Friday, March 30, 2018

इतिहास की तंग गलियों में जनपद जालौन - 11

देवेन्द्र सिंह जी - लेखक 

पानीपत के युद्ध का वर्णन करने की जरूरत यहाँ पर नहीं है लेकिन उसका प्रभाव जो जालौन जिले पर हुआ वह तो करना ही पड़ेगा। इस विवरण को डा० आशीर्वादी लाल जी के कथन से शुरू करता हूँ। उनके अनुसार 21 अप्रेल, 1526 को पानीपत के युद्ध में इब्राहीम लोदी की मृत्यु और बाबर की विजय के पश्चात जो अव्यवस्था हुई उसका लाभ उठा कर अफगान सरदार आलम खां कालपी का शासक बन बैठा (इसके नाम पर कालपी में एक मोहल्ला या गाँव भी है)। दिल्ली और आगरे के समीप के कुछ राजाओं को छोड़ कर बहुत से राजा बाबर के विरुद्ध राणा सांगा साथ हो गए थे। इतिहासकार विलियम एर्स्किन के अनुसार कालपी का आलम खां भी उनमें से एक था। आलम खां ने स्वतंत्र रहने का जो सपना देखा था वह एक वर्ष में ही टूट गया। बाबर का पुत्र हुमायूं जौनपुर पर अधिकार करने के बाद लौटते समय कड़ा मानिकपुर में गंगा पार करने के पश्चात कालपी के रास्ते लौटा। कालपी के हाकिम आलम खां इतने डर गए कि बिना युद्ध किए ही आधीनता स्वीकार कर ली। डब्लू०आर०पाग्सन का कहना है कि इस प्रकार वर्ष 1527 में कालपी और उसके आस-पास का बड़ा भाग मुगलों के अधिकार में आ गया। हुमायूँ कालपी से अपने साथ ही आलम खां को आगरा बाबर के पास ले गया। बाबर बड़ा चालाक था उसने आलम खां को अभयदान देकर अपने पास ही रोक लिया और आलम खां के पुत्र जलाल खां को कालपी की जागीर का हाकिम बनाया।

जनपद जालौन में बाबर के दो बार आने का उल्लेख उसकी आत्मकथा में मिलता है। बहुत से मित्रों ने बाबरनामा को न पढ़ा होगा अतः उसमें अपने जनपद जालौन के बारे में क्या लिखा गया है वह आपसे साझा करना चाहता हूँ। पहली बार चंदेरी अभियान के समय 28 दिसम्बर 1527 को बाबर इस जिले के कनार नामक स्थान पर फ़ौज के साथ पहुँचा। कुछ शब्द कनार के बारे में कहने की अनुमति आपसे चाहता हूँ। इसके दो कारण हैं, पहला तो यह कि कि मेरे वे मित्र जो जिले के बारे में ज्यादा नहीं जानते हैं वे कनार की लोकेशन को समझ लें और दूसरा कारण कनार के बारे में यहाँ जो कहा जाता है उसके अलावा मैंने क्या जाना है या मेरे अनुसार कनार क्या है। कनारखेड़ा अब गैर-आबाद है। यहाँ के सेंगर क्षत्रियों के अनुसार यह कर्णखेड़ा है जिसको उनके पूर्वजों ने जब वे यहाँ आए अपने पूर्वज कर्ण के नाम पर बसाया था। मेरा मानना है कि कर्णखेड़ा उससे भी पुराना है। प्राचीनकाल में यहाँ पर आत्रेय के शिष्य जतू कर्ण का आर्युवेदिक विद्यालय और आश्रम था। इन्हीं जतू कर्ण के नाम पर यह स्थान कर्णखेड़ा कहलाता था। बाद में यह बिगड़ कर कनारखेड़ा हो गया। अत्रेय ने अपने तीन शिष्यों को इस क्षेत्र में आर्युवेद के प्रचार, प्रसार और शोध के लिए भेजा था। अब आप पूछेंगे कि अन्य दो शिष्य कहाँ हैं। तो जनाब दूसरे शिष्य भेड़ थे। जहाँ पर उनका आश्रम था वह उनके नाम पर भेड़ कहलाया। यह स्थान अब भी भेड़ नाम के एक गाँव के रूप में जालौन से कुछ दूर मौजूद है। जिले के लोग भेड़ नाम पर मजाक तो कर लेते हैं कि शायद कभी गडरियों की आबादी रही होगी वे भेड पालते थे इस कारण भेड नाम से गाँव प्रसिद्ध हो गया होगा। इसका कारण यह है कि लोग आर्युवेदाचार्य भेड़ और उनके द्वारा रचित भेड़-संहिता के बारे में जानते ही नहीं हैं। अत्रेय के तीसरे शिष्य पाराशर थे। उन्हीं को जिले के लोग जानते हैं। उनका आश्रम भी जिले में है। मेला भी लगता है। तो यह तो रही कनार के बारे में कुछ सूचना, जहाँ बाबर ने पहली बार फ़ौज के साथ कैम्प किया था।

