Saturday, May 12, 2018

इतिहास की तंग गलियों में जनपद जालौन - 25

देवेन्द्र सिंह जी - लेखक 

आपको पता चल गया होगा कि जालौन के मराठा राज में अंग्रेजों ने किस प्रकार से अधिकार किया, लेकिन यह जानकारी अभी अधूरी ही है क्योंकि पिछली किसी पोस्ट में मैंने लिखा था कि कालक्रम को बनाए रखने के लिए मराठा राजवंश के इतिहास को अभी आगे लिखता हूँ। कालपी में उनके समय में अंग्रेजों का अधिकार कैसे हुआ उसका विस्तार से वर्णन आगे करूंगा। अब वह समय आ गया है। इससे आपको जानकारी होगी कि जालौन का पूरा मराठा राज कैसे अंग्रेजों को मिला। इसी से यह भी पता चलेगा कि अंग्रेजों ने जालौन जिले का गठन कब और कैसे किया। तो चलिए फिर से पीछे नाना गोविंदराव के समय में चलते हैं।

गंगाधरराव गोविन्द को तो अपने राज को अंग्रेजों से बचाने में सफलता मिल गई थी लेकिन उनके पुत्र गोविंदराव उर्फ़ नाना साहब इतने भाग्यशाली नही थे। गोविंदराव नाना के समय में पूना में जहाँ उनके आका पेशवा रहते थे घटनाएँ तेजी से घट रही थी। मराठे आपस में ही लड़ रहे थे। अंग्रेज इसी का फायदा उठाने जुटे थे। इसी क्रम में वह समय भी आ गया जब पेशवा को कंपनी सरकार से हार कर संधि करनी पड़ी। 1802 में हुई इस संधि को इतिहास में Treaty of Bassein of 1802 के नाम से जाना जाता है। इस संधि से शिवा जी द्वारा स्थापित मराठा स्वातंत्र्य का अंत हो गया। इस संधि की धारा तीन और चार में यह लिखा गया पेशवा की रक्षा के लिए एक फ़ौज खड़ी की जायगी जिसमे छह बटालियने और तोपें आदि होंगी। इसके लिए पेशवा 26 लाख रुपए प्रति वर्ष कंपनी सरकार को देंगे। इस संधि पर पूना में हस्ताक्षर हुए। अब यह 26 लाख रुपया पेशवा नगद तो दे नहीं सकते थे अत: अंग्रेजों ने पेशवा से एक संधि और की। यह संधि पर पूना में 16 दिसंबर, 1803 में हुई जिसको पहली संधि की पूरक संधि भी कहते हैं। 7 जनवरी, 1804 को गवर्नर जनरल द्वारा अनुमोदित होते ही यह प्रभावित हो गई। इस संधि की धारा 6 के द्वारा यह व्यवस्था की गई कि पेशवा इस सब्सिडरी फ़ोर्स के रखरखाव के लिए बुन्देलखण्ड का वह क्षेत्र जो पेशवा के लिए नवाब अलीबहादुर प्रथम ने जीता था और जिसका मूल्य 3616000 रुपए होगा कंपनी सरकार को देंगे। इसी संधि की धारा 7 में यह भी लिखा गया कि यह जो इलाका कंपनी सरकार को मिलेगा वह ऐसा होगा जो इस तरफ के कंपनी सरकार के इलाके से लगा हुआ हो। 

कंपनी का इस तरफ इलाहबाद पर अधिकार था। उससे लगा इलाका बाँदा का था जहाँ पर इस समय अलीबहादुर के पुत्र शमशेरबहादुर का राज्य था। अंग्रेजों को जो इलाका मिलना था उसका उसकी सीमा का कोई जिक्र संधि में नही था। इस कारण इस तरफ के सभी मराठे शासक चिंतित हुए कि किसका इलाका इस संधि से प्रभावित होगा। सबसे ज्यादा चिंता तो शमशेरबहादुर बाँदा को हुई। इंदौर के होल्कर जिसके पास इस तरफ का कोंच का इलाका था उसने और जालौन के गोविंदराव ने शमशेरबहादुर से कहा कि वह कंपनी के मिर्जापुर के इलाके में लूटपाट करवा कर कंपनी सरकार में भय पैदा करे जिससे वे इधर आने की सोचें ही नही। कंपनी सरकार सोच ही नही पा रही थी की इलाके में आखिर अधिकार कैसे करे। तभी उनको एक ऐसे आदमी से सहायता मिली जिसका नाम हिम्मत बहादुर था जिसकी ख्याति योग्य सेनापति के रूप में थी।

हिम्मत बहादुर का असली नाम अनूप गिरि था। अनुप गिरि ने इतिहास में बहुत नाम कमाया। इसने अवध के नवाब शुजाउदौला की बक्शर की लड़ाई में अपनी जान पर खेल कर उनकी जान बचाई थी इसी कारण नवाब द्वारा हिम्मत बहादुर की उपाधि दी गई थी। बुंदेलखंड में चाहे मराठे हों या मुगल या अंग्रेज सब जानते थे कि बिना हिम्मत बहादुर से सहयोग लिए बिना यहाँ प्रवेश नही हो सकता है। उसका पूरा जीवन ही सेनानायक का रहा है लेकिन वह बहुत बड़ा अवसरवादी भी था। वह पहले अवध के नवाब के साथ था फिर मुगलों के साथ रहा, बाद में अलीबहादुर प्रथम के साथ रहा। जब उसने देखा कि मराठे कमजोर हो रहे हैं तब उसने अंग्रेजों का साथ देने में देर नहीं की। उस समय की भारतवर्ष की सभी राजनीतिक ताकतों से उसका संबंध रहा है। बुंदेलखंड के भू-भाग से वह जितना परचित था उतना उसके समकालीन में कोई भी नही था यही कारण है कि सभी ने सदा उसका सहयोग चाहा। वह जिसका भी साथ देता उसकी जीत होती। 

