देवेन्द्र सिंह जी - लेखक |
जालौन
में १८५७ की क्रांति के कारण
मेजनी
ने कहा है कि स्वतन्त्रता प्रत्येक का निसर्गदत्त अधिकार है अत: इस निसर्गदत्त अधिकार
का अपहरण करने वाले प्रत्येक अत्याचारी का उच्छेदन करना भी निसर्गदत्त कर्तव्य है।
1857 के स्वतन्त्रता संग्राम के पीछे भी शायद मेजनी
की उपरोक्त धारणा ही बलवती रही थी। जनपद जालौन में भी अंग्रेजी शासन के प्रति असंतोष
के अनेक कारण थे जिन्होंने यहाँ के प्रमुख तथा आमजन को अपने अधिकारों के प्रति सचेत
किया। जालौन में मराठा राज का कंपनी राज में विलीनीकरण ने जालौन की ताईबाई की आशाओं
का गला घोट दिया। नाना गोविंदराव की नातिन होने के कारण उसका जो अधिकार बनता था उसकी
अंग्रेजों द्वारा पूर्णतया उपेक्षा की गई। जालौन में किये जाने वाले भूमि बन्दोबस्त
से भी जनता में असंतोष व्याप्त था। मराठो द्वारा जनता से कितना लगान लिया जाता था उसकी
सूचना तो उपलब्ध नहीं है। 1805 में जब अंग्रेजों ने जिले के कोंच
और कालपी परगनों पर अधिकार किया तभी से बन्दोबस्त के आंकड़े उपलब्ध हैं। उन पर नजर डालने
से पता चलता है कि कंपनी सरकार किस प्रकार से यहाँ की जनता को लूटने में लगी थी। अंग्रेजों
ने बंदोबस्त में हर बार बढ़ोतरी करके जिस प्रकार से यहाँ की जनता को कष्ट दिए उनका विवरण
पहले ही दिया जा चुका है अत: उसके दोहराने की आवश्यकता नहीं है। विलियम म्यूर ने खुद
अपनी रिपोर्ट में लिखा था – The jamindars who had engaged were reduced
to object poverty, and of the insssane speculators none at last were left, they
had retired from scene impoverished or ruined.
1838 में जालौन के मराठा राज की स्थिति सुधारने के लिए कैप्टेन डूलन को कंपनी सरकार
ने यहाँ भेजा था। डूलन ने जालौन में न रह कर उरई को मुख्यालय बनाया। डूलन का काम था
मराठा राज की वित्तीय स्थिति को सुधारना। इस समय में चूँकि सभी खर्चे जालौन राज को
ही उठाने थे अत: खर्चे कम किए जाने चाहिए थे मगर ऐसा नहीं किया गया। डूलन का वेतन 2000
रु० प्रतिमाह निर्धारित किया गया यही नहीं उनकी मदद के लिए 250
रु० प्रतिमाह के वेतन पर चार सहायक भी दिए गए। उस समय के हिसाब से यह
बहुत अधिक था। डूलन ने पहला काम जो किया वह था मराठा राज की सेना को भंग करना। इस कारण
यहाँ पर बेकारी फैली और लोगों अंग्रजों के प्रति क्रोध पैदा हुआ। डूलन ने जो बन्दोबस्त
किया वह इतना ज्यादा था कि वसूल ही नहीं हो सकता था। कड़ाई से वसूली करने से और असंतोष
हुआ। 1855 में जालौन के अधिकारी ने खुद उच्च अधिकारी को लिखा
कि जमींदारों की स्थिति बहुत खराब है और उनमे से अधिकतर कर्ज में डूबे हैं,
उनके पास जानवरों को छोड़ कर और कोई दूसरी व्यक्तिगत संपति नहीं है। मालगुजारी
एकत्रित करना बहुत मुश्किल है क्योंकि जिले की भूमि के 1/6 भाग
पर तो कृषि कार्य होता ही नही है। उसने सुझाव दिया कि जमा में किसी भी प्रकार की वृद्धि
नहीं होनी चाहिए। मेजर इर्शिकिन द्वारा किया गया बन्दोबस्त कुछ ज्यादा ही भारी था।
ऐसी स्थिति में जालौन की जनता का असंतुष्ट होना स्वाभाविक ही था।
जालौन
पर कंपनी के आधिपत्य के समय जिले के कोंच और कालपी उदद्योग और व्यापार के केंद्र थे।
