देवेन्द्र सिंह जी - लेखक |
बारहवी सदी के पूर्व इस्लामी शक्तियाँ भारत पर अधिकार
करने में लगी थीं। गोर के शासक शहाबुद्दीन मोहम्मद गोरी ने 1192 में आक्रमण करके प्रथ्वीराज को
तराइन के युद्ध में हरा दिया। परमाल के भी बुरे दिन आए वह भी यहाँ ज्यादा समय तक अधिकार
नही रख सका क्योंकि 1202 में कुतुबुद्दीन ने परमाल के कालिंजर
किले पर आक्रमण करके चंदेलों के राज पर अधिकार कर लिया। वहां पर ज़ब्बारउद्दीन हसन अरनाल
को नियुक्त कर दिया। इस प्रकार पूरे क्षेत्र के साथ साथ वर्तमान जालौन जिला भी मुस्लिम
सरकार के आधीन हो गया। इसके बाद चन्देल वैभव का अंत प्रारंभ हो गया।
स्टेनली पूल के अनुसार गोरी के प्रमुख गुलाम कुतुबुद्दीन
ऐबक ने 1202-03 में आक्रमण
करके कालिंजर, महोबा और कालपी के किले पर करके इस (जालौन) क्षेत्र
में मुसलमानों का अधिकार स्थापित कर लिया। उसने शासन की सुविधा के लिए एक अफगान सरदार
का मुख्यालय जग्म्मनपुर के पास बनाया। इसके बाद भी केन्द्रीय सत्ता के कमजोर होने के
कारण हिन्दू राजा अपने को स्वतंत्र मानते रहे। गुलाम वंश के नाशिरुद्दीन महमूद ने 1284 में यमुना के दोनों किनारों की ओर मजबूती से अपनी सत्ता स्थापित करने में
सफलता प्राप्त की। बुंदेलखंड में होने वाले विद्रोहों को दबाने में बलवन को भी काफी
परिश्रम करना पड़ा था क्योंकि त्रिलोक्यवर्मन ने एक बार फिर से कालिंजर से झाँसी और
कालपी से चुनार तक को अपने अधिकार में कर लिया था। एक और वंश का उदय यहाँ पर हो रहा
था। चन्देल तो थे ही बुंदेलों का आगमन भी यहाँ पर हो गया था पर उसकी चर्चा बाद में।
अभी तो इतिहासविद आर०के० सक्सेना के कथन के साथ आगे बढ़ें। उनका कहना है कि खिलजी वंश
के प्रमुख शासक अलाउद्दीन के शासनकाल में भी बुंदेलखंड के अधिकाँश शासक पूर्ण रूप से
स्वतन्त्रता का उपभोग कर रहे थे।
फिरोज तुगलक (1351-1381) ने कड़ा, महोबा,
कालपी और दलमऊ पर अधिकार करके नसीर-उल-मुल्क को अधिकारी बनाया और कालपी
में उसका मुख्यालय स्थापित किया गया। कालपी में किला होने के कारण मुख्यालय बनाने में
कोई दिक्कत नहीं थी। कालपी को इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त हो रहा था। लगभग
इसी समय से जिले का लिखित इतिहास भी मिलने लगता है। तुगलक वंश के शासकों के समय में
ही मंगोलों के आक्रमण भारतवर्ष में होने लगे थे। तुगलक डायनेस्टी के लेखक आगा मेहदी
के अनुसार तैमुर के आक्रमण के समय कालपी की जागीर मलिक ताजिउद्दीन तुर्क के पोते मलिकजादा
फिरोज के पुत्र मुहम्मद खां के पास थी। तैमुर के आक्रमण से जो अफरातफरी थी उसका फायदा
उठा कर वह स्वतंत्र व्यवहार करने लगा और बहुत समय तक कालपी पर काबिज रहा। इतिहासकार
वेलजली हेग के अनुसार तुगलक वंश के पतन और दिल्ली में सैयद वंश का शासन स्थापित हो
जाने पर मुहम्मद खां का पुत्र कादिर खां अपने पिता के बाद 1426 में कालपी का शासक हुआ।
सैयद वंश के शासकों के समय में जौनपुर के शर्की शासकों
