देवेन्द्र सिंह जी - लेखक |
इधर सोशल मीडिया मेरे मित्र श्री अनूप शुक्ल की महत्वपूर्ण
पोस्ट आई, जिसमें उन्होंने कहा कि बीरबल का जन्म घाटमपुर के पास एक गाँव में हुआ था।
इसके प्रमाण में उन्होंने कवि भूषण की कविता और कुछ दस्तावेज भी साझा किये। एक बात
और भी पहले ही कह देना चाहता हूँ कि अनूप शुक्ल जी की बात को सहज में ही टाला नहीं
जा सकता है। वे बड़े गंभीर शोधार्थी हैं और कानपुर के इतिहस के बारे में उनके कहे को
काटने की हिम्मत बड़े-बड़े इतिहासकार भी नहीं कर पाते हैं। शुक्ल जी ने जो कहा है वह
मैंने भी पहले ही पढ़ रखा था, इसीलिए मैंने पोस्ट में कहा था कि बीरबल के बारे में जिस
किसी को और कुछ मालूम हो शेयर करे। इसीलिए मैंने भी लिखा कि मान्यता है कि बीरबल का
जन्म कालपी के पास इटौरा में हुआ था। यह नहीं कहा कि इटौरा में हुआ था। मेरे कहे और
शुक्ल जी की कही बातों में कुछ बातें बिलकुल एक ही हैं। वह भी कहते हैं कि बीरबल का
जन्म इलाहाबाद सूबे की कालपी सरकार में हुआ था। उनके अनुसार घाटमपुर के पास एक गाँव
में हुआ था जिसके लिए वे भूषण कवि की एक रचना को पेश करते हैं, जिसमे कवि भूषण कहते
हैं कि उनका जन्म और बीरबल का जन्म एक ही गाँव में हुआ था। घाटमपुर के पास एक गाँव
भी है जिसका नाम बीरबर है तथा वहाँ पर एक भवन भी है जो बीरबल का कहा जाता है। तो आगे
इस पर शोध तो बनता है। अब दूसरी बात पर आता हूँ जो मैंने कही थी कि बीरबल पर कालपी
में मुसीबत आई। इस मुसीबत और बीरबल को इसलिए लिख रहा हूँ कि इससे बीरबल का इटौरा से
संबंध कुछ हद तक जुड़ता है।
मैं पहले ही लिख चुका हूँ कि अकबर की इस यात्रा में
इलाहाबाद के किले की नींव रखने के साथ-साथ मनोरंजन का भी पुट था। इसी कारण यात्रा नाव
से की गई और इसी कारण उसके नवरत्न भी इस यात्रा में उसके साथ नजर आते हैं। इस दल में
बहुत से ऐसे सभासद थे जिनको बीरबल फूटी आँख भी नहीं सुहाता था उनकी बीरबल को नीचा दिखाने
की हरचंद कोशिश रहती थी। इनको मालूम था कि बीरबल इटौरा के थे तथा उनके परिवार वालों
की माली हालत अच्छी नहीं है। अतः उन्होंने अकबर से कहा कि बीरबल का पैतृक स्थान पास
ही है, सरकार जब यहाँ तक आ ही गए हैं तो बीरबल के घर तक चल कर उनको सौभाग्य प्रदान
करें। अकबर दुविधा में नहीं करता है तो बीरबल की बेइज्जती और अगर जाता है तो बीरबल
की बेइज्जती तय क्योंकि खातिरनवाजी ठीक से नहीं होगी। अंत में अकबर ने कहा ठीक बीरबल
को यह सौभाग्य मिलना ही चाहिए, चलते हैं। अगले दिन अकबर का कारवां इटौरा के लिए चला। इटौरा की सीमा पर ही
रोपण गुरु का एक छोटा सा आश्रम था। अकबर ने पूछा कि यह क्या है? कालपी के हाकिम मतलूब
खां ने बतलाया कि यह रोपण गुरु का आश्रम है। अकबर पढा-लिखा बिलकुल नहीं था लेकिन जिज्ञासु
था और हर धर्म के जानने के बारे में हमेशा उत्सुक रहता था। उसने उनसे मिलने का निश्चय
किया और उनका दल रोपण गुरु के आश्रम में रुका।
गुरु रोपण के बारे में कहा जाता है कि इनका जन्म संवत
1540 में डौंडिया
खेरा (उन्नाव) के राजकुल में हुआ था। बचपन से ही रोपण आध्यात्मिक प्रवृत्ति के थे,
इस कारण राज छोड़ कर तप करने हेतु कालिंदी के तट पर पहुंच गए। वहाँ उन्होंने समाधि लगाई
और ज्ञान प्राप्त किया। हस्त लिखित ग्रन्थ प्रणाम विलास जो संवत 1940 में लिखा गया से इनके बारे में पता चलता है।