1840 तक कोंच सभी प्रकार के वस्तुओं का गढ़ हुआ करता
था। यहाँ ऐसी दुकाने थीं जहाँ बैंक का काम भी होता था अर्थात हुंडी खरीदी जा सकती थी।
यातायात के साधन तो बहुत अच्छे नहीं थे फिर भी नमक, गुड,
शक्कर, घी और अन्य चीजें यहाँ से समथर,
दतिया तथा ग्वालियर के रास्ते बाहर जाती। कालपी उत्तर भारत का एक बहुत
बड़ा बाजार था। काटन और अल (लाल रंग जिस पौधे से बनता था) यहाँ की मुख्य चीजें थीं जो
उत्तरी-पश्चिमी भारत के विभिन्न भागों में भेजी जाती थी। घी और चना भी दोआब भेजा जाता
था किन्तु जालौन पर कंपनी राज के अधिकार होते ही अल और रुई उद्योग का पतन शुरू हो गया।
जिले में केवल कपास का उत्पादन ही बहुलता से नहीं होता था बल्कि यह कपास दोआब की अपेक्षा
अधिक मुलायम व सफेद होती थी। स्वाभाविक रूप से इसका मूल्य भी अधिक होता था। एक समय
सरकारी तौर पर इसकी खरीद 40 लाख रु० की हुई थी मगर कंपनी राज
में इसकी खरीद 18 लाख रु० की ही रह गई। व्यापार में यह पतन कंपनी
की व्यापार नीति तथा भूमि के बंदोबस्तों के कारण हुआ जिसकी वजह से जिले में भुखमरी
तथा गरीबी आई।
उत्तरी-पश्चिमी
प्रान्त के लेफ्टिनेंट गवर्नर ने 9 मार्च
1855 को एक विज्ञप्ति के द्वारा सागर प्रभाग के कमिश्नर के सुपरिंटेंडेंट
के आधीन जो इलाके थे वहां पर एक सीमा शुल्क पंक्ति स्थापित कर दी। इसका असर यह हुआ
कि जो नमक मगाया जाता था उस पर एक से दो रुपया टेक्स लगने लगा। प्रान्त के लेफ्टिनेंट
गवर्नर के आधीन पूर्वी और दक्षिणी सीमा शुल्क पंक्ति पर पुष्टकारक नमक का बनाया जाना
निषिद्ध था। गलत तरीके से नमक के आयात को रोकने के लिए कंपनी सरकार ने सीमा शुल्क चौकियां
स्थापित कर दी। कालपी में भी एक स्थापित हुई। जिले के लोग इसको परमिट चौकी के नाम से
जानते थे। इसका इंचार्ज मालगुजारी का कलेक्टर होता था। जनसंख्या का बड़ा भाग नमक के
निर्माण न कर सकने के कारण दुखी था और इस पर कंपनी के कर्मचारियों द्वारा बलात वसूली
ने उन्हें और अधिक पीड़ित कर रखा था।
जिले
में अल की खेती बहुत की जाती थी क्योंकि इसकी जड से लाल रंग तैया किया जाता था। जिसकी
चारो तरफ बहुत डिमांड थी। इसकी खेती से किसानों को बहुत आमदनी होती थी। परमट लाइन स्थापित
हो जाने से इसके व्यापार में कमी आई। इसके जिले से बाहर जाने पर भारी टेक्स लगा दिया
गया। इतना ही नही इसकी तीन श्रेणियां निधारित की गईं जिन पर अलग-अलग टेक्स लिया जाता।
जो माल दोयम दर्जे का होता उसको पहले दर्जे का बता कर ज्यादा टेक्स देने के लिए मजबूर
किया जाता। इस कारण इसका व्यापार धीरे धीरे कम होता चला गया। आम जनता सरकार की न्याय
व्यवस्था से भी नाराज थी। यह न्यायालय खर्चीले साबित हो रहे थे। सरकार ने ऐसा कानून
लागू किया कि कोई भी अपील या शिकायत किसी भी न्यायालय में तब तक स्वीकार नही की जायगी
जब तक वह निश्चित मूल्य के स्टाम्प पेपर पर नहीं लिखी होगी। अंग्रेज इतिहासकार चार्ल्स
बाल अपनी पुस्तक द हिस्ट्री आफ इंडियन म्युटिनी,
भाग दो में लिखता है कि इस
का असर यह हुआ कि जब जनता इन स्टेम्प पेपर को खरीदने में असमर्थ होती तो उसे अपने दुखों
तथा अपने ऊपर हुए अत्याचार को सहन करने के लिए विवश होना पड़ता। इस बात को सर सैयद अहमद
