देवेन्द्र सिंह जी - लेखक |
अब अपने जालौन के भाग पर शुंग राजाओं का अधिकार हो
गया। मत्स्य पुराण में पुष्यमित्र शुंग के राज करने का उल्लेख मिलता है। पाणिन के अनुसार
शुंग ब्राह्मण थे। हो सकता है कि ब्राह्मण होने के कारण ही पुष्यमित्र बौद्ध धर्म का
विरोधी रहा हो। पुष्यमित्र एक सुदृढ़ शासक था और उसका साम्राज्य दक्षिण में नर्मदा नदी
तक था। एच०सी०राय चौधरी की पुस्तक पोलिटिकल हिस्ट्री ऑफ़ एंसियंट इंडिया के अनुसार
पुष्यमित्र ने अपने बड़े पुत्र अग्निमित्र को विदिशा का राज्यपाल नियुक्त किया था, जालौन का क्षेत्र इसी सूबे के अंतर्गत
था। शुंग वंश के दस राजाओं के राज करने का विवरण मिलता है। पुष्यमित्र, अग्निमित्र, वशु ज्येष्ट, वसुमित्र,
अन्धारका, पुलिद्का, घोषा,
वज्रमित्र, भगभाद्र और देवभूति। इनकी राजधानी पाटिलपुत्र
थी। कालिदास के अनुसार पुष्यमित्र ने अपने पौत्र वसुमित्र को अश्वमेघयज्ञ के घोड़े की
रक्षा का भार दिया था, जिसको सिंध और चम्बल के मध्य में पकड़ गया था। इस कारण वसुमित्र
ने यहाँ के लोगों को पराजित करके अपनी अधीन कर लिया। शुंग राज बहुत विशाल था। भरहुत
का प्रसिद्ध स्तूप शुंग काल कि कला का स्मारक है। इस वंश का अंतिम राजा देवभूति अत्यंत
कामुक, विलासी तथा लंपट था। उसके मंत्री वासुदेव कण्व ने ७२ बी०सी०
में षणयंत्र करके उसकी हत्या करवा दी। इस तरह पुष्यमित्र से देवभूति तक ११२ वर्षों
तक (१८४-७२ बी०सी०) तक जालौन के क्षेत्र में शुंगों का शासन रहा।
वासुदेव कण्व ने अपने वंश का शासन तो स्थापित कर लिया
मगर यह राजवंश अल्पकालीन ही राज कर सका। वासुदेव के बाद भूमिमित्र,नारायण और सुशर्मन नाम के केवल तीन
ही राजा इस कुल में हुए। ईसापूर्व ३० में आंध्र के सातवाहन राजा ने हत्या करके इस राजवंश
को समाप्त कर दिया। कुछ समय बाद कुषाणों जो
प्रसिद्ध घुमक्कड़ जाति युची की एक शाखा थी, ने उत्तरी भारत पर अधिकार कर लिया। कनिष्क
इस इस कुल का सर्वश्रेष्ठ सम्राट था। उसने पेशावर को अपनी राजधानी बनाया और बनारस के
साथ-साथ मालवा पर भी अपना अधिकार कर लिया। अतः जालौन का क्षेत्र भी कुषाण राज का अंग
हो गया। कनिष्क बौद्ध धर्म को मानता था। उसकी राज सभा में नागार्जुन जैसा आचार्य और
दार्शनिक था। वाशुमित्र महाविभाषा शास्त्र का लेखक था। चरक आर्युवेद विज्ञान का ज्ञाता
और चरक संहिता का लेखक था। कनिष्क का बनारस का क्षत्रप बनस्पर था, बाद में वह महाक्षत्रप
भी बना। डा० काशी प्रसाद जायसवाल की पुस्तक अंधकार युगीन भारत जिसका अनुवाद
रामचन्द्र वर्मा ने किया है के अनुसार बनस्पर के वंशज ही बुंदेलखंड में बनाफर कहलाए।
इससे यह कहा जा सकता है कि आल्हा और उदल आदि इसी वंश के थे। कनिष्क का उतराधिकारी हुविश्क
हुआ लेकिन हुविश्क के उतराधिकारी वासुदेव के समय से इस वंश का पतन शुरू हो गया। इनके
कुछ सिक्कों में नंदी और त्रिशूल के मिलने से कहा जा सकता है कि शैव धर्म को भी कुषाणों
का प्रश्रय प्राप्त था। इनकी राजधानी पेशावर के साथ ही मथुरा में भी थी। आर्क्लोजिक्ल सर्वे आफ इंडिया भाग दो पेज ३०८ के
अनुसार वासुदेव के मरने के साथ ही नरवर के पास पवायाँ के नागवंशी भारशिवों ने इस क्षेत्र
से कुषाण सत्ता का अंत कर दिया।
