देवेन्द्र सिंह जी - लेखक |
आज छत्रसाल के साथ जिले के इतिहास की गलियों में घूमते
है। औरंगजेब की मौत के बाद तो इस क्षेत्र में मुगलों का प्रभाव न के बराबर रह गया था।
पूरे जालौन में छत्रसाल का अधिकार था मगर दिल्ली में बैठे मुगल बादशाह इसको अपने आधीन
मानते हुए दिल्ली में बैठे-बैठे इस क्षेत्र की जागीरदारी अपने सामंतों को बाँटते रहते
थे। उन्हें इस बात से मतलब नहीं था कि वह अधिकार कर भी सकेंगे या नहीं। कर लिया तो
इलाका मुगल राज्य का अंग होगा, नहीं कर सके तो अभी भी वहाँ मुगलों का है ही क्या? दिल्ली
में इस समय मुगल राजकुमारों में सिंहासन के लिए मारामारी जारी थी। कई दल आपस में लड़
रहे थे। ऐसे में 1713 में फरुखाबाद के नवाब मोहम्मद खां बंगश ने फरुखशियर की मदद की और उसको दिल्ली
की गद्दी पर बैठाया। कुछ शब्द बंगश के बारे में भी कह दूँ क्योंकि इसकी बुंदेलखंड में
बहुत बड़ी भूमिका है। बंगश ने एक शहर बसा कर उसका नाम बादशाह फरुखशियर की इज्जत में
उनके नाम पर फरुखाबाद रखा और उसको अपना मुख्यालय बनाया। इसी कारण बंगश को नवाब फरुखाबाद
भी कहा जाता है। फारुखशियर इन सब कारणों से बंगश से बहुत खुश था। उसने बंगश को नवाब
का टाइटल देकर 4000 सैनिक अपनी सेना में रखने का अधिकार भी दिया।
इस सेना के रख रखाव पर होने वाले व्यय की भरपाई के लिए एरच, भांडेर,
कोंच, कालपी, सेवढ़ा,
तथा जालौन आदि परगने भी उसको दिए। अब आप समझ गए होंगे कि बंगश के बारे
में मैंने क्यों लिखा।
1719 में फरुखशियर के शासन के अंत होने
पर मोहम्मद शाह दिल्ली की गद्दी पर बैठा। उसने 1720 में बंगश
को इलाहबाद की सूबेदारी भी प्रदान कर दी। किताबी तौर पर जालौन जिला मुगलों के इलाहाबाद
सूबे में आता था। अतः अब बंगश ने अपने आदमी इस इलाके में नियुक्त करने शुरू किए। जनरल
आफ एशियाटिक सोसाइटी आफ बंगाल के अनुसार बंगश ने दिलेर खां को कोंच, पीर खां को कालपी, सुजात खां को जालौन के देखभाल के नियुक्ति
के आदेश किये। मामला फिर भी वहीं अटका था कि बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधे, मतलब
छत्रसाल से यह इलाका कौन छीने। पहली हिम्मत दिलेर खां ने दिखाई। उसने कालपी पर आक्रमण
करके छत्रसाल के लोगों को पराजित करके भगा दिया। छत्रसाल भला कहाँ चुप बैठने वाले थे।
विलिएम इरविन लेटर मुगल्स भाग दो में लिखते हैं कि 15 मई, 1721 को छत्रसाल के पुत्र जगत राज ने मौदहा (हमीरपुर)
में दिलेर खां को हरा दिया। घनघोर युद्ध में दिलेर खां मारा गया और कालपी पर छत्रसाल
का अधिकार हो गया। अब तो बंगश और छत्रसाल में युद्ध होना ही था।
पहले तो दोनों में पत्राचार हुआ। बंगश ने छत्रसाल
को संदेश भेजा कि वे मुगलों की आधीनता स्वीकार कर लें। छत्रसाल ने बड़ा करारा उत्तर
दिया, वे कवि भी थे अतः उनका उत्तर भी कविता में ही था। उत्तर पढ़ेंगे? चलिए पढ़ते हैं।
देवगढ देश नाहीं/दखिन नरेश नाहीं/ चंदाबाद नाहीं/जहाँ
गहने महल पाइहो/सौदागर सान नाहीं/देवं को थान नाहीं/जहाँ तुम पाहून ले/बहु तक उठ धाइयो/मैं
तो सुत चम्पत को/युद्ध बीच लेहों हाथ/वही जिय जान/उलटी चौथ दे पठाईहों/लिख दौ परवानो/ज
छत्रसाल जू ने/औरन के धोखे यहाँ कबहू न अइयो।
कविता पोस्ट करने में टाईप करने की गलती की संभावना
है। बुन्देली भाषा है, समझ कर पढ़ लें।
बंगश पूरी तैयारी के साथ 1727 में युद्ध के लिए आया। दो वर्षों
तक दोनों पक्षों की सेनाएं युद्धरत रहीं। दिसंबर, 1728 में जैतपुर
(महोबा) के युद्ध में छत्रसाल की पराजय हुई। जनरल आफ एशियाटिक सोसाइटी आफ बंगाल,
1778 के पेज 296 में उल्ललिखित है कि छत्रसाल को
पन्द्रह हजार सैनिकों, दस हजार घोड़ों के साथ आत्मसमर्पण करना
पड़ा। उन्होंने जैतपुर के किले से अपनी मुक्ति के प्रयास जारी रखे। गुप्तचरों के द्वारा