ने भी असबाबे सर्काशिएहिदुस्तान“ में
माना। अपने निबन्ध में कहते हैं कि स्टेम्प पेपर वो भी भारत जैसे गरीब देश में जहां
गरीबी के कारण असमर्थ थे पूर्णतः अनुचित थी। जालौन के कंपनी राज में विलय का परिणाम
यह हुआ कि बहुत से सैनिक बेरोजगार हो गए, बहुत से दरबारी और अधिकारी
भी रोजगार विहीन हो गए, बहुत से ऐसे परिवार जो इन्ही पर निर्भर
थे, उनके साधन समाप्त हो गए। इस असंतोष के कारण ही जब उनके आश्रयदाताओं
ने विद्रोह किया तो उन सबने अपने आश्रयदाताओं की तरफ से विद्रोह में सक्रिय भूमिका
निभाई।
यहाँ
पर स्थिति 53वीं देशी पलटन के सिपाहियों के दुःख भी बंगाल
के देशी सैनिकों के ही समान थे। परिणामस्वरूप उन्होंने भी विद्रोह में उनका पूरा साथ
दिया। सरकारी दस्तावेजों से पता चलता है कि चर्बीयुक्त कारतूस जालौन के सैनिकों के
मध्य चर्चा का प्रमुख विषय रहा था। यहाँ के हिदू और मुसलमान दोनों ही धर्मों के सैनिक
अपने धर्म के प्रति शंकित व भयभीत हो गए। इस जिले को लोगों की इसाई धर्म तथा मिशनरियों
के प्रति जो प्रतिक्रिया थी वह विद्रोह के दौरान प्रकट हुई।
अंधविश्वास
और अफवाहों ने भी बड़ा रोल अदा किया। कहा तो यह भी जाता है कि चपातियों के आरंभ होने
का स्थान बुन्देलखण्ड ही था। आटे में सूअर और गाय की हड्डी मिली होने की खबर ने भी
जनता के मस्तिक को आंदोलित किया। इन बातों से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि जालौन
के मराठा राज का अन्यायपूर्ण नीति से कंपनी राज में विलय,
ताईबाई के साथ किया गया अन्याय, कंपनी की रेवन्यू
नीति, बन्दोबस्त में अधिक मुल्यांकन, लगान
न जमा कर पाने की स्थिति में भूमि की बिक्री, राजस्व टेक्स से
मुक्त भूमि पर टेक्स का थोपा जाना, उबारी प्रथा का समाप्त किया
जाना, जटिल नियमों के तहत जालौन की जनता को लाना जिसकी वह आदी
नहीं थी। इसके साथ ही लोगों के धार्मिक पूर्वग्रहों को ध्यान में रखे बिना सामाजिक
विधान में बदलाव। इसके साथ ही सैनिकों की शिकायतें। इन सब बातों ने जालौन में असंतोष
पैदा किया और ब्रिटिश शासन के खिलाफ यहाँ के सभी लोगों को विमुख कर दिया था।
लेकिन
मै यह भी कहना चाहूँगा कि पूरे भारतवर्ष में विशेष रूप से जालौन में भी विद्रोह का
लावा केवल इन्हीं कारणों से नही फूटा। ये तो काफी दिनों से एकत्र एक ऐसा ज्वालामुखी
था जो अत्यधिक दबाव के कारण बह निकला। निर्जीव वीणा के तार भी अधिक खिचाव न सहन कर
पाने के कारण टूट जाते है अर्थात सहनशक्ति की भी एक सीमा होती है फिर मानव तो स्पंदनशील
प्राणी है जो प्रत्येक चीज से प्रभावित होता है, उसमे सोचने की समझने की शक्ति है। लेकिन जब अंग्रेजों ने उसकी असंतोष तथा कष्टरूपी
वीणा के तारों को जोर से खीचा तो वे तार टूट गए और अपने स्वधर्म तथा स्वराज को प्राप्त
करने के लिए दृढ़ संकल्प हो गए।
आज
की पोस्ट इतनी ही। आमजन को इसमें ज्यादा मजा नहीं आएगा मगर इसको जाने बगैर आगे का इतिहास
लिखा नहीं जा सकता, इस कारण इसका लिखा जाना
जरूरी लगा।
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© देवेन्द्र सिंह (लेखक)
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