अब फिर बाबरनामा की तरफ लौटें। उसके अनुसार बाबर ने दो कोस की यात्रा नाव से की और 1 जनवरी, 1528 को कालपी से एक कोस की दूरी पर विश्राम करके अगले दिन कालपी में प्रवेश किया। श्रीमती ए०एस० वेवरेज, जिन्होंने बाबरनामा का अनुवाद किया है, भाग दो के पेज 590 में लिखती हैं कि बाबर ने 2 जनवरी, 1528 को कालपी में प्रवेश किया। कालपी के आसपास उस समय इतना सघन जंगल था कि उसमें हाथी भी पाए जाते थे, जिनको पकड़ कर कड़ा मानिकपुर के बाजार में बेचा जाता था। इस सघन जंगल के कारण तोपें और भारी सामान ले जाने में बड़ी कठिनाई थी। अतः बाबर को चार-पांच दिन कालपी में रुक कर जंगल काट कर फ़ौज के लिए रास्ता बनवाना पड़ा। इन दिनों बाबर कालपी में यहाँ के हाकिम आलम खां का मेहमान रहा। आलम खां और उसके पुत्र जलाल खां ने बाबर का बड़ा स्वागत किया। 7 जनवरी, 1528 को बाबर चंदेरी जाने के लिए जिले के कोटरा नामक स्थान पर बेतवा नदी के किनारे पर पहुंचा। आजतक कोई फ़ौज इस घाट से नहीं गई थी। मुगलों की यह पहली फ़ौज थी जिसने इस घाट को पार किया था। कोटरा का यह घाट आज भी घाट मुग्लान ही कहलाता है। इन छोटी-छोटी घटनाओं को देखा जाये तो कोई महत्व नहीं है मगर जिले का इतिहास तो इन्हीं घटनाओं से बनता और संवरता है, इसलिए लिखी ये कहानी।

चंदेरी की विजय के बाद लौटते समय बाबर कालपी नहीं आया। उसने दूसरा रास्ता चुना। वह भांडेर (झाँसी के पास) के रास्ते सीधे कनार पहुंचा। यक्का ख्वाजा और जफर ख्वाजा को कालपी भेज कर कनार घाट से सैन्य दल को नदी पार करने के लिए नावें लाने की डयूटी दी गई। 22 फ़रवरी, 1828 दिन शनिवार को बाबर की फ़ौज कनार घाट से नदी पार करके दूसरी ओर निकल गई। नदी की दूसरी तरफ जालौन जिला नहीं है तो उधर का हाल मुझे लिखने की जरूरत नहीं है। बाबरनामा के अनुसार उस समय में कालपी परगने की रेवन्यू चार करोड़ अठ्ठाइस लाख रुपये के लगभग थी।


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© देवेन्द्र सिंह  (लेखक)

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