रोपण नाम राज कुल आही / बसे डोडीया खेरे माहि।
राज छोड़ कर तपे सिधाए / सुरुगुर भूमि निकट तब आए।
कानन दीख तहां अति पावन / है तप भूमि अधिक मन भावन।
निसिदिन हरी दर्शन की आशा? राजेपुर में कीन्हो बासा।
बहुत वर्ष बीते यह भांती / जात न जाने दिन ओं रती।
पहुचे ऊखल कालहिं जाई / मन में सुमरत कुंवर कन्हाई।
प्रात भये कालिंदी तीरा / मज्जन किन गई तन पीरा।
आसन बैठ ध्यान हरी कीन्हा / रूप चतुर्भुज चित धरि
लीन्हा।
उनकी तपस्या से प्रभु प्रसन्न हुए और उनको गुरुमन्त्र
दिया। उसी ग्रन्थ में लिखा गया है-
पुनि हरि कहा मांग बर लहू / रोपण कहा निज भक्तिहि
देहू।
रोपण गुरु तब नाम प्रकाशा / निरंजन की कर पूर्ण आशा।
अकबर और रोपण गुरु की मुलाकात इटौरा में हुई और ऐसी
हुई कि किसी को समय का ज्ञान ही नहीं रहा। खाने-पीने का समय निकल गया। गुरु के यहाँ
प्रसाद के रूप में सबको मालपुआ खाने को मिला। इतना स्वादिष्ट मालपुआ अकबर ने कभी खाया
नहीं था और न ही उसका नाम ही जानता था। उसने बीरबल से इसका नाम पूछा। अब बीरबल तो बीरबल,
सीधे जवाब देने से रहे। एक पहेली ही में जवाब दिया। उसकी पहली लाइन याद नहीं आ रही
है। दूसरी लाइन ही याद आ रही है, वह कुछ इस प्रकार थी- बिन बेलन यह बेला है/कहे बीरबल
सुने अकबर, यह भी एक पहेला है। पहली लाइन में इसके मीठे गुण के बारे में कहा गया था
और दूसरे में यह बतलाया गया कि इसको बेलन से बेल के गोल नहीं किया गया है। सत्संग इतनी
देर चला कि बीरबल के घर जाने का समय ही नहीं बचा। मैं समझ नहीं पा रहा हूँ कि क्या
अकबर ने जानबूझ कर इतनी देरी की कि बीरबल के घर जाने का समय निकल जाय और उसके मित्र
की इज्जत बच जाय? अकबर जब बीरबल की जान बचाने के लिए अपनी जान खतरे में डाल सकता था
तो इज्जत बचाने के लिए कुछ भी कर सकता था।
चलते समय अकबर ने रोपण गुरु से कहा कि मै आपके लिए
कुछ करना चाहता हूँ, आज्ञा करें। तब रोपण गुरु ने कहा कि पानी की कमी है एक तालाब बना दें तो ठीक
रहेगा। इस पर अकबर ने कहा तालाब तो बनेगा ही आपके लिए एक मन्दिर भी सरकारी खर्चे से
बनेगा। प्राणी विलास में इसका भी उल्लेख है। देखिए-
संवत सोरा सौ ऋष नयना / क्रोधी माघ मास शुभ ऐना।
पुष्प नक्षत्र चन्द्र शुभ बारा / तेहि दिन आज्ञा दिन
भुआरा।
करो धाम कर अब प्रारमभा/ चहु दिश शुभग लगावो खंभा।
यह कहि पुनि यक ग्राम बसवो / हमरो नाम प्रसिद्ध करावो।
शासन यही प्रकार नृप पाई / मन्दिर तहां बनत सो भयेउ।
चारि खण्ड तहं सुभग बनाई / चहु दिशि खम्बा दिए लगाई।
प्रतिमा बेल शीलन पर काढी / शुक पिक चातक अहि मुक
ठाढ़ी।
तेहि ऊपर शुभ रच्यो बिताना / द्विज गण बैठी करहिं
निज गाना।
मलयगिरी कपाट तीन किन्हें / शुभ्र गुफा के द्वार सो
दिन्हें।
पुनि एक ग्राम बसाय सू दीन्हा / अकबरपुर तेहि नाम
जू कीन्हा।
जालौन के गजेटियर में भी उल्लेख है कि अकबर ने इटौरा
के पास एक गाँव अपने नाम से बसा कर वहाँ एक तालाब और मन्दिर का निर्माण करवाया। इसी
इटौरा को बीरबल की जन्मस्थली कहा जाता है और अपने मित्र के स्वाभिमान की रक्षा के लिए
उसने यहाँ की यात्रा की थी।
इस मन्दिर की स्थापना का कार्य उनके पुत्र रतीभान
द्वारा शुरू किया गया। रतीभान भरतपुर राज्य की रूपवास तहसील के सिहावली नामक गाँव से
