Friday, March 30, 2018

इतिहास की तंग गलियों में जनपद जालौन - 13

देवेन्द्र सिंह जी - लेखक 

कालपी का महत्व बहुत था, इस कारण यहाँ के हाकिम भी अक्सर बादशाह के खुश होने पर या नाराज होने पर बदल दिए जाते थे। 1591 में यह जागीर अकबर ने कासिम अली को दी जो पहले गाजीपुर का अधिकारी था। वर्ष 1495 में कालपी जागीर इशमाईल कुली खां को दी गई। अकबर ने उसको चार हजारी का पद भी दिया। आईने अकबरी में अबुल फजल ने इसके चरित्र के बारे ने लिखा कि यह बहुत ही आमोदप्रिय और फिजूलखर्ची था। उसके हरम में 1200 बेगमें थीं। इनमें से ही किसी ने जहर दिलवा कर उसकी हत्या करवा दी।

कालपी में हाकिम तो आते-जाते रहेंगे, क्यों न अकबर के परममित्र राजा बीरबल के बारे में बात करें जो इसी जनपद, जालौन के मूल निवासी थे और जिनको पूरा भारतवर्ष जानता है।

बीरबल अपने जालौन जनपद के ही मूल निवासी थे। अपनी योग्यता से अकबर के दरबार में पहुँच कर उसके नौ रत्नों में शामिल हुए। इतिहासकारों ने इनका जन्म कालपी के पास एक गाँव में होना लिखा है। किसी ने गाँव का नाम नहीं लिखा। स्थानीय मान्यताओं और अन्य सन्दर्भों से पता चलता है कि इनका जन्म जनपद के इटौरा नामक गाँव में हुआ था। इनका नाम महेश दास था तथा जन्म 1528 में हुआ था। इनके पिता का नाम गंगा दास और बाबा का नाम रूपधर था। रूपधर संस्कृत और फारसी के ज्ञाता थे तथा कवि भी थे। यह परिवार भट्ट ब्राह्मण था। पितामह के प्रभाव से महेश दास भी ब्रम्ह नाम से कविता करने लगे। राजाओं के दरबार में कविता सुनाकर धन प्राप्त करना ही इनका कार्य था। इनके जयपुर के राजा के यहाँ रहने का विवरण मिलता है। वहीं एक बार बंधोगढ़ (रीवा) के राजा ने इनकी कविता सुनी और महेश दास को अपने साथ ले आए। यहीं से ये अकबर के दरबार में पहुंचे। इनकी कविताओं से अकबर इतना प्रभावित हुआ कि महेश दास को कविराज की उपाधि प्रदान की। अपनी हाजिर जवाबी, मनोरंजक तथा विनोदपूर्ण उत्तरों से इन्होने अकबर का दिल जीत लिया। अकबर ने इनको अपने नौ रत्नों में शामिल कर लिया। महेश दास विनोदी होने के साथ-साथ एक वीर पुरुष भी थे। अकबर कालपी के लोगों की वीरता चितौड़ के घेरे में देख चुका था। इस कारण ये अकबर के साथ सैन्य अभियानों में भी जाते थे और इन्होने बड़ी वीरता दिखलाई। इनकी वीरता से प्रभावित होकर अकबर ने महेश दास को बीरबल की उपाधि दे कर सम्मानित किया, तभी से महेश दास का नाम बीरबल हो गया। अकबर ने बीरबल को नागरकोट की जागीर प्रदान की और वहाँ के कर्मचारियों को आदेश दिए कि बीरबल के अपनी जागीर में न रहने पर भी वहाँ की आमदनी उनको नियमित मिलती रहे।

18वी सदी में छपे मासिर-अल-उमरा में लिखा गया है कि बीरबल अपनी कविता और सुखन-सनीफ़ व लतीफागोई के कारण उच्च सम्मान के हकदार बने। अकबर उनको अपना मुसाहिब-ए-दानिसदार अर्थात सही सलाह देने वाला कहता था। बीरबल की सलाह का अकबर पर इतना प्रभाव पड़ा कि वह सूर्य की उपासना करने लगा। आईने अकबरी में उल्लेख है कि बीरबल ने अकबर के दिमाग में यह बात भर दी कि दुनिया की हर चीज के उदभव का कारण सूर्य ही है। मनुष्य का जीवन सूर्य पर ही निर्भर है। अबुलफजल लिखता है कि अपने राज्यरोहण के पचीसवें वर्ष में बादशाह ने सूर्य और अग्नि की पूजा शुरू कर दी। इसी कारण राज्य में रविवार को जानवरों का वध बंद कर दिया गया क्योंकि रविवार सूर्य का दिन माना जाता रहा है। इसमें कोई कोताही न हो इसलिए जानवरों की देखभाल, उनके बेचने और खरीदने के विभाग की जिम्मेदारी भी बीरबल को ही दे दी थी।