कुषाण साम्राज्य के पतन के बाद नागपूजक लोगों का यहाँ
उदय हुआ। कुछ इतिहासकारों ने इनको अनार्य भी कहा है। नरवर के पास पद्मावती नागों का
प्रमुख नगर था। नाग राजा शिव के उपासक थे अतः भारशिवों के रूप में भी इनका उल्लेख किया
जाता है। उत्तर भारत के बड़े भू-भाग पर तीसरी और चौथी शताब्दी में नागों के शासन होने
की पुष्टि उनके अभिलेखों और सिक्कों से होती है। इन सिक्कों से ११ नाग राजाओं के नामों
का पता चलता है। एस०डी० त्रिवेदी की पुस्तक बुंदेलखंड का पुरातत्व के अनुसार
भवनाग और गणपति नाग बड़े प्रतापी राजाओं में से थे। चौथी शताब्दी के मध्य में इस क्षेत्र
को समुद्रगुप्त ने जीत कर यहाँ पर गुप्त वंश का राज स्थापित किया। इस वंश में कई प्रतापी
राजा हुए जिनमे चन्द्रगुप्त,
समुद्रगुप्त, चन्द्रगुप्त द्वितीय, कुमारगुप्त और स्कंदगुप्त थे। वाण के हर्ष चरित्र के अनुसार समुद्रगुप्त ने
अपने राजकाल के शुरू में ही नागसेन और गणपति नाग को पराजित करके उसका राज हस्तगत कर
लिया था। समुद्रगुप्त के एरन से प्राप्त अभिलेख से पता चलता है कि उस समय यह क्षेत्र
गुप्त साम्राज्य का अंग था।
चन्द्रगुप्त द्वितीय के समय में जिसको हम अब आधुनिक बुंदेलखंड
कहते हैं उन सब पर उसका शासन था। इसके राज्यारोहण के लगभग दो सौ वर्षों बाद बुद्धगुप्त
का शासन शुरू हुआ। इसके समय में यमुना और नर्मदा के मध्य का शासन उसके मांडलिक सुरभि
चन्द्र के पास था जिसके दो सरदार मात्रुविष्णु और धान्यविष्णु सारा राज संभाले थे।
जब तक गुप्त प्रबल रहे हूण उनसे टकरा कर चले जाते थे लेकिन जब ५वी शताब्दी के अंत में
गुप्त शक्ति कमजोर हुई तब हूण टिड्डी दल की तरह पश्चिम भारत को जीतते हुए मध्यभारत
तक छा गए। ४८३ ई० में बुद्धगुप्त के उतराधिकारी नरसिंह गुप्त के समय में एक हूणों से
हुए एक युद्ध में गुप्त सेनापति गोपराज के मारे जाने का उल्लेख मिलता है। मंडलीय शासक
मात्रुविष्णु और धन्यविष्णु के समय में तोरमण का आक्रमण होने पर उन्होंने उसकी अधीनता
स्वीकार कर ली। महाभारत, पुराण, रघुवंश
तथा हर्ष चरित में हूणों का उल्लेख है। ये मध्य एशिया के मैदानों में रहने वाले असभ्य
और क्रूर प्रक्रति के थे। तोरमण के बाद उसका पुत्र मिहिरकुल राजा हुआ। उसका शासन यहाँ
पर ५१८ से ५३० ई० तक रहा। मिहिरकुल ने पंजाब से लेकर ग्वालियर तक के क्षेत्र को अपने
अधिकार में कर लिया था। इस जालौन का इलाका भी उसके राज में ही था। मिहिरकुल का प्रभाव
जालौन के क्षेत्र में लगभग चालीस वर्षों तक रहा। जिस समय गुप्त शासक हूणों से जूझ रहे
थे लगभग उसी समय मालवा में यशोधर्मन का प्रादुर्भाव हुआ। इसी मालवाराज यशोधर्मन ने
मंदसोर में अपनी राजधानी बनाई और एक शक्तिशाली सेना का गठन करके ५३० ई० में मिहिरकुल
को पराजित करके यहाँ से भगा दिया और अपनी सत्ता कायम कर ली। मंदसोर के पास दशपुर के
स्तम्भ लेख में उल्लेख है कि – मिहिरकुल, जिसने भगवान शिव के अतिरिक्त और किसी के सामने सिर नहीं झुकाया था,
ने अपने राज मुकुट के पुष्पों के द्वारा उसके युगुल चरणों की अर्चना
की।
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© देवेन्द्र सिंह (लेखक)
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