देवेन्द्र सिंह - लेखक |
जनपद जालौन में रह रहे आजाद हिन्द फ़ौज के
कुछ सैनिकों के बारे में जो कुछ मालुम हो सका था वह आपसे साझा कर रहा हूँ. वैसे यह
मेरा विषय नहीं है क्योंकि मैंने अपने शोध को १८५७-५८ की क्रान्ति तक ही रखा है. इसके
बाद मेरे मित्र डा राजेन्द्र पुरवार का आग्रह हुआ कि १८५७ के बाद के जालौन के इतिहास
के बारे में लिखो. मैंने हाथ खड़े कर दिए कि आगे का वह लिखें और मै साथ-साथ रहूँगा.
तब उन्होंने “बुंदेलखंड की राजनैतिक प्रयोगशाला - जनपद जालौन शीर्षक से एक पुस्तक लिखी.
इस पुस्तक में जिले में रह रहे आजाद हिन्द फ़ौज के लोगों के बारे में खोजबीन करके उनका
इंटरव्यू लेकर जानकारी प्राप्त करके एक अध्याय राजेन्द्र जी ने लिखा था. इंटरव्यू में
मै भी साथ रहता था. अब जो मालूम हुआ वह आपके सामने रख रहा हूँ.
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आजाद हिन्द फ़ौज में इस जिले के उरई के दिग्विजय
सिंह यादव, कोटरा के छोटे खां, दौलतपुरा के नजर अली, कुरसेंड़ा के रघुवीर सिंह व टीहर के फतेह बहादुर के नाम मिलते हैं. जब हम लोगों
ने इंटरव्यू लिया उस समय दिग्विजय सिंह अजनारी रोड पर रह रहे थे. काफी बुढ्ढे हो गए
थे और अस्वस्थ भी थे, इस कारण उनका इंटरव्यू कई बार में पूरा हुआ. दिग्विजय सिंह उरई
के डी.ए.वी. से आठवी पास करने के बाद १९३९ में अंग्रेजी सेना में झाँसी में भर्ती हुए.
४ मार्च को मेडिकल कोर में सेवा हेतु चयनित हो कर कलकत्ता से सिंगापुर पहुंचे. वे लगभग
६ वर्ष वहाँ रहे और दो बार आत्म-समर्पण के साक्षी बने थे. उनकी याददाश्त बड़ी अच्छी
थी और जो उन्होंने बतलाया उसका सार इस प्रकार है.
जापनी हवाई हमले से ध्वस्त उनके शिविर के
हजारों भारतीय सैनिकों ने १५-२-१९४२ को जापान के कर्नल हिकाई के समक्ष आत्मसमर्पण किया
था. पहले रास बिहारी बोस और एन.एस.गिल के कहने से आजाद हिन्द फ़ौज में शामिल हो युद्ध
में रहे. बाद में १९४३ की जुलाई में नेताजी द्वारा आजाद हिन्द फ़ौज की दूसरी बार विधिवत
स्थापना की गई. उनके आह्वान पर जालौन जिले के अन्य पांच साथियों के साथ नेहरु और गाँधी
ब्रिगेड में शामिल होकर मलाया और सिंगापुर के युद्ध में भाग लिया. क्वालालाम्पुर में
एक बार फिर १५-८-१९४५ को जापानी आत्मसमर्पण व नेताजी की तथाकथित दुर्घटना के बाद अंग्रेज
सेना के समक्ष समर्पण किया. बाद में गढवाल राइफल के संरक्षण में लखनऊ लाया गया. यादवजी
ने बतलाया कि यहाँ पर हुलकारे कूकुर की भांति मुकदमा चलाया गया. अब यह
हुल्कारे कूकुर वाली बात समझ में नहीं आई. तब उन्होंने जो बताया उससे उनके मन की पीड़ा
समझ में आई. उन्होंने कहा कि सड़क का जो कुत्ता (कूकुर) होता है उसको कोई नहीं पूछता
है. वह जहाँ भी जाता है उसको दुत्कारा जाता है. हुलकारे जाने का अर्थ दुत्कारने से
बुंदेलखंड में लिया जाता है. यही हाल हम लोगों का था क्योंकि अभी हम अंग्रेजो के गुलाम
थे और उनकी फ़ौज के विरुद्ध लडे थे हमारी इज्जत वो क्यों करते.
यादव जी ने और भी कई बाते साझा कीं. उनके अनुसार फ़ौज का उदेश्य वाक्य एकता, विश्वास व बलिदान तथा प्रतीक चिन्ह छलांग लगाता चीता
था. फ़ौज का युद्धघोष नारा दिल्ली चलो व जय हिन्द था. फ़ौज का प्रयाण गीत कदम कदम बढाए जा, ख़ुशी के गीत आए जा था, जिसे कर्नल राम सिंह ने संगीतबद्ध
किया था. उन्होंने बताया कि अंततोगत्वा २४ जनवरी १८४६ को मुक्त घोषणा के बाद उरई वापस
आए. जहाँ उनका वीर योद्धा की भांति स्वागत गाँव और नगर में किया गया. आजाद हिन्द फ़ौज
के इस जनपदीय सेनानी दिग्विजय सिंह ने २००६ में अंतिम साँस ली.
अपने जीवनकाल की सांध्य बेला डिकौली में
बिता रहे मलखान सिंह ने भी अपनी यादें साझा करते हुए बतलाया कि वे भी मेडिकल यूनिट
में सिपाही न० ९२६०४८ के रूप में भर्ती हुए थे. कानपुर, अहमदाबाद और बम्बई में
प्रशिक्षण प्राप्त कर दक्षिण पूर्वी एशिया के कई देशों में रहे. इनको भी अंग्रेजी सेना
की पराजय के बाद जापनी सेना को सौप दिया गया था. बाद में नेता जी ने आई.एन.ए.में शामिल
कर लिया. बाद की कहानी वही है जो दिग्विजय सिंह की थी. मलखान सिंह का दुःख यह है कि
आजाद होने के बाद शासन की उपेक्षा के चलते उन्हें शीघ्र ही बिसार दिया गया.
नेता जी द्वारा नेहरु, गाँधी, आजाद के नाम पर ब्रिगेड को बनाना क्या आपको कुछ सोचने के लिए विवश नहीं करता?
यदि करता है तो धन्यवाद. जिले में आजाद हिन्द फ़ौज की इतनी ही जानकारी ही मेरे पास है.
यदि किसी का नाम या कोई जानकारी छूट गई हो तो मैं पहले से ही माफ़ी मांगे लेता हूँ.
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© देवेन्द्र सिंह (लेखक)
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