Thursday, April 12, 2018

इतिहास की तंग गलियों में जनपद जालौन - 19

देवेन्द्र सिंह जी - लेखक 

आपने जाना कि गोविन्द पन्त बल्लाल खेर अपने छोटे पुत्र गंगाधर गोविन्द के साथ कालपी आए और किले में अपना मुख्यालय बनाया। आज वहाँ से आगे की कुछ बातें आपसे साझा करता हूँ। गोविन्द पन्त को शुरू में जो इलाका मिला था मगर हीरा लाल के मध्य प्रदेश के इतिहास के अनुसार 16 वर्ष के अपने कार्यकाल में उन्होंने छत्रसाल के पुत्रों से चरखी,रायपुर, कनार, जालौन, कोंच, मोहम्दाबाद, एट, केलिया, महोबा, हमीरपुर तथा सागर के इलाके प्राप्त कर लिए और गढ़ाकोटा (सागर) से पूरे इलाके का शासन चलाना शुरू किया। सागर को छोड़ कर अपने जिले को देखें यहाँ गोविन्द पन्त ने क्या किया।

जालौन के इलाके में गोविन्द पन्त ने परगनों की देखभाल के लिए तथा कर वसूली के लिए अपने विश्वासपात्र आदमियों को नियुक्त किया। इटौरा में हरी विठल दिगनकर, मोहम्दाबाद में गोविन्द जीवाजी नापड़े को नियुक्त किया जो वहाँ से मोहम्दाबाद, एट, उरई, सैदनगर, कोटरा आदि का कार्य देखते थे। काशी पन्त लाघटे को जालौन में नियुक्त किया गया जहाँ से वे इटावा तक का छेत्र देखते थे। गोविन्द पन्त की एक पुत्री भगीरथी बाई थी जिसका विवाह सागर के विशा जी गोविन्द चन्दोरकर से करके उसको सागर सूबे का भार सौपा जिस पर गोविन्द पन्त  ने 1738 में अधिकार कर लिया था। गोविन्द पन्त ने इन प्रान्तों का प्रबंध इतनी अच्छी तरह से किया कि कि पेशवा ने उनको पालकी का प्रयोग करने का अधिकार भी दिया जो पेशवा के राज में बड़े सम्मान और आदर की सूचक बात थी। इतना ही नही प्रान्त की आमदनी से 750 रुपए पाली खर्च के लिए देने की स्वीकृति भी प्रदान की।

मराठे जालौन में आ तो गए मगर जालौन और कालपी के आसपास के लोगों को उनकी आधीनता स्वीकार करना रुचिकर नहीं लग रहा था। वे बाहरी ही माने गए इस कारण सबसे पहले चुर्खी के हरी शाह बुंदेला ने मराठों के विरुद्ध विद्रोह का झंडा उठाया और कालपी के आसपास के कुछ इलाके पर अधिकार कर लिया। चुर्खी की राजा हरिशाह ओरछा के राजा प्रथ्वी सिह का निकट संबंधी था। मराठो ने 1742 में ओरछा के राजा से झाँसी का क्षेत्र और किला माँगा था। न देने के कारण मराठों ने ओरछा पर आक्रमण करके प्रथ्वी सिंह को कैद कर लिया और उसको बलवंत नगर के किले में बंदी बना कर रखा। बलवंत नगर का का किला ही आजकल झाँसी के किले के नाम से जाना जाता है। पृथ्वी सिंह को झाँसी का किला और झाँसी इलाके का आधा भाग मराठों को देना पड़ा था तब उसको कैद से मुक्ति मिली थी। चुर्खी के हरि शाह पृथ्वी सिंह के रिश्तेदार थे इस कारण वे भी मराठों से नाराज थे और अक्सर मराठो के कालपी के इलाके में लूटमार करते थे। गोविन्द पन्त के पास सैन्य बल नहीं था अतः उनकी मदद को झाँसी से नारों शंकर, जयाजी सिंधिया तथा मल्हार राव होल्कर सेना सहित चुखी आए। हरिशाह मराठों की इस भारी सेना का सामना क्या करता। झुक कर संधि के लिए मजबूर हो गया। 17 जुलाई, 1745 को संधि में हस्ताक्षर हुए जिसके अनुसार हरीशाह को गुजारे के लिए मुसमरिया, औंता और अटरिया केवल तीन गाँव मिले लेकिन जैसे ही मराठा सेना चुर्खी से वापस लौट गई हरीशाह ने फिर से सेना एकत्रित करके मराठों को परेशान करना शुरू कर दिया। नारों शंकर को फिर चुर्खी आना पड़ा। अबकी बार जो युद्ध हुआ उसमे हरि शाह मारा गया। इस प्रकार मराठों के विरुद्ध जिला जालौन में विद्रोह का सामना हो गया।

