन गोपाल।
                इसी तरह से तुलसी की रामायण के बारे में ग्रामीण अंचलों में एक कहावत आम जनमानस के जुबान पर हमेशा ही बनी रहती है-
                                इक हते राम, इक हते रावन्ना,
                                जे हते ठाकुर, वे हते बामन्ना।
                                उनने उनकी नार हरी,
                                उनने उनकी नाश करी।
                                बात बात को बातन्ना,
                                तुलसी बाबा को पोथन्ना।
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                लोक जगत में कुछ विश्वासपरक स्थितियां हमेशा से अपना स्थान बनाये रही हैं। इन विश्वासों के पीछे कोई ठोस आधार भले ही न रहा हो किन्तु समाज में लगातार आये चलन के बाद इन कहावतों को लोक विश्वास प्राप्त हो गया है। इसी विश्वास के अनुसार ही ये कहावतें आज जनमानस में अपनी पैठ बनाये हुए हैं। इस प्रकार की कहावतों के पीछे लोगों द्वारा देखे और महसूस किये गये अनुभवों का आधार होता है। इसे कुछ उदाहरणों के द्वारा समझना आसान हो सकेगा।
                                कलसा पानी को तचै, चिरैया नहाये धूर,
                                चिटिया लै अण्डा चलैं, तौ बरसे भरपूर।
अर्थात् यदि कलश या घड़े का पानी गरम होने लगे, चिड़ियों को धूल में लोट लगाते देखा जाने लगे, चीटियां अपने अंडों को लेकर निकलती किसी सुरक्षित स्थान की ओर जाते दिखाई दें तो समझना चाहिए कि अब तेज बरसात होने वाली है।
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                कई बार लोक विश्वास की कहावतों के पीछे एक प्रकार की सलाह भी देने का कार्य किया जाता रहा है। इसके पीछे अवधारणा यही रही होगी कि लोक की अपनी मर्यादा का, अपनी शालीनता को कहावतो के माध्यम से समाज के सामने प्रदर्शित करके लोगों को आसानी से समझाया जा सकता है। इसका एक उदाहरण इस प्रकार से देखा जा सकता है-
                                सास बहू की एकई सोर,
                                लक्ष्मी निकर गई पक्खा फोर।
इसको इस तरह से समझा जा सकता है कि यदि घर में सास और बहू एक साथ गर्भवती होती हैं अथवा एक साथ बच्चे को जन्म देती हैं तो उस घर से लक्ष्मी अर्थात् सम्पन्नता चली जाती है। देखा जाये तो इस कहावत के पीछे सत्यता भले ही न हो किन्तु एक प्रकार की सामाजिकता का संदेश अवश्य ही देती है। इसके माध्यम से समझाया गया है कि बहू के आने के बाद सास को संयमित जीवन-शैली अपनानी चाहिए और संतानोत्पत्ति से बचना चाहिए। इसी को लोक मर्यादा से सम्बद्ध कर इस कहावत को लोक विश्वास प्राप्त हुआ है।
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                लोक विश्वास के ठीक उलट लोक व्यवहार में ऐसी कहावतों को स्थान मिला है जो व्यक्तियों के व्यावहारिक अनुभव के बाद ही सामने आईं हैं। इस प्रकार की कहावतों में जगत के व्यवहार को आसानी से देखा और समझा जा सकता है।
                                फारस गये फारसी पढ़ आये, बोले पी की बानी,
                                आब आब कह मर गये, खटिया तरै धरो रओ पानी।
इस कहावत के माध्यम से व्यक्ति को अपने परिवेश और वातावरण के अनुरूप ही कार्य करने की सीख मिलती है। कहावत के अनुसार एक व्यक्ति फारसी पढ़ कर लौटा तो अपने स्थान पर भी सभी के सामने फारसी बोल कर अपना ज्ञान बघारता रहता था जबकि उस भाषा को वहां कोई भी नहीं समझता था। एक बार बीमार होने पर वह पानी की जगह पर आब-आब चिल्लाता रहा और उसकी इस भाषा को कोई समझ नहीं सका। परिणामस्वरूप वह प्यासा ही मर गया जबकि पानी उसकी खटिया के नीचे ही रखा था।
