देवेन्द्र सिंह जी - लेखक |
दिल्ली में अपने को पूर्ण रूप से स्थापित करने के
बाद बहलोल लोदी ने 1479 में जौनपुर के शासक हुसैन शाह शर्की पर आक्रमण किया। हुसैन शाह को पराजित
करके जब वह लौट रहा था तब उसने रास्ते में कालपी पर भी अधिकार कर लिया। इतिहासकार निजामुद्दीन
अहमद के अनुसार बहलोल जब जौनपुर से लौटा तब उसने कालपी पर अधिकार करके यहाँ की जागीर
आजम हमायूं को सौंपी। इस प्रकार अपना जिला, जालौन अब लोदियों के अधिकार में आ गया।|
बहलोल के बाद सिकन्दर गद्दी पर बैठा। सिकन्दर लोदी
को दिल्ली में अफगान सरदारों के विरोध का सामना करना पड़ रहा था क्योंकि उसकी माँ हिन्दू
स्वर्णकार थी। अफगान सरदार कालपी के आज़म हुमायूँ को गद्दी पर बैठना चाहते थे। इस कारण
सिकन्दर लोदी ने 1489 में कालपी पर आक्रमण करके आजम हुमायूँ को हरा कर अपने फेवर के महमूद खां लोदी
को कालपी का हाकिम बनाया। वर्ष 1507 में महमूद खां लोदी की मौत
के बाद उसका पुत्र जलाल खां कालपी का अधिकारी हुआ। 1508 में सिकन्दर
लोदी ने जलाल खां को नरवर पर अधिकार करने के लिए भेजा। जलाल खां एक वर्ष तक नरवर पर
घेरा डाले रहा पर नरवर के तोमर राजा ने हार नहीं मानी। सिकन्दर लोदी खुद जलाल खां की
मदद के लिए नरवर पहुंचा। नरवर में कालपी की सेना की तैयारी, मुस्तैदी
और युद्ध कौशल से वह बहुत प्रभावित हुआ लेकिन यही जलाल खां की पतन का कारण भी बना।
सिकन्दर को जलाल खां की फ़ौज से बड़ी जलन हुई तथा वह भयभीत भी हो गया। नरवर के घेरे के
समय ही जलाल खां को कैद करके उदयगिरि के किले में भेज दिया गया और कालपी की जागीर उसने
अपने भाई को सौंप दी। संयोग ऐसा कि इस नए अधिकारी का नाम भी जलाल खां था।
1517 में सिकन्दर लोदी की मौत होने
पर उसका पुत्र इब्राहिम लोदी सिंहासन पर बैठा। दरबारियों का एक गुट कालपी वाले जलाल
खां के पक्ष में था जो इब्राहीम का छोटा भाई था। अफगान सरदारों ने साम्राज्य को दो
भागों में बांटने का निर्णय लिया, जिसके अनुसार दिल्ली इब्राहीम लोदी को और जौनपुर
जलाल खां को दिया गया। दिल्ली में इब्राहीम खां के गद्दी में बैठते ही जलाल खां कालपी
से अपनी नई जागीर जौनपुर चला गया। इधर दिल्ली में इब्राहिम के शुभचिन्तक खानजहाँ लोदी
ने बादशाह को इस बटवारे के दुष्परिणामों के बारे में समझाया और जलाल खां को जौनपुर
से दिल्ली बुलाने के लिए कहा। जलाल को दिल्ली में जो कुछ राजनीति चल रही थी उसकी सूचना
मिल गई थी। हैवत खां जब जलाल को अपने साथ दिल्ली लेजाने के लिए जौनपुर आया तब जलाल
खां उसके साथ जौनपुर से कालपी तक तो आया मगर कालपी में अपनी जागीर में रुक गया दिल्ली
नहीं गया। कालपी में जलाल खां ने अपने को स्वतंत्र घोषित करके अपने नाम का खुतवा पढ़वाया।
यही नहीं उसने नियामत खातून, इमादुल मुल्क, बहरुद्दीन जिल्वानी को अपने हरम की रखवाली के लिए कालपी में छोड़ा और खुद तीस
हजार सैनिकों के साथ राजधानी आगरा पर कब्जा करने के लिए प्रस्थान किया। इधर कालपी पर
अधिकार करने के लिए इब्राहिम लोदी ने आजम हुमायूँ शेरवानी, नासिर
खां नुहानी आदि प्रमुख सरदारों को रवाना किया। इन सबने कुछ ही समय में कालपी पर अधिकार
करके यहाँ पर भारी लूटपाट की। जलाल खां आगरा पर भी अधिकार नहीं कर सका और भाग गया।
बाद में उसको मालवा में पकड़ा गया और इब्राहीम लोदी के सामने पेश किया गया। इब्राहीम
लोदी ने उसका वध करवा दिया और कालपी की जागीर अली खां (कहीं-कहीं इसको अलपखां भी लिखा
गया है) को प्रदान कर दी। कालपी का चौरासी गुम्बज लोदी बादशाह का मकबरा कहलाता है,
मगर इसकी कोई निश्चित सूचना नहीं मिलती है। 125 फिट ऊंचा स्थापत्य
का सुंदर नमूना जनपद जालौन में है। इस जनपद से लोदी वंश का शासन बाबर द्वारा पानीपत
के युद्ध में इब्राहिम लोदी की पराजय के साथ समाप्त हुआ।
आज इतना ही, मुगलों के कालपी पर अधिकार के बारे में
अगली पोस्ट में। आपकी प्रतिक्रिया का इंतजार रहेगा। धन्यवाद।
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© देवेन्द्र सिंह (लेखक)
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