देवेन्द्र सिंह जी - लेखक |
केशवराव
ने ब्राउन के पत्र को कोई महत्व नहीं दिया और जिले का प्रशासन संभाल कर अपने आदमियों
को नियुक्त करना शुरू कर दिया। केशवराव तो शुरू से ही जालौन का राज प्राप्त करना चाहता
था। जब जालौन राज की गोद का मामला 1840
में आया मगर अंग्रेजों ने इनकी मांग को अस्वीकार करके जालौन राज को अंग्रेजी राज में
समाहित कर लिया था। बिल्ली के भाग से छींका टूटा था। बात यह थी कि केशवराव के कई पुत्र
थे और गुरसराय स्टेट छोटी थी, वह चाहता था कि जालौन भी मिल जाय तो सब पुत्रों का भला
हो जाय। उसने अपने चौथे पुत्र सीताराम नाना को जालौन का भार दिया जिसमें जालौन,
कोंच, उरई और कनार का क्षेत्र था। बड़े पुत्र शिवराम
तांतिया का मुख्यालय कालपी में रखा गया जहाँ से उसको कालपी, आटा,
मोहम्मदाबाद आदि परगनों को देखना था।
सेना
द्वारा क्रांति की शुरुआत करते ही जिले में आम जनता भी क्रांति में शामिल हो गई। डिप्टी
कलेक्टर पशन्ना के अनुसार भदेख के राजा पारिक्षित और बिलायाँ के बरजोर सिंह उनके नेता
थे। इनके प्रयास से क्रांति की ज्वाला गाँव-गाँव में फैल गई। अभी तक किसी अंग्रेज की
हत्या जैसी कोई घटना नहीं हुई थी। 15 जून
को झाँसी के क्रान्तिकारी सैनिकों का एक अग्रिम दस्ता कानपुर जाते हुए उरई में रुका।
इन सैनिकों ने सबसे पहले जेल को तोड़ कर कैदियों को मुक्त कर दिया। इसके बाद सरकारी
कार्यालयों में आग लगा दी। अभी भी बहुत से सरकारी कर्मचारी जिले में रुके हुए थे उनकी
समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करें। दो अंग्रेज डिप्टी कलेक्टर अभी भी जिले में रुके
थे हालाँकि वे कुछ काम नहीं कर रहे थे लेकिन जब झाँसी के अग्रिम क्रान्तिकारी दस्ते
ने उरई में जेल खोल कर कैदियों को मुक्त कर दिया, कचेहरी में आग लगा दी तब उनको अपनी
जान बचाने की पड़ी।
जालौन
के तहसीलदार इनायत हुसेन ने जालौन के किले को केशवराव से बचाने की बहुत कोशिस की थी।
इस कारण केशवराव के लडके ने इनको कैद करके विद्रोही सैनिकों को सौप दिया जो इनको अपने
साथ कानपुर ले गए। वहाँ से ये किसी प्रकार बच निकले और बचते बचाते अपने पिता के पास
बाँदा पहुंचे जहाँ पर वे डिप्टी कलेक्टर थे।
उरई
के तहसीलदार मोहम्मद हुसेन डिप्टी कमिश्नर ब्राउन के चहेते थे। वे उरई छोड़ते समय अपनी
पूरी संपति इनको ही सौंप गए थे। ये भी जान बचा कर उरई से भागे और इटौरा पहुंचे। इटौरा
के जमीदार भी क्रांति समर्थक थे उन्होंने इनको पकड़ लिया और इनका सब धन लूट कर जाने
दिया। क्रांति की समाप्ति के बाद अंग्रेजों ने इनको फतेहपुर जिले में तहसीलदार नियुक्त
किया था।
आटा
के तहसीलदार हमीद-उल-जमा भाग कर अपने पिता के पास हमीरपुर पहुंचे जहाँ पर वे डिप्टी
कलेक्टर थे। फिर वहां से पिता पुत्र अपने वतन रामपुर स्टेट चले गए।
माधोगढ
के तहसीलदार गुलाम हुसेन खां अंग्रेजों के पक्के समर्थक थे। इनका जन्म 18 मार्च 1828 को हुआ था। इन्होने 50 रु० महीने पर हमीरपुर में जेल दरोगा के पद से नौकरी शुरू की थी। 24