और मालवा के शासकों की शक्ति बहुत बढ़ गई थी। दोनों राजवंश दिल्ली पर अधिकार के लिए
आतुर थे। जौनपुर और मालवा से दिल्ली की दूरी अधिक थी, मध्य में एक स्थान की जरूरत थी
जहाँ सेना स्थापित करके दिल्ली पर अधिकार किया जा सके। इस लिहाज से कालपी सबसे उपयुक्त
स्थान था। अतः जौनपुर के इब्राहीम शर्की और मालवा के अल्प खां उर्फ़ हुसंग शाह, दोनों ने कालपी पर अधिकार करने का
निश्चय किया। 1433-34 में जौनपुर और मालवा की सेनाओं ने कालपी
पर अधिकार करने के लिए प्रयाण किया। दिल्ली में जब बादशाह मुबारक शाह को इस अभियान
की सूचना मिली तो वह शर्कीयों को सबक सिखाने के लिए जौनपुर आक्रमण करने के लिए चल दिया।
इस कारण इब्राहीम शर्की को अपनी सेना सहित अपने राज्य जौनपुर की रक्षा के लिए वापस
लौटना पड़ा। इसका फायदा मालवा के अल्प खां ने उठाया। उसने कालपी पर आक्रमण करके कादिर
खां को हरा दिया। कादिर खां को आत्मसमर्पण करना पड़ा। कादिर खां की बहुत प्रार्थना पर
अल्प खां ने दया करके कादिर खां को कालपी का शासक बना रहने दिया पर कालपी अब मालवा
के सुल्तान के अधिकार में थी।
कादिर खां बड़ा चालक था। दिल्ली जौनपुर और मालवा के
सुल्तानों की आपसी लड़ाई का फायदा उठा कर सन 1443 के आसपास कादिर खां ने खुद को कालपी का स्वतंत्र
शासक घोषित कर दिया और कादिर शाह कहलाने लगा। कादिर शाह के बाद उसका पुत्र नासिर शाह
कालपी का शासक हुआ। नासिर एक अयोग्य शासक निकला। उसके समय में प्रजा को बड़े कष्ट उठाने
पड़े। उसके अत्याचार से मुसलमान भी त्रस्त थे। कालपी के मुसलमानों ने जोनपुर के शासक
महमूद शर्की से नासिर की करतूतों के बारे में बतलाया। इस पर महमूद शर्की ने कालपी पर
अधिकार कर लिया। उसने मालवा के सुल्तान को भी नासिर की ज्यादतियों के बारे में लिखा।
इधर नासिर भाग कर मालवा गया और मालवा के शासक महमूद खलजी से प्रार्थना की कि कालपी
की जागीर उसको दिलवाई जाय क्योंकि कालपी की जागीर नासिर शाह को महमूद खलजी के पिता
हुसंग शाह द्वारा प्रदान की गई थी। महमूद खलजी का भी अहम जागा उसने महमूद शर्की को
कालपी की जागीर नासिर को देने को कहा। नासिर के पछतावा प्रगट करने पर महमूद शर्की ने
गुजारे के लिए केवल राठ का इलाका देने का प्रस्ताव किया जिसको महमूद खलजी ने स्वीकार
नहीं किया। इस पर दोनों में ठन गई। 12 जनवरी, 1445 को दोनों राज्यों की सेनाएं युद्ध के लिए एरच तक
आ गईं। यहाँ पर फिर दोनों दलों में बातचीत हुई और एक संधि हो गई, जिसके अनुसार कालपी
की जागीर फिर से नासिर शाह को दे दी गई। मालवा के शासक भी ज्यादा समय तक अपने जालौन
जिले के इलाके में अधिकार नहीं रख सके थे। दिल्ली में बहलोल लोदी ने सैयद वंश के शासकों
को पराजित करके लोदी वंश की स्थापना कर ली।
आज इतना ही, लोदियों के बारे में अगली पोस्ट में पढ़िएगा।
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© देवेन्द्र सिंह (लेखक)
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