अकबर बीरबल से इतना खुश था कि उसने उनको अपना घर जोधाबाई के महल से कुछ दूर पर ही बनवाने की इजाजत दे दी। यह बहुत बड़ी बात थी क्योंकि अकबर के किसी भी सरदार को यह आज्ञा नहीं थी कि वे अपना मकान किले के पास बनवा सके। बीरबल का मकान जब बन कर तैयार हो गया तब उसने अकबर को अपने मकान में पधारने का निमन्त्रण दिया, जिसको अकबर ने सहर्ष स्वीकार कर लिया। अबुल फजल ने इस घटना का वर्णन करते हुए लिखा कि 7 बह्मन को बीरबल के महल में बादशाह को शानदार दावत दी गई। अकबर ने यह सौभाग्य अपने किसी अन्य दरबारी को नहीं दिया था। एक समय तो अकबर ने अपनी जान जोखिम में डाल कर बीरबल की जान भी बचाई थी। मैदान में हाथियों की लड़ाई का खेल चल रहा था। अकबर और बीरबल भी दर्शक के रूप में मौजूद थे। तभी अचानक साकर नाम का हाथी जिसको कैदियों को कुचल कर मारने की ट्रेनिग दी गई थी, अचानक ही मुड़ा और बीरबल की तरफ दौड़ा। यह देख अकबर एक घोड़े पर कूद कर चढ़ा और बीरबल तथा हाथी के बीच में आ गया। दर्शकों मे हाहाकार मच गया तभी हाथी अचानक रुक गया। इस प्रकार बादशाह ने अपनी जान की परवाह न करके बीरबल की जान बचाई। बहुत समय से अकबर की इच्छा थी कि गंगा-यमुना के संगम पर प्रयाग में एक किले का निर्माण कराया जाय। काफी समय बाद उसको अपनी इच्छा पूरी करने का मौका मिला। अकबरनामा में विवरण मिलता है कि इलाहाबाद में नींव 1583 में रखी गई। हकीदा-अल-इकालिम के लेखक के अनुसार इलाहाबाद के किले को बनवाने में उस समय दो करोड़ कुछ लाख रुपये खर्च आया था।

अकबरनामा में इलाहाबाद जाते समय अकबर के कालपी में भी रुकने का उल्लेख है। इसके अनुसार वह 22 अबान को कालपी पहुंचा। ब्रोकमेन के जालौन गजेटियर के अनुसार अकबर कालपी में वर्ष 1583 में आया था। इस समय कालपी का जागीरदार मुतालिब खां था। उसने अकबर की अनेक प्रकार से खातिर की। अकबर यमुना नदी में नाव द्वारा यात्रा करके कालपी पहुंचा था। ऐसा लगता है कि अकबर की यह यात्रा कार्य के साथ मनोरंजन के लिए भी थी। यहाँ पर कालपी में यमुना के किनारे पर ही शाही शामयाना लगाया गया था। एक जगह मुझको अकबर के टेंट के बारे में भी सूचना मिली थी वह आपसे साझा करता हूँ कि अकबर का शामयाना कैसा था-
Akbar’s tours required elaborate preparations. It was a vast canvas city that they erected for him while on circuit-not a dhobikhana such as the western tents imply but tents made of cloth of variegated colours, printed and dyed, worked with floral designs, richly embroidered with gold and silver lace, hugh dewan-khanas, private apartments, bed-rooms, apartments for ambassadors, for Amirs and personal attachees, servants-male and female, begums, Ibadat khanas, officers,-all with partitions, doorways and windows, upper stories, domes and domelets, akylight on pillars forty yards high held together by 14 ropes. Finally Sehat Khanas which was the name to Paikhanas or latrines. अकबर कालपी आ गया मगर साथ ही बीरबल की मुसीबत भी साथ आई। वो कैसे अब अगली पोस्ट में।


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© देवेन्द्र सिंह  (लेखक)

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