Friday, March 30, 2018

इतिहास की तंग गलियों में जनपद जालौन - 12


बाबर के बाद हुमायूं (1530-40) हुमायूं बादशाह हुआ। उसके शासनकाल की मुख्य बात जो जालौन जिले से संबंध रखती है वह यह कि उसने कालपी की जागीर यादगीर नासिर मिर्जा को दे दी। यादगीर नासिर मिर्जा कौन थे? मुगलों के इतिहास के अध्ययन से पता चलता है कि यादगीर नासिर मिर्जा, बाबर के भाई नासिर मिर्जा का पुत्र था। जब यह माँ के गर्भ में था तभी नासिर मिर्जा की मृत्यु हो गई थी। अतः इसके जन्म पर अपने भाई की याद में बाबर ने लड़के का नाम यादगीर नासिर मिर्जा रख दिया था। हुमायूँ के शासन काल में ही उसके सामंत शेरशाह का भाग्योदय हो रहा था। उसने बंगाल और बिहार में अपनी सत्ता स्थापित कर ली थी। उसने अपने पुत्र क़ुतुब खां को मालवा से उत्तर में मुगलों के विरुद्ध भेजा। कालपी के पास हुए युद्ध में यादगीर नासिर मिर्जा और इटावा के हाकिम हुसेन खां ने क़ुतुब खां को पराजित कर दिया। इस युद्ध में क़ुतुब खां मारा गया। 26 जून, 1539 को चौसा के युद्ध में शेरशाह ने हुमायूं को पूर्ण रूप से पराजित कर दिया। भागते हुए हुमायूं का शेरशाह ने पीछा किया और रास्ते में कालपी पर अधिकार कर लिया। तवारीखे शेरशाही के लेखक अब्बास शेरवानी के अनुसार 1540 तक इस जनपद में शेरशाह ने पूर्ण रूप से अधिकार करके अपने सैन्यदल स्थापित कर लिए थे। शेरशाह ने अपने साम्राज्य को 47 भागों में बांटा था, जिसमें एक कालपी भी था। मोहम्मदाबाद में उसने एक टकसाल भी स्थापित की थी।

1540 में शेरशाह ने मांडू के शासक मल्लू खां को हरा दिया। उसके आधीनता स्वीकार कर लेने पर शेरशाह ने कालपी की जागीर मल्लू खां को सौंप दी। मल्लू खां कालपी का चार्ज लेने के लिए उज्जैन तक आ गया। यहाँ पर उसको पता चला कि शेरशाह के हकीमों को कठोर परिश्रम और मेहनत करनी पड़ती है जो उसके बस की नहीं थी। अतः उसने भाग जाने का निश्चय किया। उसने कालपी तक अपने परिवार को ले जाने के लिए साधन न होने का बहाना बनाया। शेरशाह ने सुजात खां को सौ ऊंट, सौ खच्चर और कई बैलगाड़ियाँ देने का आदेश दिया। साधन प्राप्त हो जाने पर मल्लू खां सबको अपने डेरे पर लाया। रात को शराब पिला कर सबको नशे में धुत कर दिया और मौके का फायदा उठा कर धन-दौलत तथा परिवार सहित गुजरात की ओर भाग गया।

शेरशाह की मृत्यु के बाद उसके परिवार में झगड़े चलने लगे। इब्राहीम सुर ने कालपी पर अधिकार कर लिया। दिल्ली में आदिलशाह सुर ने सत्ता हथिया ली। उसने अपने सेनापति हेमू को कालपी पर अधिकार करने के लिए भेजा। हेमू ने इब्राहीम सुर को कालपी में हरा दिया। हार कर वह वायना की तरफ भाग गया। बंगाल से मोहम्मद शाह भी कालपी पर अधिकार करने के लिए आ गया था पर आदिलशाह और हेमू ने कालपी से बीस मील की दूरी पर छपारघाट पर उसको हरा कर भगा दिया। 1556 में अकबर द्वारा पानीपत के युद्ध में हेमू को परास्त कर देने से जालौन का क्षेत्र फिर से मुगलों के अधिकार में आ गया।

अकबर ने जब फिर से मुगलों का राज्य कायम किया उस समय अपने जिले में जब निगाह डालते हैं तो पता चलता है कि अब्दुल्ला खां उजबेक जो हुमायूं के दरबारी थे वे कालपी के अधिकारी थे। मगर हेमू से घबरा कर कालपी से भाग गए थे। अकबर ने फिर से उनको ही कालपी की जागीर दे दी और उनके मान सम्मान में उनको सुजात खां की पदवी भी प्रदान की। आगे का इतिहास यह है कि बाज बहादुर ने जब मांडू (मालवा ) पर अधिकार कर लिया तब अकबर ने अब्दुल्ला खां उजबेक को उसके दमन के लिए कालपी से भेजा। अब्दुल्ला खां ने बाजबहादुर को हरा कर मांडू पर अधिकार कर लिया। इस विजय से वह बहुत घमंडी हो गया। ये वही जनाब हैं जो हेमू से घबरा कर कालपी से भाग गए थे। वह एक राजा के समान व्यवहार करने लगा। अकबर को अब्दुल्ला खां का यह व्यवहार बहुत खला उसने कासिम खां और अयन ए मुल्क को एक फ़ौज के साथ भेज कर कहा कि अब्दुल्ला खां को पकड़ कर उसके सामने पेश करें। अब अब्दुल्ला खां को अपनी जान की चिंता हुई। लिहाजा भाग खड़े हुए और चारों तरफ भाग कर जान बचाते रहे। अंत में जौनपुर आए वहीं उनकी मौत हो गई।