मार्च 1857 को ये जिले में तहसीलदार के पद पर आए
थे। तीन माह के अन्दर ही क्रांति का आगाज हो गया। लहार के तहसीलदार के विद्रोहियों
के साथ मिल जाने पर इन्होने लहार के तहसीलदार का पद भी संभाल लिया। बड़ी हिम्मत से ये
अगस्त तक माधोगढ में जमे रहे फिर भाग कर कानपुर चले गए। बाद में ये कानपुर में तहसीलदार
भी बनाए गए।
लहार
के तहसीलदार नारायणराव क्रांतिकारियों के साथ थे। इन्होंने पहले केशवराव के साथ फिर
ताईबाई के साथ जिले में कार्य किया।
कोंच
के तहसीलदार शिव प्रसाद, मदारीपुर के तहसीलदार
मुहम्मद हुसेन दबोह के चिराग अली अंग्रेजों के समर्थक रहे। इन्होने क्रांतिकारियों
से अपनी जान किस प्रकार बचाई यह पता नहीं चल सका। इतना तो समझा जा सकता है कि यहाँ
से भागे पर पता नही चला कि भाग कर कहाँ गए और कैसे गए।
पुलिस
के थानेदरों में से केवल बंगरा के थानेदार मोहम्मद अली ही विद्रोहियों के साथ थे। बाकी
सब अंग्रेजों के समर्थक थे और झाँसी से विद्रोही सैनिकों के आते ही जिले से भाग लिए।
क्रांतिकारियों ने उरई के थानेदार खुर्रम अहमद के घर पर धावा मारा मगर उनको इसकी भनक
पहले से ही लग गई थी इस कारण वे पहले ही निकल लिए थे। ये अवध के रहने वाले थे अत: वहीं
गए।
छोटे
कर्मचारियों में से ज्यादातर ने केशवराव की नौकरी स्वीकार कर ली थी इस कारण सैनिकों
ने उनको कोई नुकसान नहीं पहुँचाया क्योंकि केशवराव को क्रन्तिकारियों का साथ देने वाला
माना गया। जब सैनिकों ने डिप्टी कमिश्नर ब्राउन की कोठी पर छापा मारा तब उनको उनके
खास सेवक गोपाल सिंह के बारे में पता चला। ब्राउन के धन के बारे में वही सूचना दे सकता
था। उसको बहुत खोजा गया पर वह नहीं मिला और उरई में ही कहीं पर छिप गया। उसको तो नहीं
पकड़ा जा सका मगर दूसरे नौकरों ने वह जगह बतला दी जहाँ पर गोपालराव ने ब्राउन के धन
से भरे 23 बक्से जमीन में गाड़े थे। कुछ बक्सों को गोपाल
सिंह ने कुँए में डाल दिया था सैनिकों ने उनको भी निकाल लिया। ये सब घटनाए 15
जून को घटीं। यह दल केवल लूटपाट करता रहा उसने उरई में रह रहे किसी अंग्रेज
को कैद करने की कोशिश नहीं की।
16
जून को झाँसी से कानपुर जाने वाला मुख्य सैनिक दस्ता रिसालेदार काले
खां के साथ उरई पहुंचा। काले खां ने जिले में बचे अंग्रेजों को न पकड़ने के कारण अग्रिम
दस्ते के कामों पर बड़ा क्रोध किया मगर कुछ किया नहीं जा सका क्योंकि अग्रिम दस्ता रात
को ही कानपुर के लिए प्रस्थान कर गया था।
रिसालेदार
काले खां ने उरई में क्या किया अब यह सब अगली पोस्ट में। धन्यवाद
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© देवेन्द्र सिंह (लेखक)
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आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन विश्व रक्तदान दिवस और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...
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