Saturday, June 9, 2018

इतिहास की तंग गलियों में जनपद जालौन - 36

देवेन्द्र सिंह जी - लेखक 

वर्ष 1857 में ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध जो विस्फोट हुआ उसकी तपन को जालौन में भी महसूस किया गया। मंगल पांडे की शहादत और उसके बाद मेरठ में 10 मई को जो कुछ हुआ उसके बाद भी तुरन्त जालौन से लगे जिलों कानपुर और झाँसी में इसकी कोई भी प्रतिक्रिया नहीं दिखाई दी। ऐसा लगता है कि यहाँ इस बात का इंतजार हो रहा था कि बगल के बड़े केन्द्रों में कुछ हो तो यहाँ भी शुरुआत की जाय मगर बगल में बिकुल खामोशी का आलम था। इतिहासकारों का विचार है कि क्रांति शुरू करने की तिथि 31 मई निर्धारित की गई थी इस कारण कानपुर की फ़ौज इस तिथि का इंतजार कर रही थी। इनको डर था कि निर्धारित दिन से पहले कुछ करने से अंग्रेजों को संभलने का मौका मिल सकता है। यदि एक ही दिन भारत में सब जगह क्रांति हो तो सफलता का प्रतिशत अच्छा रहेगा इस को क्रांति के नियंता जानते थे। यहाँ यह भी जान लें कि मेरठ में क्रांति होने के बाद अंग्रेजी सरकार ने क्या-क्या कदम उठाए। चूँकि क्रांति सैनिकों द्वारा शुरू की गई थी थी अत: सेना में बैरिकों में गुप्तचरों का जाल फैलाया गया। क्रांतिकारियों ने खजाने को लूट कर धन प्राप्त किया था अत: खजाने की सुरक्षा पर विशेस ध्यान देने को कहा गया।

इस समय जिले में जो बड़े-बड़े अधिकारी कार्यरत थे वे सब मिलिट्री बैकग्राउंड के थे। जिले के डिप्टी कमिश्नर कैप्टेन ब्राउन को चार्ज लिए अभी ज्यादा समय नहीं हुआ था। उनकी सहायता के लिए एक असिस्टेंट कमिश्नर मि० लैम्बदो अंग्रेज डिप्टी कलेक्टर मि० जी० पशन्ना और मि० ग्रिफिथ थे। अंग्रेजी ऑफिस के बड़े बाबू मि० डबल भी परिवार सहित उरई में रहते थे। सिविल अधिकारियों की सहायता के लिए 53वीं नेटिव इन्फेंट्री जिसका मुख्यालय कानपुर में था, की दो टुकडियां भी उरई में तैनात थीं। उसकी कमान कैप्टेन अलेक्जेंडर के हाथ में थी। इस टुकड़ी में एक अंग्रेज अधिकारी लेफ्टिनेंट टामकिनसन तथा एक अंग्रेज डाक्टर हेमिंग था। मेरठ की क्रांति के बाद उरई के डिप्टी कमिश्नर ब्राउन को आदेश मिला था कि सुरक्षा की दृष्टि से खजाना ग्वालियर भेज दें मगर यहाँ पर अभी तक उनको कुछ भी ऐसा नहीं लगा कि गडबड हो सकती है अत: इस आदेश पर अमल नहीं किया गया। हाँ, एक काम उन्होंने यह जरूर किया कि परिवार की सुरक्षा पर ज्यादा ध्यान देते हुए अपनी पत्नी तथा बहिन लिओ ब्राउन को झाँसी भेज दिया।