1749 तक गोविन्द पन्त ने सीकरी, सुढार आदि को जीत कर कछवाहाघार में अपनी सत्ता स्थापित कर ली। दिसंबर 1758 में अमखेड़ा के जमीदार कल्याण सिंह ने मराठों के खिलाफ विद्रोह कर के सिरसा और गिधोसा में लूटमार की। लेकिन मराठे यहाँ पर पाँव जमाते गए रामपुरा और कनार भी पूरी तरह से उनके झंडे के नीचे आ गया। गोविन्द पन्त ने इसके बाद इटावा की तरफ का रुख किया तथा इटावा के हाकिम असगर अली को युद्ध में मार कर इटावा, सकुराबाद, फफूंद और पारा पर पूर्ण रूप से अधिकार कर लिया। गोविन्द पन्त ने जब यहाँ पर शांति स्थापित कर ली तब पूना में रह रहे मराठों ने इस तरफ के तीर्थ स्थलों जैसे इलाहाबाद में संगम, काशी आदि की यात्रा के बारे में सोचा। दक्षिण से मराठों के दल उत्तर भारत में तीर्थ के लिए आने लगे। पेशवा के भाई की पत्नी के यहाँ आने का विवरण मिलता है। डा० अंधारे के अनुसार पेशवा के छोटे भाई जनार्दन की मृत्यु कम उम्र में हो गई थी। उसकी विधवा पत्नी सगुना बाई ने उतर भारत के तीर्थ स्थलों के भ्रमण करने की इच्छा जाहिर की। पेशवा ने गोविन्द पन्तको इस यात्रा की व्यवस्था का दायित्व सौपा। 1756 में सगुना बाई ने पूना से काशी, प्रयाग, मथुरा की यात्रा के लिए प्रस्थान किया। उनके साथ देवराव लघाटे, भीखा नायक रामजीराव चंद्रावरकर, मोरो बल्लाल, आदि हजारों तीर्थयात्री थे। पेशवा ने गोविन्द पन्तको लिखा कि खर्च के लिए 9000 रुपए सगुण बाई को दें और इस रकम को बुंदेलखंड की जमा से मुजरा कर दें। इस घटना को लिखने का कारण यह है कि इससे पता चलता है की गोविन्द्पंत ने इस क्षेत्र में शांति स्थापित कर ली थी और रेवन्यू की वसूली भी रेगुलर होने लगी थी। सुगना बाई के यहाँ आने पर उनके साथ भारी सैन्य बल और गोविन्द्पंत के बड़े पुत्र बालाजी गोविन्द सागरवाले खुद सगुना बाई के साथ इन तीर्थ यात्रियों के साथ एस्कोर्ट करते हुए गए। 3 मार्च, 1756 तक सगुण बाई का दल प्रयाग में रुक कर धार्मिक कर्मकाण्ड करता रहा। सगुना बाई की इच्छा मथुरा जाने की भी थी परन्तु अब्दाली के आने की सूचना मिल रही थी अतः सगुना बाई की मथुरा जाने की मन की मुराद पूरी न हो सकी। लौट कर यह दल कालपी आ गया। कुछ दिन रुक कर फिर कोंच के रास्ते भांडेर होता हुआ झाँसी पहुंचा और वहां से पूना का रास्ता पकड़ा। जालौन के इलाके में मराठों का अधिकार हो जाने से यहाँ पर बहुत से मराठा परिवार दक्षिण से आकर बस गए। इस कारण इंदौर , धार, ग्वालियर, सागर, दमोह, जालौन, और कालपी में मराठा सभ्यता और संस्कृति का खूब प्रसार हुआ। गोविन्द पंत ने अपना प्रभाव इतना बढ़ा लिया कि मुगल बादशाह ने उनको दोआब से भी कर वसूलने की सनद दे दी। यहाँ के बुंदेला राजाओं को भी गोविन्द पंत ने अपने प्रभाव में ले लिया वे अब हर बात में उनकी सलाह लेने लगे। अब गोविन्द पंत बल्लाल खेर इस क्षेत्र में गोविन्द पंत बुंदेला के नाम से भी प्रसिद्ध हो गए थे।

गोविन्द पंत वर्ष 1755, 1756 और 1757 का सालाना आय व्यय का विवरण पूना नही भेज सके थे या यह कहिये कि नही भेजे थे, इस कारण पूना से पेशवा बालाजी बाजी राव उर्फ़ नाना साहब ने त्रिंबकराव पन्त, कृष्णा कानेटकर तथा जनार्दन अप्पाजी यारान्दे को गोविन्द पंत के लेखा जोखा के जाँच के लिए भेजा। इन अधिकारीयों ने पाया कि गोविन्द पंत ने बिना पेशवा की आज्ञा के सैनिक व्यय में बढ़ोतरी की, और बिना पेशवा के संज्ञान में लाए भेटें भी स्वीकार कीं। जब इस ऑडिट दल ने गोविन्द पंत से सब पेपर दिखाने को कहा तो वे टालमटोल करते रहे। अब इस जाँच दल ने खुद जमीदारों राजस्व अधिकारीयों से मिलने का मन किया तब उनको मिलने नही दिया गया। यह जाँच दल दो वर्षों तक यहाँ पर रहा पर और इन दो वर्षों तक गोविन्द पन्त इनको टालते रहे। इन अधिकारीयों की रिपोर्ट पर कोई कार्यवाई हो पाती भारतवर्ष पर अब्दाली का आक्रमण हो गया और गोविन्द पंत के खिलाफ कोई कार्यवाई नहीं हो सकी।


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© देवेन्द्र सिंह  (लेखक)

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