अकबर ने कालपी की जागीर बैरम खां को देने का प्रस्ताव किया जिसको उसने स्वीकार नहीं किया।  इस पर अकबर ने कालपी उसके पुत्र अब्दुल रहीम खानखाना को दे दी। कालपी में मुगलों का विरोध अभी भी जारी था उसकी एक झलक हमको चितौड़ के आक्रमण के समय देखने को मिली। इतिहासकार जे०एम०शेलेट जिसकी अकबर पर लिखी पुस्तक को प्रमाणिक माना जाता है ने लिखा कि जिस समय अकबर ने चितौड़ पर चढ़ाई की उस समय कालपी से लगभग एक हजार बंदूकची चितौड़ की रक्षा के लिए कालपी से गए थे। युद्ध का विवरण भी मिलता है। संक्षेप में ही आपसे साझा करता हूँ। राणा उदय सिंह की ओर से लड़ते हुए कालपी के बंदूकचियों ने मुगल सेना को बहुत नुकसान पहुँचाया। इनका निशाना अचूक था। रोज ही सैकड़ों मुगल सैनिक कालपी के बंदूकचियों द्वारा मारे जा रहे थे। अकबर इनसे इतना नाराज था कि उसने आदेश दिया कि विजय के बाद कालपी के बंदूकचियों को उनके सामने पेश किया जाय और वही उनकी कठोर सजा का एलान करेगा। वह दिन भी आया जब चितौड़ का पतन हो गया और मुगल सेना ने किले में प्रवेश किया। कालपी के सैनिकों को अकबर की नाराजगी का एहसास था। उनको मालूम था कि कड़ी सजा मिलेगी, अतः उन्होंने बुद्धि का इस्तेमाल किया। कुछ सैनिकों ने सैनिक जमादार के पद के अनुसार वेशभूषा धारण कर ली और कालपी के पांच-पांच सैनिकों को एक कपड़े से हाथ और कमर से बांध लिया और अफरातफरी में किले के फाटक से निकले। रास्ते में मुगल सैनिकों ने उनको रोक कर पूछा भी कि ये कौन हैं? तब जमादार बने कालपी के सैनिक ने जवाब दिया कि ये कालपी के बंदूकची है और बादशाह के हुक्म के मुताबिक उनके सामने पेश करने के लिए ले जा रहे हैं। इस पर उनको आगे जाने दिया गया। बादशाह का कैम्प बहुत पीछे था अतः उनके साथ फिर कोई टोका-टाकी नहीं हुई और वे चलते गए। बाद में अकबर ने कालपी के बंदूकचियों को पेश करने का हुक्म दिया मगर किसी को मालूम ही नहीं था कि किले से निकले ये कैदी कहाँ पर कैद हैं। बड़ी खोजबीन के बाद भेद खुला। अकबर बहुत नाराज हुआ और हुक्म हुआ कि उनको पकड़ा जाय। इतिहासकार ने लिखा कि तब तक बहुत देर हो चुकी थी। कालपी के बंदूकची चितौड़ से काफी दूर निकल गए थे और कालपी के रास्ते पर थे।

अकबर के पहले यहाँ पर लोदियों की शासन व्यवस्था लागू थी। अकबर ने उसको बदल कर अपनी लागू की। लोदियों के समय में क्षेत्र सरकार में बंटा था। अकबर ने उसको सूबे में बांटा और सरकार सूबे के अंतर्गत हो गई। मोटे तौर पर इसको इस तरह समझें, सूबा आजकल के प्रदेश जैसा था और सरकार जिले के समान थी। इस समय पूरा साम्राज्य कई सूबों में बंटा था और सूबे में कई सरकारें थीं। अपना जिला जालौन उस समय अकबर के आगरे के सूबे में था। आगरा सूबे की सीमा घाटमपुर (कानपुर) से शुरू होकर दिल्ली की तरफ पलवल और कन्नौज से लेकर चंदेरी तक थी। कालपी के आसपास का इलाका जिसमे उरई, भदेख, कालपी, चुर्खी, कनार, मोहम्मदाबाद आदि सोलह परगने थे कालपी सरकार में थे। जिले का पश्चिमी भाग कोंच, खकसीस आदि एरच सरकार में थे। अबुल फजल के अनुसार आगरा सूबे से राज्य को 13656275-9-6 रुपया (546250304 दाम) सालाना मिलता था। कालपी में एक टकसाल भी स्थापित की गई, जहाँ पर तांबे का सिक्का दाम ढाला जाता था। वास्तव में टकसाल जहाँ सिक्का ढाला जाता था वह इस जिले के मोहम्मदाबाद में थी। इसको शेरशाह ने स्थापित किया था लेकिन मुख्य खजाना और रिकार्ड कालपी में ही रहता था। इस कारण कालपी वाली बिल्डिंग को भी टकसाल ही कहा जाता है। बहुत से सिक्के मिले हैं जिन पर मोहम्मदाबाद और बगल में कालपी अंकित है। मोहम्मदाबाद में जहाँ पर टकसाल थी उस खंडहर को मैंने (लेखक ने) देखा है। अब पता नहीं बचा है या कि किसी ने कब्ज़ा कर लिया है।


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© देवेन्द्र सिंह  (लेखक)

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