इधर कानपुर में अंग्रेजों को उनके सूत्रों से पता चला कि यहाँ पर 56वीं नेटिव इन्फेंट्री के सैनिकों में सरकार के प्रति कुछ आक्रोश दिख रहा है। अत: यह निर्णय लिया गया कि इनको उरई भेज दिया जाय और वहाँ पर स्थित 53वीं को कानपुर बुला लिया जाय। इस निर्णय की सूचना ब्राउन को देकर 56वीं को उरई के लिए रवाना कर दिया गया। अब ब्राउन के कान खड़े हुए। उनको पहली बार कुछ खतरा समझ में आया। पहला काम यह किया कि खजाना उरई से तुरन्त ग्वालियर भेजने की व्यवस्था की। खजाने के रुपए गिनवाए गए जो पांच लाख थे। उनको लेफ्टिनेंट टामकिन्सन की सुपुदगी में 53वीं नेटिव इन्फेंट्री की एक टुकड़ी के साथ जालौन के रास्ते जून 1857 को ग्वालियर के लिए रवाना किया (द रिवोल्ट इन सेण्ट्रल इंडिया 1857-58 कम्पाइल्ड इन द इंटेलिजेंस ब्रांच आफ आर्मी हेड क्वार्टर्स और झाँसी डिविजन के कमिश्नर पिंकने की रिपोर्ट द आउट ब्रेक आफ डिस्टर्बेंसेज एंड द रेसटोरेसन आफ अथार्टी इन द डिविजन आफ झाँसी के अनुसार यह रकम सवा चार लाख रु० थी)। इधर इसी दिन से कानपुर में घटनाएँ तेजी से घटीं, वहाँ क्रांति का बिगुल बज गया। जून को क्रांति ने कानपुर में वह रुख अख्तियार कर लिया जिसकी अंग्रेजों ने कल्पना नहीं की थी और अगर की भी थी तो उसको प्रकट नहीं कर रहे थे। ऊपर से सब शांत है या दिखावा कर रहे थे। अब कानपुर में क्या हो रहा था उसको छोड़ें और देखें कि उरई क्या हुआ।

कानपुर में जब सैनिकों ने विद्रोह शुरू किया तब बहुत से सैनिक वहाँ से अपने घरों की तरफ भी चले और कालपी पहुंचे। इनके द्वारा कालपी के लोगों और वहां पदस्थ सरकारी कर्मचारियों को कानपुर में क्रांति हो जाने की सूचना मिली। कालपी के तहसीलदार शिव प्रसाद ने सारी रिपोर्ट उरई में ब्राउन साहब के पास भेजी। ब्राउन अभी कालपी की रिपोर्ट के अनुशीलन में लगे थे कि तभी उनको सूचित किया गया कि झाँसी में भी सैनिकों ने विद्रोह कर दिया है और सब अंग्रेज अधिकारी जान बचाने के लिए परिवार सहित किले के अन्दर शरण लिए हुए हैं। इस सूचना ने ब्राउन के दिमाग को एकदम से सुन्न कर दिया। किस हाल में होगी मेरी पत्नी और बहिन यह विचार उनके मन में रह-रह कर कौंध रहा था। इधर कालपी में भी आमजन और कस्टम तथा पुलिस में विद्रोह के लक्षण दिखे। कालपी के थानेदार बसंतराव ने जब कुछ सख्ती की तो सिपाहियों ने आदेश मानने से मना कर दिया। बसंतराव ने इन सब बातों से तहसीलदार को अवगत कराया। तहसीलदार शिव प्रसाद ने समझ लिया कि जब पुलिस आदेश मानने में हीला-हवाली कर रही है तब तो उसकी जान को भी खतरा हो सकता है। उसने फौरन एक हरकारा उरई भेज कर ब्राउन को नई स्थिति से अवगत कराते हुए कालपी छोड़ने की आज्ञा माँगी। परेशान ब्राउन ने उसी हरकारे के माध्यम से शिव प्रसाद को सूचित किया कि कालपी जिले का प्रमुख नगर हैतहसील है उसको हेडक्वार्टर छोड़ने की अनुमति नहीं दी जा सकती। अपने मुकाम पर ही रहो तुम्हारी सहायता के लिए यहाँ से सेना की एक टुकड़ी भेज रहा हूँ। उरई से एक सैन्य दल असिस्टेंट कमिश्नर के साथ कालपी के लिए रवाना कर दिया। इसके साथ ही उसके दिमाग में और एक विचार कौंधा कि जो सैनिक कानपुर से यहाँ भेजे जा रहे हैं वे कहीं यहाँ के सैनिकों ही न भड़का दें। अत: एक मैसेज कानपुर भेजा कि कानपुर से जो टुकड़ी उरई भेजी जा रही है उसको न भेजा जाए, मगर देर हो चुकी थी वे सैनिक तो कानपुर से पहले ही चल दिए थे और इस समय कालपी से कुछ मिल आगे एक स्थान पर उनका कैम्प पड़ा था। लिहाजा इस बारे में कुछ भी नहीं किया जा सका। उरई में अभी शांति थी। अत: ब्राउन ने झाँसी मदद भेजने का निश्चय किया। इसका कारण यह भी हो सकता है कि ब्राउन का परिवार भी झाँसी में किले वहाँ के सब अंग्रेजों के साथ शरण लिए था।