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                इसी तरह कार्य करते रहने की और निष्क्रिय न रहने की सीख देती कहावत जिसमें बताया गया है कि कार्य करते रहने की आवश्यकता है तभी सुफल है। इस बात को प्रमाणित करते हुए बताया है कि क्या बिल्ली के घर में भैंस बँधी है जो वह नित्य ही दूध मलाई खाती है।
                                चलिए, फिरिये, उद्यम करिये, बैठि न रहिये भाई,
                                बिल्ली के का भैंस बँधी जो खावै दूध मलाई।
                एक अन्य कहावत में लोक व्यवहार का भली प्रकार से चित्रण करके व्यक्तियों की मनोदशा को आसानी से व्यक्त किया गया है। इसके अनुसार-
                                ज्ञानी से ज्ञानी मिलैं, करैं ज्ञान की बातें,
                                गदहे से गदहा मिलैं, होवै लातई लातें।
इसको स्पष्ट रूप से समझा जा सकता है कि जब विचारवान व्यक्ति आपस में मिलते हैं तो उनके मध्य विचारों का, ज्ञान का ही आदान-प्रदान होता है जबकि मूरखों के आपस में मिलने पर उनके मध्य लड़ाई, झगड़ा ही होने की आशंका बनी रहती है।
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                लोक नीति सम्बन्धी कहावतों ने लोकजीवन को एक प्रकार की नीति प्रदान करने का कार्य किया है। इन कहावतों में स्पष्ट रूप से भले ही निर्देशित न किया गया हो किन्तु समाज में रहन-सहन का एक आवश्यक तरीका दर्शाने का प्रयास अवश्य ही किया गया है।
                                अतिशय कोप, कटु वचन, दारिद नीच मिलान,
                                रहै बैर सुजान संग, जै सब नरक निसान।
इसका तात्पर्य है कि यदि व्यक्ति को अत्यधिक क्रोध आता है, कड़वे बोल बोलता है, जो बुरे व्यक्तियों की संगत करता है और अच्छे व्यक्तियों से बुराई रखता है उस व्यक्ति के साथ सदैव बुरा होने के लक्षण स्पष्ट रूप से दिखाई देते हैं।
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                इसी तरह से व्यक्ति के चारित्रिक लक्षणों के आधार पर लोकनीति में कहावतों का चलन सदैव से रहा है। इस प्रकार की एक कहावत दृष्टव्य है-
                                छिनरा, चोर जुआरी,
                                इनसे गंगा हारी।
अर्थात् व्याभिचारी से, चोर और जुआ खेलने वाले अर्थात् गलत कार्य करने वाले को किसी भी रूप में सुधारा नहीं जा सकता है। इसका तात्पर्य है कि इनसे सदैव बचकर ही रहना चाहिए।
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                बुन्देलखण्ड में प्रचलन में आई कहावतों में लाकनीति, लोकव्यवहार आदि को ही आधार नहीं बनाया गया है बल्कि इनके माध्यम से व्यक्तियों के स्वास्थ्य को भी ध्यान में रखा गया है। स्वास्थ्य को प्रमुखता से व्यक्तियों के जीवन की अमूल्य धरोहर के रूप में स्वीकारा जाता है और इसी कारण से ग्रामीण अंचलों से निकल कर आई कहावतों में स्वास्थ्य परम्परा का निर्वहन होते आसानी से दिखता है। नित्यप्रति के आवश्यक कार्यों को करने की सीख और गलत कामों को न करने की सलाह देती एक कहावत-
                                आँख में अंजन, दाँत में मंजन,