पूना के पेशवा बाजीराव को अपनी स्थिति का वर्णन करते हुए बंगश के विरुद्ध याचना पत्र
भेजा। इतिहासकारों के अनुसार पत्र कविता में था जिसमे लगभग सौ पंक्तियाँ थीं,
जिसमे से ये प्रसिद्ध हैं-
जो गति भई गजेन्द्र की, तौ गति पहुँची आय,
बाजी जात बुन्देल की, राखो बाजी लाज।
इस पत्र का पेशवा बाजीराव ने संज्ञान लिया और वे छत्रसाल
की मदद के लिए चले। वे उस समय राजस्थान में थे। आने में समय लगना स्वाभाविक था। इधर
होली का त्यौहार आ गया। छत्रसाल ने होली का त्यौहार मनाने के लिए बंगश से कुछ दिनों
के लिए कैद से मुक्ति मांगी। बुन्देलखण्ड अंडर मराठाज के लेखक बी०आर०अंधारे लिखते हैं
कि बंगश को छत्रसाल द्वारा बाजीराव को भेजे गए पत्र के बारे में कुछ भी मालूम नहीं
था, अतः उसने छत्रसाल को होली मनाने के लिए छोड़ दिया।
इधर छत्रसाल की प्रार्थना पर पेशवा बाजी राव मार्च
1729 में सहायता
के लिए भारी फ़ौज लेकर आ गए। छत्रसाल और बाजीराव की सम्मिलित सेना ने 15मार्च, 1729 को जैतपुर (हमीरपुर) में बंगश की सेना पर
आक्रमण किया पर सफलता नहीं मिली। अब मामला उल्टा था। बंगश अब किले के अन्दर था और उसके
विरोधी घेरा डाले थे। कई महीनों तक घेरा पड़ा रहा। इसी बीच पेशवा की सेना में हैजा फैल
गया। दूसरी बात यह हुई की बरसात का मौसम आने वाला था। प्रथा के अनुसार मराठी सेनाएं
वर्षा के पहले ही पूना लौट जाती थी। कालरा के कारण मराठी सेना के सैनिक जल्द लौटने
का आग्रह बाजीराव से कर रहे थे। अतः बाजीराव सेना सहित लौट गए मगर छत्रसाल घेरा डाले
रहे। बंगश को बाहर से कोई मदद नहीं मिल रही थी। किले में सैनिकों तथा जानवरों के लिए
रसद की भारी समस्या पैदा हो गई। अब बंगश ने छत्रसाल के सामने संधि का प्रस्ताव भेजा।
अगस्त 1729 में संधि हुई। बंगश ने वादा किया कि वह बुन्देलखण्ड
से चला जायगा और इतना ही नहीं भविष्य में कभी भी इधर का मुँह नहीं करेगा। जी०एस० सरदेसाई
मराठों के इतिहास भाग दो में लिखते हैं कि 23 सितंबर,
1729 को बंगश की सेना ने कालपी से यमुना पार करके अपने इलाके में चली
गई।
बाजीराव ने बड़े गाढे समय में छत्रसाल की मदद की थी, अतः छत्रसाल उनसे बड़े प्रभावित हुए
और उनको अपने पुत्र के समान माना। वी०जी०दिघे अपनी पुस्तक पेशवा बाजीराव एण्ड मराठा
एक्सपेंशन में कहते हैं कि छत्रसाल ने बाजीराव को अपना तीसरा पुत्र मान कर अपने
राज का तीसरा भाग पेशवा बाजीराव को देने का वचन दिया। दिसंबर 1731 में छत्रसाल का देहावसान हो जाने के बाद उनके पुत्र ह्रदयशाह और जगतराज ने
आधा-आधा राज आपस में बाँट लिया। जब तक छत्रसाल जिन्दा रहे पेशवा ने अपने भाग की बात
नहीं की थी लेकिन छत्रसाल के मरने के बाद जब दोनों पुत्रों ने आधा-आधा भाग बांट लिया
तब पेशवा को अपने भाग की चिंता हुई। अतः 1732 में पेशवा ने अपना
भाग प्राप्त करने के लिए चीमा जी को एक प्रतिनिधि मंडल के साथ भेजा। इस प्रतिनिधि मंडल
में गोविन्द पन्त बल्लाल खेर भी थे। इन्ही गोविन्द पन्त ने जिला जालौन में मराठा राज
स्थापित किया और यहाँ इतने रम गए कि इतिहास में इनको गोविन्दपन्त बुंदेला के नाम से
पुकारा जाने लगा। इनके पुत्र और वंशज ही जालौन के राजा के नाम से जाने गए।
अब जिले
का इतिहास उस जगह पर आ गया है जहाँ से मराठे यहाँ प्रभावशाली भूमिका में हैं। तो अगली
पोस्ट से इस विषय को लिया जाना ठीक रहेगा कि मराठो का राज जालौन में कैसे कायम हुआ?
कौन राजा हुए? उन्होंने क्या किया? इस बारे में मैंने अनुभव किया है की आमतौर पर लोगों
की जानकारी बहुत कम है। कुछ विस्तार से लिखना ठीक रहेगा।
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© देवेन्द्र सिंह (लेखक)
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