ब्राउन ने इटावा स्थित सिंधिया कन्टेनजेंट के सैनिक अधिकारी से उरई सेना भेजने का आग्रह किया जिससे झाँसी मदद पहुंचाई जा सके। साथ ही समथर के राजा हिन्दुपत के पास भी सहायता भेजने के लिए हरकारे भेजे गए। ब्राउन के अनुरोध पर इटावा से एक सैन्य दल अपने कमांडर कोसर्ट के साथ और समथर से भी एक तोप, 100 पैदल सैनिक, 60-70 घुड़सवारों का दस्ता उरई आ गया लेकिन कालपी में हालत बद से बदतर होते गए। पुलिसकस्टम के कर्मचारियों ने अधिकारियों के आदेशों को अनसुना करना शुरू कर दिया। राज कार्यचुंगी वसूली और रेवन्यू की वसूली पूरी तरह से ठप्प हो गई। एक और घटना ने ब्राउन को परेशान कर दिया। उन्होंने जो सैनिक कालपी में ला और ऑर्डर को मेन्टेन करने के लिए उरई से भेजे थे वे जब वहाँ पहुचे जहाँ कानपुर से उरई आ रहे सैनिकों का कैम्प था तब उन्होंने भी वहीं कैम्प किया। रात में उनमे मीटिंग हुई और वे भी बगावत करने को आमादा हो गये और तय किया कि अब दोनों दल कानपुर अपने साथियों की मदद के लिए जायेंगे। जब तक मीटिंग में यह तय किया जाता कि अंग्रेज कमांडर के साथ क्या सलूक किया जाय तब तक अलेक्जेंडर को रात में ही अपने नौकरों से यह सूचना मिल गई कि उनकी जान को खतरा है। जान बचाने के लिए वह रात को ही अपने टेंट से भाग लिए (वह बचते बचाते 15 को इटावा पहुँचे थे)। यह खबर भी ब्राउन को मिली। दोनों सैनिक दल कालपी में न रुक कर सीधे कानपुर चले गए। अगर ये कालपी में रुक कर कालपी के प्रशासन पर अधिकार कर लेते तब जिले में क्रांति का इतिहास कुछ दूसरा ही होता। मगर यह नहीं हुआ तो देखें कि आगे हुआ क्या।

8 जून को दोपहर बाद कैप्टेन कोसर्ट अपने तथा समथर के सैनिकों के साथ उरई से झाँसी की मदद के लिए चले। ब्राउन ने रात में ठंडे-ठंडे में चलने का निश्चय किया मगर वह रात को चलते उसके पहले ही उनके पास मोठ से सूचना पहुची कि क्रांतिकारियों ने झाँसी में किले में शरण लिए हुए सभी अंग्रेजों की हत्या कर दी है। ब्राउन के लिए यह बहुत बड़ा आघात था। मरने वालों में उनकी पत्नी और बहिन भी थी। क्रांति की समाप्ति के बाद जालौन के डिप्टी कमिश्नर टरनन ने अपनी एक रिपोर्ट में इस बारे में लिखा - Lieutent Brown, the Deputy Commissoner, had sent his wife and sister to Jhansi for safety, where they were brutally murdered with the rest of the garrison.

आज यहीं तक इसके बाद जिले में क्रांति में क्या हुआ ब्राउन ने क्या किया आदि अगली पोस्ट में। 

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© देवेन्द्र सिंह  (लेखक)
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