हिम्मत बहादुर इस समय शमशेर बहादुर से नाराज था क्योंकि नवाब ने उसके चाचा गनीबहादुर को कैद करके जहर दिलवा कर जेल में मरवा दिया था। अंग्रेज तो ऐसे ही आदमी की तलाश में थे उन्होंने हिम्मत बहादुर को हाथो हाथ लिया। कर्नल काइड और इलाहबाद के कलेक्टर अह्मुते ने हिम्मत बहादुर से संपर्क कर बातचीत शुरू की। काफी बातचीत के बाद दोनों पक्षों में सहमति बन ही गई। 4 सितम्बर, 1803 को शाहपुर में सहमत पत्र दोनों ओर से हस्ताक्षर हुए जिसके अनुसार अंग्रेज हिम्मत बहादुर को बुंदेलखंड के इलाके में 20,00000 रु० के मूल्य का क्षेत्र देने को तैयार हो गए। हिम्मत बहादुर को एक फ़ौज तैयार करनी थी जिसको अंग्रेजों की ओर से लड़ना था। बुंदेलखंड में उसको एक परमानेंट जागीर भी देने का वायदा कंपनी सरकार ने किया। यह इलाका उसको यमुना नदी के पश्चमी किनारे में इलाहबाद से कालपी तक का था। हिम्मत बहादुर ने जो चाहा उसको सब मिला। उसको अली बहादुर से मदद के बदले 12,93,996 रु० का मिला था, लेकिन बोर्ड आफ रेवन्यू फोर्ट विलियम की 11 जनवरी, 1805 की प्रोसीडिंग कन्सलटेशन न० 18 के अनुसार 18,53,184 रु० का क्षेत्र मिल रहा था। इस संधि के बारे में डा० श्याम नरायण सिन्हा का कथन है- As for the the British, they also reaped advantageous harvest. The agreement paved the way for expansion of their power in Bundelkhand. Moreover, friendship of Himmat Bahadur diminished the vigour of the Maratha opposition beside offording great facility and assistance to the detachment of British troops that entred Bundelkhand under the command of Colonel Powell in September 1803.

अब घटनाक्रम बड़ी तेजी से चला। सितंबर 1803 में कर्नल पाँवल ने सेना सहित यमुना पार की और शमशेरबहादुर के इलाके में प्रवेश किया। इधर इलाहबाद के कलेक्टर ने सरकार के पास 30 परगनों की सूची भेज कर बतलाया कि यदि इन पर अधिकार हो जाय तो जो पेशवा से संधि हुई है उसके अनरूप 362013 रु० का इलाका प्राप्त हो जायगा। गवर्नर जनरल ने इससे सहमति जताई तदनुसार कब्जे के लिए कंपनी की सेना आगे बढ़ी और महोबा तथा हमीरपुर पर अधिकार कर लिया। 26 नवम्बर, 1803 को पावेल ने राठ पर भी अधिकार कर लिया। अब आप कहेंगे कि जालौन इसमें कहाँ है, इसके लिए आगे पढ़िएगा।  

जालौन के शासक नाना गोविंदराव, शमशेर बहादुर के बड़े सलाहकार बने हुए थे। हारने के बाद शमशेरबहादुर बाँदा से भागे और कालपी में गोविंदराव के पास शरण ली। अंग्रेज कमांडर ने शमशेरबहादुर के पास अपना आदमी भेज कर कैम्प में आने को कहा, मगर गोविंदराव के कहने से वह अंग्रेजों के पास नही गया। इससे अंग्रेज गोविंदराव से बहुत चिढ़े और सबक सिखाने का निरणय लिया। अंग्रेजों को पता था कि कालपी का किला बहुत महत्वपूर्ण है अगर इस पर अधिकार कर लिया जाय तो फ़ौज के कैम्प आदि के लिए बड़ी सुविधा होगी। कमांडर-इन-चीफ ने पावेल को कालपी पर अधिकार करने को कहा। 8 दिसंबर, 1803 के मनहूस दिन को जो युद्ध हुआ उसमे नाना गोविंदराव की सेना पराजित हो गई और कालपी का पतन हो गया। अंग्रेज सेना इतने पर ही नहीं रुकी उसने नाना गोविंदराव के उरई, मोहम्मदाबाद इलाके पर अधिकार कर लिया। इसके बाद उन्होंने कोटरा और सैदनगर के इलाके पर अधिकार किया जो गनीबहादुर के भाई मिर्जा अहमद बेग के अधिकार में था। अंग्रेजो ने गोविंदराव को और सबक सिखाने के लिए 6 जनवरी, 1804 को परगना खरका, 7 मार्च को पनवारी तथा 18 मार्च को सूपा पर अधिकार किया। वे इस पर भी नहीं रुके अब वे कालपी के उत्तर की तरफ बढ़े और यमुना नदी के किनारे के रायपुर के 11 गाँवों पर अधिकार करने के बाद ही रुके। इस तरह मई 1804 में अंग्रेजों का यह अभियान पूरा हुआ। हार के बाद नाना गोविंदराव को अंग्रेजों के कैम्प में हाजिर होना पड़ा।

आज यहीं तक, अंग्रेजों ने नाना गोविंदराव के साथ क्या सलूक किया उस पर जालौन के मराठा राज पर क्या असर पड़ा यह अब अगली पोस्ट में।


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© देवेन्द्र सिंह  (लेखक)
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