                                नित कर, नित कर, नित कर।
                                नाक में उँगली, कान में लकड़ी,
                                मत कर, मत कर, मत कर।
इस कहावत के माध्यम से समझाने का प्रयास किया गया है कि आँखों में नित्य काजल लगाना चाहिए और दाँतों में रोज मंजन करना चाहिए। इसी तरह से नाक में उँगली तथा कान में लकड़ी नहीं डालनी चाहिए।
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                इसी तरह से इस क्षेत्र में खान-पान सम्बन्धी कहावतों की अतिशयता है। प्रत्येक मास के आधार पर आहार-विहार का भी ध्यान रखा गया है। इसको कुछ कहावतों के द्वारा संक्षेप में देखा जा सकता है।
                                क्वाँर करेला, कातिक दही,
                                मरहौ न तौ परहौ सही।
अर्थात् क्वार माह में करेला और कार्तिक माह में दही का सेवन करने से बचना चाहिए। यदि ऐसा नहीं किया जाता है तो भले ही इनको खाने वाला व्यक्ति मरे न पर बीमार अवश्य ही पड़ जाता है।
                स्वस्थ शरीर के लिए एक और कहावत कुछ इस तरह से कही गई है-
                                रोटी को आधी करौ, सब्जी को करौ दुगुना,
                                पानी का तिगुना करौ, करौ हँसी को चौगुना।
अर्थात् स्वस्थ रहने के लिए आवश्यक है कि अपने भोजन में रोटी की मात्रा को भूख से आधी और सब्जी की मात्रा को दोगुना करना चहिए। इसी तरह से पानी को तीन गुना अर्थात् अधिक मात्रा में पीना चाहिए, इसके अतिरिक्त हँसी को चौगुना अर्थात् सबसे अधिक लेना चाहिए।
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                लोक परम्पराओं में स्थापित इन स्वास्थ्य सम्बन्धी कहावतों में खान-पान के साथ व्यक्ति के आचार-विचार और रहन-सहन को भी ध्यान में रखा गया है। इसी कारण से भोजन के साथ-साथ टहलने और कार्य करने को भी महत्व दिया गया है। इन कहावतों के आधार पर कहा भी गया है कि
                                दोउ बेरा जौ घूमै, तीन बेर जो खाय,
                                बनौ निरोगी वो रहै, रोज सबेरे नहाय।
                बुन्देली भाषा, बोली में आंचलिकता को आधार बनाकर एक कहावत कुछ इस तरह से कही जाती है-
                                ससुरार सुख की सार, जो रहै दिना दो चार,
                                जो रहै दिना दस बारा, तौ हाथन खुरपी, बगल में चारा।
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                इस तरह की आंचलिकता को, भाषा वैशिष्ट्य को समेटे बुन्देलखण्ड क्षेत्र में कहावतों का मधुरतम संसार बना रहा है। कहावतों की काव्यात्मकता के कारण ये कहावतें आसानी से आम जनमानस को याद बनी रहती हैं। बुन्देलखण्ड की सांस्कृतिक विरासत सदैव से ही समृद्ध रही है और ये कहावतें इस बात को और भी प्रामाणिकता से सिद्ध करती हैं। जनमानस के मध्य रची-बसी इन कहावतों का आज मनोरंजन के लिए नहीं अपितु शोध और अध्ययन की दृष्टि से अनुशीलन करके इनका सामाजिक तथा सांस्कृति महत्व, लोक-साहित्यिक महत्व, लोक-सांस्कृतिक महत्ता समाज को, आधुनिकता के वशीभूत संस्कृति को विस्मृत करने वाली पीढ़ी को समझाने की आवश्यकता है। इन कहावतों से हमें हमारे लोकजगत के वैभव का ज्ञान भी होता है और इस वैभव को और भी अधिक समृद्धशाली बनाये रखना हमारा ही दायित्व है।
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