यमुना के रास्ते नावों से पत्थर कालपी लाये थे। वहाँ से बैलगाड़ियों से ये इनको इटौरा
लाया गया। मेरे मित्र डाक्टर हरीमोहन ने इस मन्दिर के बारे में लिखा कि यह पूर्वामुखी
है तथा चार मंजिला है। इस मन्दिर में तप समाधि का विशेष स्थान है। तप समाधि एक चबूतरे
के आकार की है, जिसके ऊपर एक
मठिया निर्मित है। जिसमें चन्दन का दो पल्लों का दरवाजा लगा है। इस दरवाजे से नीचे
सात सीढियाँ जाने पर सामने दीवाल पर एक बड़े आले में गुरु रोपण का काल्पनिक हस्तचित्र
रखा है। यह चित्र मन्दिर के पूर्वी स्तंभ पर एक लाल पत्थर की शिला पर अंकित चित्र के
आधार पर बनाया हुआ लगता है। सम्पूर्ण तप समाधि स्थल लाल पत्थर के चार खम्भों से घिरा
है। प्रत्येक स्तम्भ चार स्तम्भों के संयोजन से बना है। ये चारों स्तम्भ ऊपरी हिस्से
में जालीदार घंटीनुमा बेल से अलंकृत पत्थरों से जुड़ कर पूर्व-पश्चिम, उत्तर-दक्षिण चारों दिशाओं में चार अलंकृत मेहराबदार दरवाजों का निर्माण करते
हैं। प्रत्येक स्तम्भ के ऊपरी अग्र कोने पर तोडा के स्थान पर एक सवार युक्त घोडा अंकित
है। इस घोड़े के दोनों ओर दो-दो सवारयुक्त दो-दो हाथी शांत मुद्रा में अंकित हैं। इन
सबके ऊपर पत्थरों से जुड़ा हुआ एक पत्थर लगा है जो मेहराबदार दरवाजे के ऊपरी भाग का
निर्माण करता है। यह मन्दिर की आंतरिक स्तम्भ पंक्ति है। इस पंक्ति के बाहर मध्य की
स्तम्भ पंक्ति का निर्माण 12 स्तम्भों की सहायता से किया गया
है जो आंतरिक चार स्तम्भों को वर्गाकार आवरण प्रदान करता है। इस मध्य वर्ग की प्रत्येक
भुजा में चार–चार स्तम्भ हैं। पूर्वी स्तम्भों की कतार में तोडा
स्थान पर दोनों कोणीय स्तम्भों के ऊपर की ओर बाहरी कोने पर एक-एक हाथी तथा बीच के दक्षिणी
स्तम्भ पर सवारयुक्त दो अश्व व उत्तरी बीच के स्तम्भों पर दो-दो हाथी अंकित हैं। पश्चिमी
चार स्तम्भों की पंक्ति में तोडा स्थान पर दक्षिणी स्तम्भ पर एक सिंह व उत्तरी स्तम्भ
पर हाथी अंकित है। बीच के दक्षिणी स्तम्भ पर दो सवारयुक्त अश्व व उत्तरी स्तम्भ पर
दो सवारयुक्त हाथी अंकित हैं। उत्तरी व दक्षिणी पंक्ति के चारो स्थानों पर तोडा स्थान
पर अंकन पूर्वी व पश्चमी भुजा से भिन्न है। दक्षिण के पूर्वी स्तम्भ पर तोडा स्थान
पर एक हाथी व पश्चिमी स्तम्भ के तोडा स्थान पर एक सिंह अंकित है तथा बीच के दोनों स्तम्भों
पर दो-दो मोरों का एक जोड़ा अंकित है। उत्तरी स्तम्भों की पंक्ति में तोडा स्थान पर
पश्चिम स्तम्भ पर एक हाथी अंकित है। शेष सभी स्तम्भों पर दक्षिणी पंक्ति के स्तम्भों
की भांति मोर व हाथी अंकित हैं। इस प्रकार से द्वितीय वर्ग में कुल 12 स्तम्भ हैं। बाहरी व तीसरे वर्ग में कुल स्तम्भों की संख्या 20 है। वर्ग की प्रत्येक भुजा में सभी स्तम्भ लाल बलुआ पत्थर के हैं तथा साढ़े
ग्यारह फुट के वर्गाकार में है। इन स्तम्भों से ही यह चार मंजिला मन्दिर बना है। सबसे
ऊपर की मंजिल अपूर्ण सी लगती है फिर भी ऊपर कलश स्थापित है। मन्दिर का फर्श साफ सुथरा
तथा चिकना है।
अकबर की इस यात्रा में उसके दरबारियों ने एक बार फिर
बीरबल का मानमर्दन की कोशिश की थी मगर यह घटना फतेहपुर जिले में हुई थी। उसका वर्णन
अगली पोस्ट में तब तक के लिए नमस्कार।
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© देवेन्द्र सिंह (लेखक)
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